राजपथ - जनपथ
अलग-अलग दलों की एक नीति
छत्तीसगढ़ के पेसा कानून अभी-अभी लागू कर दिया गया है, जो वनों पर आदिवासियों के अधिकार को बढ़ाता है। पर वे कुछ प्रावधानों का विरोध कर रहे हैं। जैसे जमीन अधिग्रहण में ग्राम सभा की सहमति जरूरी नहीं, उनसे केवल परामर्श लिया जाएगा। लघु वनोपजों की बिक्री की प्रक्रिया तय करने का अधिकार उन्हें है लेकिन सर्वाधिक आय देने वाले तेंदूपत्ता पर अभी भी वन विभाग अधिकार होगा। इसे राष्ट्रीय उपज की श्रेणी में रख दिया गया है। पिछले दिनों मानपुर इलाके से खबर आई थी कि ग्रामीणों ने अपना तेंदूपत्ता वनोपज संघ को देने से इंकार कर दिया। उन्होंने महाराष्ट्र की तर्ज पर खुद व्यापारियों से सौदा किया, पर वन विभाग ने पत्ता जंगल से बाहर ले जाने से रोक दिया। खबर यह भी है कि इसके बावजूद करीब 15 गांवों ने तेंदूपत्ता संघ को नहीं बेचा है, संभाल रखा है और शासन से नीति बदलने की मांग कर रहे हैं।
मध्यप्रदेश में भी छत्तीसगढ़ के साथ-साथ ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। वहां भी पेसा कानून लागू करने का दबाव सरकार पर है। अभी इसका एक मसौदा बनाया गया है। सरकारी विभागों और आम लोगों से इस पर सुझाव देने के लिए कहा गया है। वे दोनों प्रावधान जिनका छत्तीसगढ़ में विरोध हो रहा है, मध्यप्रदेश में भी शामिल करने का प्रस्ताव है। जैसे, जमीन अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की मंजूरी जरूरी नहीं, सिर्फ परामर्श देंगे। तेंदूपत्ता की बिक्री वन विभाग के अधीन संचालित होने वाले लघु वनोपज संघ के माध्यम से ही होगी।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की और मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है। एक जैसी नीति बनाने की सिफारिशों का मतलब यही है कि पेसा कानून किसी मजबूरी में लागू किया जा रहा है। वनों के संसाधनों को सरकारें और ब्यूरोक्रेट्स अपने राजस्व का जरिया बनाकर रखना चाहती हैं।
डीएमएफ फंड के खर्च पर सवाल..
छत्तीसगढ़ में जिला खनिज न्यास के फंड से आने वाली रकम 1300 करोड़ रुपये के आसपास है। रायगढ़, बस्तर, कोरिया, रायगढ़ जैसे जिलों में भरपूर राशि आती है। मंशा हो, तो इससे खदान प्रभावित लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव आ सकता है। भाजपा शासनकाल में कलेक्टर जिला न्यास के अध्यक्ष होते थे। कांग्रेस की सरकार आने के बाद जिले के प्रभारी मंत्रियों को यह जिम्मेदारी दी गई। पर बाद में केंद्र सरकार की आपत्ति पर फिर कलेक्टर इसके प्रभारी बनाए गये। दोनों ही स्थितियों में इस मद से कराये जाने वाले काम में प्राथमिकता और पारदर्शिता का अभाव है। कोरबा जिले में तो मंत्री तक को मांगने से जानकारी नहीं मिली कि फंड में कितनी रकम बची है उससे क्या-क्या काम हो रहे हैं। लाखों रुपये की खेल सामग्री तब खरीद दी गई जब कोरोना के कारण स्कूल-कॉलेज बंद थे। सदस्यों को बैठक से पहले एजेंडे की जानकारी भी नहीं दी जाती। प्रभावित ग्रामों के सदस्य भी प्रशासकीय निकाय में सदस्य होते हैं, पर वे मुंह नहीं खोल पाते। पंचायतों के लिए भी दो-चार लाख रुपये स्वीकृत कर उन्हें खामोश रखा जाता है। उनको अपने खिलाफ जांच शुरू होने, कार्रवाई होने का डर तो रहता ही है। अब इसी कोरबा के प्रभावित गांवों के सरपंच और कई एक्टिविस्ट मांग कर रहे हैं कि डीएमएफ फंड की सोशल ऑडिट कराई जाए। जब पंचायतों के फंड से होने वाले काम का ग्राम सभा में अनुमोदन कराया जाना जरूरी है तो डीएमएफ जैसे बड़े फंड से किए जाने वाले कार्यों को छुपाया क्यों जाना चाहिए? इसे लेकर एक बैठक दो दिन हुई है। उम्मीद करनी चाहिए कि जन-प्रतिनिधि उनकी बात सुन रहे होंगे।
पीछा करती घोषणाएं...
सन् 2018 के चुनावों में कांग्रेस सरकार ने जो घोषणाएं की थीं, उनमें से अनेक पूरी नहीं हो पाई हैं। ऐसा ही विद्या मितान या गेस्ट टीचर का है। घोषणा पत्र समिति के प्रमुख टीएस सिंहदेव का एक पत्र सोशल मीडिया पर साझा किया गया है, जिसमें उन्होंने आश्वस्त किया था कि सरकार बनते ही यथाशीघ्र उनकी नियमित नियुक्ति की कार्रवाई की जाएगी। पर अब तक उनका आश्वासन पूरा नहीं हुआ। भर्तियों में उन्हें दो प्रतिशत बोनस अंक देने का आदेश निकाला गया है। इसे गेस्ट टीचर वादाखिलाफी बता रहे हैं। [email protected]