राजपथ - जनपथ
सामाजिक समानता की ओर...
केन्द्र सरकार ने वॉल्व वाले एन-95 मास्क को नाकामयाब बताते हुए उसका इस्तेमाल न करने की चेतावनी क्या जारी कर दी, तमाम बड़े लोग उदास हो गए। आज किसी बड़े व्यक्ति को देखें, तो वे इसी किस्म के मास्क में दिखते हैं जो कि आमतौर पर सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर-नर्सों को भी नसीब नहीं हो रहे हैं। अब इन लोगों ने सरकारी या निजी पैसों से ऐसे एन-95 मास्क इक_ा कर रखे थे क्योंकि उन्हें यह खतरा भी था कि बाजार से ये खत्म हो जाएं तो उन पर एक खतरा आ सकता है। अब जब एकाएक केन्द्र सरकार ने इसे इस्तेमाल न करने के साथ-साथ इसके प्रयोग पर रोक लगाने के लिए कहा है, तो यह पूरा स्टॉक बेकार हो गया। अभी तक आम और खास लोगों में एक फर्क यह भी था कि आम लोग साधारण मास्क इस्तेमाल करते थे, और खास लोग एन-95। अब एक सामाजिक समानता आ जाएगी।
रूपया किलो चावल, दो रूपया गोबर...
राज्य सरकार ने पहले डेढ़ रूपए किलो गोबर खरीदने की घोषणा की थी, फिर उसे बढ़ाकर दो रूपए किलो कर दिया। सरकारी खरीदी में धान जैसे सूखे सामान में नमी कितनी रहती है उसे देखकर ही खरीदी होती है। अब गोबर के मामले में क्या होगा? गोबर तो धूल-मिट्टी पर से उठाकर लाया जाता है, तो मिट्टी-कंकड़ कम या अधिक होने से क्या होगा? और सबसे बड़ा खतरा यह है कि आने वाले महीनों में बारिश रहेगी, और बारिश के पानी में खरीदा हुआ गोबर अगर बह जाएगा, तो सरकारी माल के स्टॉक का हिसाब कैसे रखा जाएगा? ये तमाम चीजें सरकार की भावना, और उस पर आरएसएस की हार्दिक प्रशंसा पर हावी होने जा रही हैं। तेंदूपत्ता, इमली, और धान की खरीदी आसान है, गोबर की खरीदी थोड़ी मुश्किल रहने वाली है। फिर यह भी है कि जिस प्रदेश में गरीबों को एक रूपए किलो चावल मिल रहा है, उनसे दो रूपए किलो गोबर खरीदने को भी बहुत सारे लोग मजाक का सामान बना रहे हैं। ऐसे ही मजाक में एक व्यक्ति ने कहा कि गाय को एक किलो चावल खिलाकर देखना चाहिए कि वह एक किलो गोबर देती है या नहीं? अगर गोबर एक किलो मिल जाए, तो सरकारी रियायती चावल खिला-खिलाकर भी गोबर का धंधा किया जा सकता है।
नांदगांव श्मशान से सीखा जाए...
लेकिन ऐसे तमाम मजाकों से परे हकीकत यह है कि अगर सरकार गोबर खरीदने में और उसका इस्तेमाल करने में कामयाब होती है, तो बहुत बड़ी बात हो जाएगी। छेना, कंडा, या गोबरी जैसे नामों से प्रचलित चीजें भी बन सकती हैं जो कि अंतिम संस्कार में लगने वाली लकडिय़ों का अच्छा विकल्प हो सकती हैं। इससे पर्यावरण की बर्बादी भी कम होगी, और हो सकता है कि अंतिम संस्कार का खर्च भी कुछ कम हो जाए। राज्य सरकार को राजनांदगांव के श्मशान का मॉडल देखना चाहिए जहां अंतिम संस्कार सिर्फ छेने से होता है। देश में कहीं-कहीं पर लकड़ी के बुरादे या पत्तों के साथ मिलाकर भी गोबर से सूखी लकड़ी जैसी ही बनाने के प्रयोग हुए हैं, राज्य सरकार को ऐसे प्रयोगों की जानकारी भी लेनी चाहिए ताकि गोबर खरीदी मखौल का सामान न बने, रमन सरकार के वक्त का रतनजोत जैसा फ्लॉप प्रयोग न बने, और सचमुच ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मदद मिल सके।