संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भूख में हिन्दुस्तान इतना आगे दिखा, कि सरकार को इंडेक्स पर भरोसा नहीं
13-Oct-2023 4:02 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भूख में हिन्दुस्तान इतना  आगे दिखा, कि सरकार को  इंडेक्स पर भरोसा नहीं

एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संगठन द्वारा हर बरस तैयार की जाने वाली ग्लोबल हंगर इंडेक्स में लगातार भारत की जगह गिरती चली जा रही है। देश में लोगों के कुपोषण और भूखे रहने की हालत लगातार खराब मिल रही है। 125 देशों में किए गए इस सर्वे में भारत पिछले साल 107वीं जगह पर था, इस साल वह 111वीं जगह पर आ गया है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के किए जाने वाले इस सर्वे को भारत सरकार भरोसेमंद नहीं मानती, और पिछले दो बरस से वह इसे खारिज करते आ रही है। भारत सरकार का कहना है कि सर्वे का आधार एक ऐसा गलत पैमाना है जो भारत की वास्तविक स्थिति नहीं बताता। सरकार कहती है कि देश में भूख का आंकलन करने के इस सर्वे के चार पैमानों में से तीन बच्चों से संबंधित हैं। और सिर्फ बच्चों के स्वास्थ्य के पैमानों से पूरी आबादी की भूख का अनुमान लगाया जाना गलत है। इस सर्वे के मुताबिक भारत में भूख का स्कोर 28.7 फीसदी है जो कि भूख और भुखमरी की एक बेहद गंभीर स्थिति बताता है। 

किसी भी अंतरराष्ट्रीय सर्वे में अगर भारत में प्रेस की स्वतंत्रता, यहां धार्मिक आजादी, महिलाओं के हक, या भूख और कुपोषण के पैमानों पर भारत को कमजोर बताया जाता है तो भारत सरकार तुरंत ही उन्हें खारिज कर देती है। अब अगर भारत यह कहता है कि भूख नापने के चार पैमानों में से तीन बच्चों से संबंधित हैं, तो यह भी समझने की जरूरत है कि किसी भी परिवार में अगर सबसे पहले कोई खाना नसीब होता है, तो वह बच्चों को ही होता है। ऐसा शायद ही किसी घर में होता हो कि बच्चों को भूखा रखकर पहले बड़े खा लें। इसलिए सरकार की यह बात पहली नजर में हमारे गले नहीं उतरती है कि बच्चों की सेहत के पैमाने पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। बच्चों की सेहत उनकी माताओं की सेहत का प्रतिनिधित्व तो सीधे-सीधे करती है क्योंकि मां तो भूखे रहकर भी बच्चों को पहले खिलाती है। देश में अगर गरीबी और कुपोषण का बेहाल नहीं होता, तो भारत सरकार या प्रदेश सरकारें गरीबों को बिना दाम के राशन, या बहुत ही रियायती राशन क्यों देती होतीं? यह जाहिर है कि लोगों के पास खाने का इंतजाम नहीं है, इसीलिए स्कूलों में दोपहर के भोजन का इंतजाम किया गया, गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों के लिए पोषण आहार का इंतजाम किया गया। अगर हर घर में खाना-पीना होता, तो सरकार को ये इंतजाम करने ही नहीं पड़े होते। इसलिए किसी सर्वे के पैमानों को गलत करार देने के पहले देश की इस हकीकत को भी देख लेना चाहिए कि आबादी को किस तरह खाना देने के लिए सरकारों को कई तरह की योजनाएं चलानी पड़ रही हैं, और बच्चों को, गर्भवती महिलाओं को कुपोषण से बचाने के लिए सरकारी केन्द्र चलाने पड़ रहे हैं। जाहिर है कि लोगों के अपने घरों में इंतजाम पर्याप्त नहीं है। 

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम लंबे समय से इस बात की वकालत कर रहे हैं कि स्कूलों में दोपहर के भोजन की तरह सुबह के नाश्ते का इंतजाम करना चाहिए क्योंकि सबसे गरीब परिवारों के बच्चे पिछली शाम के खाने के बाद से अगले दिन स्कूल के मिड-डे-मील के बीच कुछ खाए हुए नहीं रहते हैं। बहुत गरीब घरों में नाश्ते का इंतजाम नहीं रहता है, और मजदूर मां-बाप सुबह जल्दी काम पर भी निकल जाते हैं। देश में तमिलनाडु ने सबसे पहले मिड-डे-मील शुरू किया था, और उसी ने स्कूलों में नाश्ता भी शुरू किया है। उसके बाद तेलंगाना में भी अभी इसकी घोषणा हुई है। छत्तीसगढ़ सरकार के पास सरकारी स्कूलों के अनुमानित 30 लाख बच्चों के लिए नाश्ते की योजना पर सालाना तीन सौ करोड़ के खर्च का प्रस्ताव रखा हुआ है, लेकिन सरकार की प्राथमिकताओं में उसे अब तक जगह नहीं मिली है। हो सकता है कि इस विधानसभा चुनाव में किसी राजनीतिक दल को अपने घोषणापत्र में इसे जोडऩे की सूझे, और उस पार्टी की सरकार भी आ जाए, तो हो सकता है कि अगले बरस के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की हालत थोड़ी सी बेहतर हो जाए। वैसे तो यह योजना पूरे देश में भारत सरकार को ही लागू करनी चाहिए, और प्रदेश अपने स्तर पर उसमें कुछ जोड़ सकते हैं जिस तरह की आज केन्द्र के मिड-डे-मील कार्यक्रम में राज्य अपनी तरफ से भी कुछ जोड़ते हैं। भारत सरकार को यह लग रहा है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स के चार पैमानों में से तीन बच्चों के स्वास्थ्य पर केन्द्रित हैं, इसलिए हम बच्चों से जुड़ी इस योजना की वकालत कर रहे हैं। 

भारत में सरकारी सेवाओं की कागज पर स्थिति, और जमीन पर उनकी असलियत के बीच एक बड़ा फासला है। सरकारें आमतौर पर अपनी योजनाओं के आंकड़ों को ही अमल और असर के आंकड़े मान बैठती हैं, जो कि सही बात नहीं है। अमल और कामयाबी के आंकड़े फाइलों में दर्ज किए जाने वाले सरकारी आंकड़ों के मुकाबले खासे कम रहते हैं। सरकारी योजनाओं की उत्पादकता हैरान करने की हद तक कम रहती है। इसलिए दूसरे देशों की तटस्थ एजेंसियों के किए गए बेहतर और ईमानदार सर्वे भारत सरकार को खटकते हैं। आईना देखने से इतना परहेज भी नहीं करना चाहिए, अपनी शक्ल जैसी भी है, उसे बिना मेकअप भी कभी-कभी देख लेना चाहिए, ताकि अचानक खुद को देखना पड़े तो पहचान सकें। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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