संपादकीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिसे रेवड़ी कहा है, और जिसे अलग-अलग राजनीतिक दल अपने-अपने कब्जे वाले राज्यों में जनकल्याणकारी कार्यक्रम कह रहे हैं, उस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। एक चर्चित वकील अश्विनी उपाध्याय बहुत से मुद्दों पर जनहित याचिकाएं लगाते रहते हैं, और उन्होंने चुनावी घोषणाओं के तहत राजनीतिक दलों द्वारा जनता को मुफ्त में दिए जाने वाले तोहफों के खिलाफ रोक लगाने की मांग सुप्रीम कोर्ट से की है। अदालत ने इसे लेकर राज्य सरकारों से पूछा है कि वे कर्ज लेकर चुनावी तोहफे क्यों बांट रहे हैं? अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें से मध्यप्रदेश, और राजस्थान सबसे अधिक कर्ज में डूबे हुए हैं। एमपी पर कर्ज 4 लाख करोड़ रूपए से अधिक हो गया है, और शिवराज सरकार ने अभी-अभी चार बार कर्ज लिया है। दूसरी तरफ राजस्थान में भी कर्ज 5.37 लाख करोड़ से अधिक हो गया है। आरबीआई की जानकारी के मुताबिक देश में पंजाब के बाद राजस्थान सबसे अधिक कर्ज में डूबा हुआ राज्य है। और ये दोनों राज्य अपनी जनता को क्या-क्या मुफ्त में दे रहे हैं, उसके दो-दो पेज के इश्तहार हर दिन छत्तीसगढ़ के अखबारों में भी छप रहे हैं जहां के लोग इन दोनों प्रदेशों के लिए वोट डालने वाले नहीं हैं।
अब सवाल यह उठता है कि अंग्रेजी में जिसे फ्रीबीज कहा जा रहा है, यह हिन्दी में रेवड़ी, मतदाताओं को सीधे फायदा पहुंचाने की इन घोषणाओं की सीमा क्या रहे? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद चाहे इसे रेवड़ी कहते रहें, उनकी सरकार की तरफ से भी लगातार ऐसी रियायतों और सहूलियतों की घोषणा की जा रही है। उनका शायद ही कोई बड़ा कार्यक्रम चुनावी राज्यों में ऐसा हो रहा हो जहां पर ये घोषणाएं न हों। आखिर भारत जैसे संघीय ढांचे में राज्यों के इस किस्म के फैसलों पर क्या कोई रोक लग सकती है? क्या यह रोक केन्द्र और राज्यों के किसी मिलेजुले फोरम पर तय हो सकती है? या क्या पार्टियों के आपसी संबंध इस हद तक कड़वे हो चुके हैं कि अब कोई भी सहमति सिर्फ किसी अदालती हुक्म से ही हो सकती है? लोगों को याद होगा कि मनमोहन सरकार के समय तक देश में एक योजना आयोग था जिसमें राज्य सरकारें जाकर अपने राज्य के हक और अपनी योजनाओं की चर्चा करती थीं, और देश के जाने-माने अर्थशास्त्री उन पर विचार-विमर्श करते थे। वह एक ऐसा मंच था जहां पर प्रदेशों को केन्द्र से किसी योजना को मंजूर करवाने के लिए, रकम पाने के लिए अपने मौजूदा फैसलों के बारे में जवाब भी देना होता था। आज हालत यह है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार केन्द्र सरकार की किसी सार्वजनिक परियोजना में अपना हिस्सा देने से मना कर रही है कि उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट को केजरीवाल सरकार से हिसाब मांगना पड़ रहा है कि उसने विज्ञापनों पर कितना खर्च किया है।
क्या आज मध्यप्रदेश और राजस्थान सरीखे जो राज्य चार-पांच लाख करोड़ रूपए के कर्ज में डूब गए हैं, उनसे भी देश में कोई यह हिसाब ले सकते हैं कि वे दूसरे राज्यों के आम मतदाताओं के सामने अपने राज्य के छोटे-छोटे फैसलों के महंगे इश्तहार क्यों कर रहे हैं? इससे मध्यप्रदेश या राजस्थान की जनता का क्या भला हो रहा है? या फिर चुनाव के बाद सरकार बना लेने वाले नेताओं को तमाम किस्म की मनमानी करने का हक मिल जाता है? राज्य की अर्थव्यवस्था को देखते हुए उसके बजट का कितना हिस्सा सरकारी अमले पर (स्थापना व्यय) करना चाहिए, कितना खर्च जनता को सीधे फायदे पहुंचाने वाले कामों पर, और कितना खर्च दीर्घकालीन ढांचागत योजनाओं पर करना चाहिए? क्या अब यह अनुपात भी अदालतें तय करेंगी? क्योंकि योजना आयोग जैसी संस्था को मोदी सरकार ने खत्म करके नीति आयोग नाम का एक छोटा सा दफ्तर छोड़ दिया है, जो कि राज्यों को कुछ समझाने की, उन्हें राय देने की कोई ताकत नहीं रखता।
अब अगर देश में कुछ राज्य बंदरगाहों की वजह से, या खदानों की वजह से दूसरे राज्यों के मुकाबले अधिक संपन्न रहेंगे, तो क्या इन राज्यों को अपनी जनता को बेहिसाब सीधे फायदे पहुंचाने का हक रहेगा? या फिर जिस तरह कर्ज लेकर आज कुछ राज्य वोटरों को खुश करने में जुटे हुए हैं, क्या उसकी बेहिसाब आजादी राज्य सरकारों और राज्य की पार्टियों को होनी चाहिए? आखिर इसकी सीमा क्या होगी? क्या देश के अमीर और गरीब राज्यों के बीच बहुत बड़ा फासला राष्ट्रीय एकता के लिए नुकसानदेह नहीं होगा? क्या प्रदेशों में दस-बीस साल में पूरी होने वाली किसी बड़ी जनकल्याणकारी योजना पर कोई काम ही नहीं किया जाएगा कि उसके एवज में पांच बरस के भीतर होने वाले चुनावों में तो कोई फायदा मिल नहीं सकेगा? ऐसी कई बातें हैं। दिक्कत यह है कि आज देश में किसी भी तरह से चुनाव जीत लेना सबसे बड़ी चुनौती मान ली गई है। गरीबी से जीतना, अभाव से जीतना, बेरोजगारी और महंगाई से जीतना अहमियत नहीं रखता, सिर्फ चुनाव जीतना मायने रखता है। यह नौबत हिन्दुस्तान को गड्ढे में डाल रही है। जब सत्तारूढ़ पार्टियां अपने-अपने राज्य में जनता के खजाने का आखिरी सिक्का भी लुटा देने के बाद कर्ज लेकर जनता के तलुवे सहलाने में लग गई हैं, और यूपी-पंजाब की ऐसी सरकारी योजनाओं के इश्तहार दूर-दूर के प्रदेशों में छप रहे हैं, तो लोकतंत्र के नाम पर क्या इसकी आजादी भी दी जा सकती है, दी जानी चाहिए?
एक बहुत बड़ा फैसला जिसे लुभाने वाला भी कहा जा सकता है, और रिटायर्ड सरकारी कर्मचारियों की भलाई का भी कहा जा सकता है, वह ओल्ड पेंशन स्कीम का है। हिमाचल चुनाव के पहले कांग्रेस ने इसकी घोषणा की थी, और चुनावी वायदा किया था, इस पहाड़ी राज्य में नौकरीपेशा लोग बहुत हैं, और कांग्रेस को इसका फायदा हुआ। इसके पहले वह अपने दूसरे राज्यों में इसकी घोषणा कर चुकी थी, और बाद में भी यह घोषणा जारी है। यहां यह याद रखने की जरूरत है कि कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार मोंतेक सिंह अहलूवालिया ने ओल्ड पेंशन स्कीम के खतरे बताए थे, और कहा था कि इसमें देश डूब जाएगा। मनमोहन सिंह के समय नई पेंशन योजना लागू हुई, और उन्हीं की पार्टी की राज्य सरकारों ने इसे खारिज करते हुए कर्मचारियों को खुश करने के लिए पुरानी योजना को लागू किया है जिसका बोझ कोई भी अर्थव्यवस्था ढो नहीं पाएगी।
हिन्दुस्तान और इसके प्रदेशों में बहुत सी पार्टियां और उनकी सरकारें चुनावों को ध्यान में रखकर इतने बुरे फैसले ले रही हैं कि इतने लोकतांत्रिक हक देश की अर्थव्यवस्था की नाकामयाबी की गारंटी सरीखे लग रहे हैं। देखते हैं सब कुछ बर्बाद होने में और कितने चुनाव लगेंगे।