राजपथ - जनपथ
कुछ की भावना, बाकी को खतरा
देश भर में गौभक्तों की अतिसक्रियता के चलते बूढ़े और कमजोर हो चुके अनुत्पादक गाय, बैल, और सांड का कई राज्यों के कसाईघरों तक जाना बंद सरीखा हो गया है। नतीजा यह है कि गांव-गांव में ऐसे जानवरों की भीड़ खेतों को चर रही है, और बारिश के पूरे मौसम में गीली मिट्टी से बचने के लिए पक्की सडक़ पर डेरा डालकर बैठी है। कई ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें रात के अंधेरे में या बारिश के वक्त कोई बड़ी गाड़ी ऐसे दर्जन भर जानवरों को कुचल चुकी है, और खुद भी हादसे का शिकार हुई है। देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था ऐसे जानवरों की जिंदगी अनुपयोगी हो जाने पर उनसे छुटकारा पाने पर टिकी हुई थी, लेकिन अब किसान बूढ़े जानवरों को बेच नहीं सकते, उन्हें खिला-पिला नहीं सकते, और नए जानवर खरीद नहीं सकते। नतीजा यह है कि गौवंश से मोहब्बत करने वाले लोग अपनी भावनाओं से परे और कुछ नहीं देते, बस लोगों के लिए दिक्कत खड़ी करते हैं।
दूसरी तरफ शहरों की संपन्न बस्तियों में सवर्ण और संपन्न लोग अपनी धार्मिक भावनाओं के चलते हुए गायों और सांडों को रोटी खिलाते हैं, और इन रोटियों के चक्कर में बिना मालिक वाले ऐसे जानवर रिहायशी इलाकों में डेरा डाले रहते हैं। गंदगी भी फैलाते हैं, और पार्किंग की जगह भी घेरकर रखते हैं, लेकिन इन्हें खिलाने वाले लोगों की धार्मिक भावनाओं को देखते हुए इलाके के पार्षद और म्युनिसिपल अफसर भी कुछ नहीं कर पाते। हर शहर में ऐसे सांडों के हमलों से कभी मौतें हुई हैं, तो कभी लोग जख्मी हुए हैं, लेकिन लोगों की भक्तिभावना दूसरों के लिए खतरा पैदा करते हुए जारी ही है।
स्वास्थ्य विभाग को जगाए कौन?
दशहरा के ठीक पहले स्वास्थ्य सेवाओं की जमीनी हालत पर आंखें नम करने वाली दो खबरें आईं। कोरबा में एक पांच साल के बच्चे को पास के खरमोरा से इलाज के लिए मेडिकल कॉलेज अस्पताल लाया गया था। उसकी जान नहीं बचाई जा सकी। अगली सुबह पोस्टमार्टम कर बच्चे का शव पिता को सौंप दिया गया। अब उसे घर ले जाने के लिए सरकारी शव वाहन की जरूरत थी। घंटों कोशिश के बाद प्रबंध नहीं हुआ। पिता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह प्राइवेट वाहन कर सकता। अंत में एक परिचित को दया आई। उसकी बाइक पर शव को लादकर वह घर लेकर गया।
इधर बलरामपुर जिले के वाड्रफनगर में रविवार को देखा गया कि मजदूर अशोक पासवान का मासूम भांजा उसे एक हाथ ठेले पर लिटाकर अस्पताल ले जा रहा है। पुलिस ने देखा तो रोका और एक वाहन की व्यवस्था की और अस्पताल पहुंचाया। मगर इलाज में देरी की वजह से मजदूर की मौत हो गई।
एक घटना कोरबा की है, जो प्रदेश का सबसे अमीर जिला है। नैसर्गिक संसाधन, कोयला खदान, ऊर्जा, सीएसआर, डीएमएफ, राजस्व सभी मामलों में अव्वल है। दूसरी घटना सरगुजा संभाग की है, जहां से स्वास्थ्य मंत्री आते हैं। फिर भी सरगुजा से आए दिन लचर स्वास्थ्य सेवाओं की खबर आ रही हैं और सुधार कुछ नहीं दिख रहा।
केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने मुफ्त इलाज के लिए बीमा योजनाएं लागू कर रखी हैं, पर जिन्हें स्वास्थ्य की आधारभूत सेवा ही नहीं मिल रही हों वे उनके लिए इलाज महंगा हो या मुफ्त, क्या फर्क पड़ता है।
विधायक कुंभकरण के रोल में
अपने विधायकों की नृत्य, गान, अभिनय प्रतिभा समय-समय पर सार्वजनिक समारोहों में सामने आती रहती हैं। इस दशहरा में केशकाल के विधायक संतराम नेताम भी एक नए रोल में दिखे। बड़े डोंगर में रामलीला मंचन के दौरान उन्होंने कुंभकरण की भूमिका निभाई। वैसे नेताम का कहना है कि उनका यह रोल नया नहीं है। पिछले साल भी रामलीला में वे कुंभकरण बने थे। बचपन में जब गांव में लीला होती थी, तब भी वे इसी भूमिका में मंच पर आते थे। कुंभकरण की भूमिका में ही क्यों? विधायक का कहना है कि कुंभकरण के बारे में कहा जाता है कि वे 6 माह सोते हैं, कैरेक्टर की यही खासियत उन्हें पसंद आती है।
मुमकिन है कि विधायक क्षेत्र की जनता की चिंता में दिन-रात लगे रहते हों, सोने का मौका नहीं मिलता हो। इसी बहाने वे अपनी नींद पूरी कर लेते होंगे।
रोजगारशुदा गरीब..
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनामी (सीएमआईई) की ताजा रिपोर्ट ने सरकार को फिर एक बार अपनी पीठ थपथपाने का मौका दिया है। राज्य की बेरोजगारी दर देश में सबसे कम 0.1 प्रतिशत पर आ गई है। यानि 99.9 प्रतिशत लोगों के पास कोई न कोई व्यवसाय है। एक हजार में सिर्फ एक के पास काम नहीं है। सीएमआईई ने पहले भी जो आंकड़े जारी किए थे, उसमें छत्तीसगढ़ में बेरोजगारी बहुत कम दर्शाई गई थी।
दूसरी तरफ जुलाई में संसद में दिया गया एक जवाब भी हम सामने रख सकते हैं। इसके मुताबिक सबसे ज्यादा गरीब करीब 40 प्रतिशत आबादी छत्तीसगढ़ की है। हम झारखंड, ओडिशा, बिहार जैसे पिछड़े कहे जाने वाले राज्यों से भी ज्यादा बुरी स्थिति में हैं। दोनों आंकड़ों में तालमेल नहीं बैठता। ऐसा क्यों है कि लोगों के पास रोजगार तो है, पर वे गरीब भी हैं। क्या उनको नाम-मात्र भुगतान हो रहा है? न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल रही?
छत्तीसगढ़ के श्रम आयुक्त ने पिछले सप्ताह कृषि मजदूरों के लिए नई न्यूनतम मजदूरी 273 रुपये तय की है। पर यह भुगतान शायद ही कभी किसी को होता हो।
सरकारी परिभाषा के मुताबिक कोई ग्रामीण 816 रुपये और शहरी 1000 रुपये से अधिक एक माह के भीतर खर्च करने की स्थिति में है तो वह गरीबी रेखा में नहीं आएगा। फिर इन श्रमिकों को कितने दिन काम मिल रहा है और किस दर से भुगतान हो रहा है? जब 40 फीसदी लोग हजार रुपये महीने खर्च करने की स्थिति में नहीं हों तो फिर रोजगार के इस सुनहरे आंकड़े का क्या किया जाए?
पुलिस जवानों का वर्चुअल आंदोलन
पुलिस जवानों को सुविधाएं देने की मांग पुरानी है। भाजपा शासनकाल में अनुशासन में बंधे होने के कारण वे खुद सामने नहीं आए, पर उनके परिवार के सदस्यों ने आंदोलन किया था। पुलिस जवानों ने अवकाश की अर्जी लगाई थी, आंदोलन सुलगने के कगार पर था। तब तत्कालीन गृह मंत्री ननकीराम कंवर ने उनकी मांगों को जायज बताते हुए यह भी कहा था कि उन्होंने सरकार को कुछ मांगों को पूरा करने का सुझाव दिया था, पर विचार नहीं किया गया। कांग्रेस ने तब इस आंदोलन को समर्थन दिया और मांगों को पूरा करने की बात अपने घोषणा पत्र में की।
इनमें से साप्ताहिक अवकाश पर निर्णय ले लिया गया है। जो अन्य वादे किए गए थे उनमें पुलिस कर्मचारियों के आवास व बच्चों की शिक्षा के लिए कल्याण कोष को शासकीय अनुदान, नि:शुल्क स्वास्थ्य सेवा, सभी रैंक में नियमित पदोन्नति और वेतन वृद्धि, साइकिल भत्ता की जगह पेट्रोल भत्ता और इसकी राशि में वृद्धि, तृतीय वर्ग के पुलिस कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि की जाएगी, शामिल थे। यह भी कहा गया कि उनसे सुरक्षा का काम ही लिया जाएगा, बंगले आदि में अन्य कार्य नहीं लिए जाएंगे।
अब जब मौजूदा सरकार को चार साल पूरा होने जा रहा है, पुलिस कर्मचारी अपनी मांग पूरी होने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। उन्हें आंदोलन करने का अधिकार नहीं है, पर उनके पक्ष में सोशल मीडिया पर कई पेज तैयार हैं, जिसके जरिये वे अपनी बेचैनी सरकार तक पहुंचा रहे हैं।