राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : निलम्बन कैसे खत्म हुआ?
17-Sep-2022 4:06 PM
छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : निलम्बन कैसे खत्म हुआ?

निलम्बन कैसे खत्म हुआ?

आखिरकार चर्चित आईपीएस मुकेश गुप्ता को केन्द्र सरकार ने बहाल करने के आदेश दिए हैं। गुप्ता की बहाली के आदेश की राजनीतिक, और प्रशासनिक हल्कों में दबे स्वर में काफी प्रतिक्रिया हो रही है। जोगी सरकार हुए लाठीचार्ज की घटना के बाद से भाजपा के बड़े आदिवासी नेता नंदकुमार साय, ननकीराम कंवर आदि नेता गुप्ता के खिलाफ मुखर रहे हैं। बावजूद इसके भाजपा सरकार में गुप्ता सबसे ताकतवर पुलिस अफसर रहे।
सरकार बदली तो अवैध फोन टैपिंग सहित अन्य मामलों को लेकर पूर्व गृहमंत्री कंवर ने सीएम भूपेश बघेल को गुप्ता के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा सौंपा था। इसके बाद ही सरकार ने गुप्ता के खिलाफ जांच की, और रिवर्ट कर निलंबन की कार्रवाई की। लेकिन 43 महीने बाद केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने गुप्ता का निलंबन खत्म कर उन्हें बड़ी राहत दी है। गुप्ता 13 दिन बाद रिटायर होने वाले हैं।
  सुनते हैं कि गुप्ता की बहाली में प्रदेश भाजपा के शीर्ष नेता ने अहम भूमिका निभाई है। अमित शाह रायपुर आए थे तब नेताजी ने गुप्ता के निलंबन पर बात की, और इसके बाद ही गुप्ता की बहाली का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसमें सच्चाई भले ही न हो, लेकिन गुप्ता के विरोधी भाजपा नेता, निजी चर्चाओं में शीर्ष नेता को काफी भला बुरा कह रहे हैं।

गेंद राज्य सरकार के पाले में

छत्तीसगढ़ के सबसे चर्चित और सबसे विवादास्पद आईपीएस अफसर, मुकेश गुप्ता, का मामला फिर खबरों में हैं। भूपेश सरकार ने मुकेश गुप्ता को निलंबित किया था, और उनके खिलाफ कई एफआईआर भी की थीं जो जारी हैं। सुप्रीम कोर्ट से स्टे मिलने की वजह से इन एफआईआर पर कार्रवाई तो रूकी हुई है, लेकिन मुकेश गुप्ता निलंबित ही चल रहे हैं। अब 16 सितंबर को भारत सरकार के गृहमंत्रालय ने राज्य सरकार को एक आदेश भेजा है, और मुकेश गुप्ता के सारे मामलों को देखते हुए उनका निलंबन खत्म करने की सूचना दी है। आईपीएस अफसर भारत सरकार के ही होते हैं, और यह आदेश एक किस्म से अंतिम है। इसी महीने रिटायर हो रहे मुकेश गुप्ता को इस आदेश से यह उम्मीद हो सकती है कि वे निलंबित रहते हुए रिटायर नहीं होंगे, लेकिन सवाल यह है कि छत्तीसगढ़ सरकार भारत सरकार के इस आदेश को ज्यों का त्यों मान लेगी, या इसे किसी अदालत में चुनौती देगी? अगर चुनौती देगी तो यह बात तय मानी जा सकती है कि रिटायरमेंट की तारीख तक उस अपील पर निपटारा नहीं हो सकेगा। यह केन्द्र और राज्य के अधिकार क्षेत्रों के बीच का एक जटिल मामला है, और कल रात से इस आदेश के आने के बाद छत्तीसगढ़ में बड़े सरकारी अफसर, और कानून के जानकार यही अटकल लगाने में लगे हैं कि अब गेंद छत्तीसगढ़ सरकार के पाले में है, और वह क्या करती है?

कोर ग्रुप में भी बदलाव संभव

शहर जिला भाजपा अध्यक्ष श्रीचंद सुंदरानी भी बदले जा सकते हैं। चर्चा है कि प्रदेश प्रभारी पुरंदेश्वरी ने हटने से पहले कुछ जिला अध्यक्षों को हटाने की वकालत की थी, उनमें सुंदरानी का भी नाम है।
सुनते हैं कि पुरंदेश्वरी की सिफारिश पर ही नांदगांव जिलाध्यक्ष मधुसूदन यादव को हटाने पर सहमति बनी है। उन्हें प्रदेश का उपाध्यक्ष बनाया गया है। यद्यपि पूर्व सीएम रमन सिंह, बदलाव के पक्ष में नहीं है,  लेकिन स्थानीय तमाम प्रमुख नेता यादव को बदलने पर जोर दे रहे हैं।
उनकी नियुक्ति के पहले भी विरोध हुआ था, लेकिन रमन सिंह के दबाव के चलते यादव को बनाने का फैसला लिया गया। मगर इस बार हाईकमान ने परफार्मेंस को ही आधार बनाकर बदलाव करने का सुझाव दिया है। यही वजह है कि सिफारिशें दरकिनार कर दी गई है, और बड़े बदलाव हो रहे हैं। कोर ग्रुप में भी बदलाव संभव है। स्थानीय बड़े नेताओं की सिफारिशों को कितना महत्व मिलता है, यह देखना है।

बिना खरीददार-पाठकों वाली किताबें


साहित्य से जुड़े बहुत से आयोजन सरकारी और गैरसरकारी खर्च से होते रहते हैं। लेकिन साहित्य में मामूली दिलचस्पी रखने वाले लोग भी किसी औपचारिक मंच पर यह चर्चा नहीं करते कि किताबें लोगों की पहुंच के बाहर क्यों हैं? पचास रूपये में जो किताब छप सकती है उसे रंग-रोगन करके कुछ महंगी बनाना, और चार सौ रूपये में बेचना एक किस्म से पाठक खत्म करना ही है। जासूसी उपन्यास रद्दी कागज की लुग्दी से दुबारा बने कागज पर लाखों की संख्या में छपते हैं, सस्ते पड़ते हैं, और साहित्य की किताब के मुकाबले एक चौथाई दाम पर मिलते हैं। लेकिन साहित्य की किताबें ऐसे सस्ते कागज पर छपवाने के बारे में शायद न लेखक सोचते, और न ही प्रकाशक। जानकार लोग बतलाते हैं कि प्रकाशकों ने सरकारों के साथ खरीदी-बिक्री की एक ऐसी गिरोहबंदी बना रखी है कि उन्हें किताब महंगी दिखाकर, मोटी रिश्वत देकर सरकारों को किताब बेचने में तेज और आसान मुनाफा दिखता है। इसलिए आम खरीददार-पाठक किताबों की प्राथमिकता में कहीं भी नहीं है। नतीजा यह हुआ है कि पहुंच के बाहर दाम की किताबें खरीदने का चलन ही खत्म हो गया है। अब खुद लेखक ही मोटेतौर पर खरीददार रह गए हैं, और सारा मामला कुछ सौ कॉपियों के भीतर का रह जाता है। किताबों को आम जनता की पहुंच तक ले जाने का कोई जनआंदोलन अगर शुरू हो, तो ही कोई बात है, वरना किताबें अब सरकारी खरीद से परे कुछ लोगों के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक रह जाएंगी। देश की बहुत सी अच्छी साहित्यिक प्रतिकाएं बड़े सस्ते कागज पर छपती हैं, लेकिन इनसे भी साहित्यिक किताबों को कुछ सीखने नहीं मिलता। प्रेमचंद को आर्ट पेपर पर छापें, या री-साइकिल्ड कागज पर, उनका महत्व एक बराबर रहेगा। महान लेखक को महंगे कागज की दरकार नहीं रहती है। अगर कुछ सौ किताबों के खरीददारों को कोई किताबों की ग्राहकी मान ले, तो उनसे हमें कुछ नहीं कहना है।

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