संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गैरबराबरी की शिकार महिला कामगारों पर अध्ययन को नोबेल..
10-Oct-2023 3:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गैरबराबरी की शिकार महिला कामगारों पर अध्ययन को नोबेल..

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पिछले करीब एक सदी में नोबेल पुरस्कार कमेटी ने 93 लोगों को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार दिया है, इनमें से कल यह पुरस्कार पाने वाली क्लॉडिया गोल्डिन तीसरी महिला हैं। और एक दूसरे नजरिए से देखें तो अर्थशास्त्र में किसी पुरुष के साथ संयुक्त रूप से यह पुरस्कार पहले दो महिलाओं को मिला है लेकिन अकेले यह पुरस्कार जीतने वाली क्लॉडिया पहली महिला हैं। 1901 से शुरू हुए नोबेल पुरस्कारों में इकॉनामिक्स का पुरस्कार 1969 से शुरू हुआ, और कभी दो, कभी तीन लोगों को मिलते हुए वह अब तक 93 लोगों को मिला है। खैर, नोबेल पुरस्कार या अर्थशास्त्र के नोबेल के इतिहास को बताना आज का मकसद नहीं है बल्कि क्लॉडिया को उनके जिस अध्ययन के लिए यह सम्मान मिला है, वह चर्चा के लायक है। उन्होंने पिछले दो सौ बरसों में कामकाजी महिलाओं की भागीदारी का अध्ययन किया है, और इससे पता लगता है कि लगातार आर्थिक विकास के बाद भी, और कामकाज में हिस्सेदारी के बाद भी समान काम के लिए महिलाओं का वेतन पुरूषों के बराबर नहीं है। महिलाएं जहां अधिक पढ़ी-लिखी हैं, वहां भी उन्हें बराबरी की तनख्वाह नहीं मिलती। 

अब इस अर्थशास्त्री के निष्कर्षों से परे हम अपने स्तर पर इस मुद्दे को देखें तो कामकाजी महिला को समान काम के लिए समान वेतन या मजदूरी मिले, ऐसा दुनिया में कहीं नहीं होता है। उन्हें काम मिलने की संभावना कम रहती है, जब कहीं छंटनी होती है, तो सबसे पहले उनकी बारी आती है, अधिकतर संस्थानों में महिलाओं के छुट्टी और इलाज के हक को अनदेखा किया जाता है, काम की जगहों पर उनके शोषण की शिकायतों के निपटारे की कानूनी जरूरतें पूरी नहीं की जाती हैं, और उनकी मेहनत और उत्पादकता का मूल्यांकन पुरूषों के बराबर नहीं होता है। और यह बात कोई नई नहीं है, जब लोकतंत्र नहीं था, कानून नहीं थे, तब भी ऐसा ही हाल था, और आज भी ऐसा ही हाल है। हिन्दुस्तान की आजादी के पहले आंदोलन 1857 की क्रांति को देखें, तो लखनऊ की एक तवायफ की बेटी, और खुद भी तवायफ, अजीजन बाई के कोठे पर आजादी की लड़ाई की योजना बनती थी। वे नाना साहब, तात्या टोपे, जैसे क्रांतिकारियों के साथ बैठकों में शामिल होती थीं, और जेएनयू की एक प्रोफेसर ने भारत की आजादी की लड़ाई मेें तवायफों के योगदान पर एक रिसर्च पेपर लिखा है। उन्होंने यह भी लिखा है कि विनायक दामोदर सावरकर ने भी अपने लेखों में अजीजन बाई के बारे में लिखा है। एक दूसरी तवायफ रसूलन बाई ने गांधी से प्रेरित होकर गहने पहनने छोड़ दिए थे, और अपनी महफिल में मिले पैसे क्रांतिकारियों को दे देती थीं। ऐसी बहुत सी तवायफें थीं जिन्होंने अपना सब कुछ आजादी की लड़ाई को दिया, और दूसरी तरफ इस देश ने उन्हें तवायफ नाम की बेइज्जती से अधिक कुछ नहीं दिया। ऐसा ही एक दूसरा इतिहास धर्म के इतिहासकार देवदत्त पटनायक बताते हैं कि किस तरह कई तवायफों ने मठ बनाने के लिए, मंदिर के लिए, धर्म और सन्यासियों के लिए बहुत कुछ दान दिया। लेकिन समाज ने उन्हें अपमान के अलावा कुछ नहीं दिया। 

एक महिला की नजर से देखें, या कि एक इंसाफपसंद की नजर से देखें तो औरतों ने अपनी कमाई धर्म के लिए दान दी, और धर्म ने उन्हें देवदासी बनाकर छोड़ा। इन दोनों सच्चाईयों को एक साथ अगर रखकर देखें तो महिलाओं से होने वाली बेइंसाफी समझ आती है। हिन्दुस्तान जिस तरह मां के त्याग की महिमा गाते थकता नहीं है, उसकी कोई भी नीयत मां का सम्मान करने की नहीं रहती, बल्कि लड़कियों को यह प्रेरित करने की रहती है कि उन्हें आगे चलकर अपनी जिंदगी की तमाम जरूरतों और खुशियों को भूलकर कैसा त्यागी बनना है, किस तरह देवी की प्रतिमा के आठ हाथों की तरह उन्हें दूसरे इंसानों के मुकाबले चार गुना अधिक काम करना है, और एक मां या गृहिणी किस तरह मल्टीटास्किंग कर सकती है, यानी एक साथ कई किस्म के काम कर सकती है। महिला के लिए मन में सचमुच सम्मान रहता तो घर के मर्द और लडक़े उसका हाथ बंटाते, उसका बोझ कम करते। लेकिन नीयत जब उसे बरगलाकर और अधिक त्यागी बनाने की रहती है, तो फिर उसकी महिमा का गान होता है, और उसे झोंक दिया जाता है। 

हिन्दुस्तान जैसे देश में जिस महिला पर घर की पूरी जिम्मेदारी रहती है, और जो बाहर काम करने नहीं जा पाती, उसकी उत्पादकता को तो कुछ गिना ही नहीं जाता है। आम हिन्दुस्तानी बातचीत में घर पर ही काम करने वाली महिला का जिक्र करते हुए यही कहा जाता है कि वह कुछ काम नहीं करती, घरेलू महिला है, घर पर रहती है। घर पर इतने काम करने के लिए, इतनी ईमानदारी और निष्ठा से करने के लिए परिवार को कितनी मजदूरी चुकानी पड़ती, इसका कोई हिसाब नहीं लगाया जाता है। कुल मिलाकर मतलब यह है कि महिलाएं हर किस्म की गैरबराबरी की शिकार हैं, और अभी इस बरस का अर्थशास्त्र का जो नोबेल एक अकेली महिला को पहली बार मिला है, वह महिलाओं के मुद्दों की तरफ, उन पर थोपी गई गैरबराबरी की तरफ दुनिया का ध्यान कुछ वक्त के लिए तो खींच सकता है। अगर कोई सभ्य और समझदार समाज है, तो उसे चाहिए कि ऐसे हर मौके पर पुरस्कृत या सम्मानित लोगों के अध्ययन, उनके शोध, उनके लिखे या कहे हुए मुद्दों को अपने आसपास के माहौल पर भी लागू करके देखे। कामकाजी महिलाओं के साथ जो गैरबराबरी होती है, उसमें क्लॉडिया गोल्डिन ने हिन्दुस्तान आकर तो काम शायद नहीं किया होगा, लेकिन उनके निष्कर्ष ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान पर भी लागू होते हैं। हिन्दुस्तान के सामाजिक संगठनों को भी चाहिए कि उनके काम की तकनीकी जटिलताओं से परे, उनके निष्कर्षों को लेकर देश भर में जगह-जगह चर्चा हो, और उन्हें हिन्दुस्तानी संदर्भों से जोड़ा जाए। ऐसा करने पर हम नोबेल पुरस्कार से सम्मानित एक अर्थशास्त्री के काम का स्थानीय उपयोग भी कर सकेंगे। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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