संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जख्मी इजराइल से हमदर्दी तो ठीक है, लेकिन इससे जुड़े बहुत से और भी मुद्दे
09-Oct-2023 5:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जख्मी इजराइल से हमदर्दी तो ठीक है, लेकिन इससे जुड़े बहुत से और भी मुद्दे

इजराइल पर हमास के हमले के जवाब में इजराइल के गाजापट्टी पर इजराइल का हमला भयानक है। हमास तो फिलीस्तीन में बसा हुआ एक आतंकी संगठन है, जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है, और जिसे दुनिया आतंकी संगठन ही मानती है, लेकिन इजराइल तो संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य देश है, जो कि दुनिया के बाकी देशों के साथ कूटनीतिक संबंधों वाला भी है। इसलिए उसकी कार्रवाई एक देश की कार्रवाई की तरह होनी चाहिए। आज वह हमास के आतंकी ठिकानों पर हवाई हमलों के नाम पर गाजा के 20 लाख से अधिक आम नागरिकों की रिहायशी बस्तियों पर भी अंधाधुंध हमले कर रहा है, और मुस्लिम अरब देशों के खिलाफ जो पश्चिमी देश कई वजहों से एक रणनीति पर चलते हैं, वे आज इजराइल के साथ हैं जिसने हमास के आतंकी हमले में हजार-पांच सौ मौतें झेली हैं। उसने इसे अपने पर हमास की थोपी हुई जंग माना है, और हमास को तबाह करने का बीड़ा उठाया है। बार-बार पश्चिमी दुनिया इसकी 11 सितंबर के उस आतंकी हमले की मिसाल देते हुए चर्चा कर रही है जिसमें ओसामा-बिन-लादेन के विमानों ने न्यूयॉर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारत में विमान घुसाकर उसे ध्वस्त कर दिया था। वह किसी देश पर आतंकी हमले के इतिहास की सबसे बड़ी मिसाल बना हुआ है, और इजराइल इसे अपने पर उसी किस्म का हमला मान रहा है। 

लेकिन हमास के इस आतंकी हमले के पीछे की वजहों को अनदेखा करके दुनिया किसी सुख-चैन के मुकाम पर नहीं पहुंच सकती। इजराइल की रोज की फौजी हुकूमत अगर फिलीस्तीन के लोगों को आए दिन मारती है, उन्हें अपनी ही जमीन पर इंसानों से गया-बीता बनाकर रखा है, तो उसकी हिंसक और आतंकी प्रतिक्रिया तो किसी न किसी दिन होनी ही थी। लेकिन एक देश के रूप में इजराइल की प्रतिक्रिया मुस्लिम अरब देशों के बीच यह फिक्र खड़ी करेगी कि एक मुस्लिम देश के बेकसूर नागरिकों पर दशकों से चली आ रही इजराइली आतंकी हिंसा को देखते हुए बाकी मुस्लिम देश चुप बैठे रहें कि फिलीस्तीन सरीखे गरीब और कमजोर मुस्लिम देश का साथ दें? इसलिए हमास का यह ताजा हमला सैकड़ों जिंदगियों को खत्म करने वाला तो है, लेकिन साथ-साथ यह दुनिया को एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि क्या फिलीस्तीनियों पर इजराइलियों का दशकों का रोजाना का हमला आगे भी अनदेखा किया जाना चाहिए? 

दुनिया के जो देश आज इजराइली मौतों को लेकर उसके साथ खड़े हैं, जिनमें हिन्दुस्तान भी एक है, उनकी प्रतिक्रिया बेकसूर फिलीस्तीनियों को हवाई हमले में मारने पर क्या होगी, यह भी देखना होगा। क्या ऐसा कोई फौजी हमला जायज हो सकता है जो आतंकी ठिकानों को खत्म करने के लिए किया बताया जा रहा हो, और जो आतंकियों और बेकसूर नागरिकों में कोई फर्क न करता हो? लोगों को याद होगा कि भारत ने भारत में एक आतंकी हमला करने के आरोप में पाकिस्तान पर एक सर्जिकल स्ट्राईक करने की बात कही थी, और कहा था कि यह आतंकियों के प्रशिक्षण केन्द्र पर किया गया हवाई हमला था। दूसरी तरफ पाकिस्तान ने बताया था कि वहां पर कोई आतंकी प्रशिक्षण केन्द्र नहीं था, और हिन्दुस्तानी हवाई हमले में कोई मौत नहीं हुई, सिर्फ एक कौंवा मरा था। अब अगर हिन्दुस्तानी हवाई हमले में पाकिस्तान की किसी रिहायशी बस्ती के सैकड़ों लोग मारे गए होते, तो क्या वे मौतें जायज कही जातीं? 11 सितंबर के हमले के बाद अमरीका ने जिस तरह कई देशों पर हवाई हमले किए, अपनी फौज भेजी, वहां सत्ता पलट करवाया, उनसे किसका भला हुआ, खुद अमरीका का भी कोई फायदा उससे नहीं हुआ, और इन तमाम देशों से अमरीकी फौजों को पूरी नाकामयाबी के साथ छोडक़र जाना पड़ा। इसलिए किसी आतंकी हमले का बदला लेने के नाम पर जख्मी देश अगर दूसरे देश के बेकसूर लोगों पर हवाई हमला करता है, और आतंकियों को मारने के नाम पर सैकड़ों बेकसूर नागरिकों को मारता है, तो आज तो दुनिया के कई देश इजराइल को पूरी छूट देकर खड़े हुए हैं, लेकिन यह कौन से सभ्य लोकतंत्र का सुबूत है कि एक गरीब और लाचार देश में एक गुंडे देश के हवाई हमले से बेकसूर लाशें गिर रही हैं? अमरीका ने जब म्यांमार पर हुए आतंकी हमले का बदला लिया, तो उसने कई देशों में मरने वाले बेकसूर दसियों हजार लोगों के बारे में यही तर्क दिया था कि यह कोलैटरल डैमेज है, यानी गेहूं के साथ घुन पिस जाने की तरह। आज इजराइली हमलों में जो कोलैटरल मौतें हो रही हैं, वे फिर एक ऐसी पीढ़ी खड़ी करेंगी, जो अपने जीते-जी इजराइल से दुश्मनी भूल नहीं पाएगी। 

कुछ अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों का मानना है कि यह सही मौका है जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिलीस्तीन और इजराइल के झगड़े पर सोच-विचार होना चाहिए, और उसका एक शांतिपूर्ण समाधान निकालना चाहिए। फिलीस्तीनी लोग अपनी ही जमीन पर शरणार्थी बने हुए हैं, और उन्हें हर दिन बेदखल करके वहां इजराइली कॉलोनियां बनाने से दुनिया का यह हिस्सा कभी भी अमन-चैन नहीं देख पाएगा। पश्चिमी देश इजराइल के साथ खड़े हैं, लेकिन इस नौबत के पीछे इजराइल की जो हमलावर नीति दशकों से चली आ रही है, और जो लगातार फिलीस्तीनियों से जिंदा रहने का हक छीन रही है, उस बारे में इन देशों ने कभी कुछ नहीं किया, और फिलीस्तीनियों को इजराइली गुंडागर्दी और आतंक के रहम पर छोड़ रखा था। 

इजराइल जैसे महफूज और ताकतवर देश पर हुआ यह आतंकी हमला यह साफ करता है कि आतंक के लिए किसी देश की फौज जितनी ताकत नहीं लगती, बहुत कम ताकत से भी आतंकी हमले हो सकते हैं। इससे यह भी साबित होता है कि अधिकतर आतंकियों को दुनिया में कहीं न कहीं से मददगार भी हासिल हो सकते हैं। इसलिए तमाम देशों को अपनी-अपनी जमीन पर, या अपने पड़ोसियों के साथ कोई भी जुल्म करने के पहले याद रखना चाहिए कि जुल्म का जवाब बेकाबू और खतरनाक हो सकता है क्योंकि फौजें तो आत्मघाती नहीं होतीं, आतंकी आत्मघाती हो सकते हैं, अक्सर होते हैं। आज भी जो ताकतें इजराइल को खुली छूट देने की हिमायती हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि उनकी सारी ताकत सिर्फ फौजों के बदौलत हैं, वह ताकत आतंकी हमलों के मुकाबले नहीं हैं, और इजराइल में अभी-अभी यह साबित हुआ है। पूरी दुनिया में खुफिया निगरानी, सुरक्षा, और फौजी कार्रवाई की हर तरह की टेक्नालॉजी बेचने वाला दुनिया का यह बड़ा कारोबारी आज जिस तरह जख्मी पड़ा है, उससे उसकी बाजारू साख भी चौपट हुई होगी। इजराइल अपने शोकेस में ही नंगा हो गया है। फिलीस्तीनी जनता के रिहायशी इलाकों में उसका हमला यही बताता है कि वह बचाव में नाकामयाबी के बाद अब हमले की साख बचाकर रखना चाहता है। दुनिया को ऐसी तमाम बातों को समझना चाहिए, और मौके की नजाकत को समझते हुए फिलीस्तीनी मुद्दे का समाधान निकालना चाहिए। वरना दूसरे देशों के शोक संदेशों का कोई मतलब नहीं है। हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिजली की रफ्तार से इजराइल को अपनी हमदर्दी भेजी है। इससे अधिक लाशें मणिपुर में गिर जाने के बाद भी 75 दिनों तक उनका मुंह भी नहीं खुला था। इसलिए दुनिया की प्रतिक्रिया के शब्दों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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