राजपथ - जनपथ
जब मुखिया ने कृषि मंत्री को दिलवाया करेला !
एक पुरानी और प्रचलित कहावत है करेला ऊपर से नीम चढ़ा। इसका आशय हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं और अक्सर हम इसका उपयोग भी करते हैं। पिछले दिनों सूबे के मुखिया अपने सरकारी निवास से गोबर खरीद योजना की लांचिंग कर रहे थे। उस दौरान मुखिया के सरकारी आवास का पूरा वातावरण छत्तीसगढ़ीमय था। यहां गोबर खरीद के साथ हरेली उत्सव का भी कार्यक्रम रखा गया था। लिहाजा ग्रामीण इलाके से बड़ी संख्या में लोग आए हुए थे। इस दौरान मुख्यमंत्री को ऑर्गनिक तरीके से उगाई गई सब्जी-भाजी महिलाओं ने भेंट की। जिसमें तमाम तरह की देसी साग-भाजी की टोकरी थी। महिलाओं ने बड़े सलीके से अपने मुखिया को सब्जी की टोकरी उपहार स्वरुप भेंट की। इस दौरान राज्य के कृषि मंत्री भी मौजूद थे। सबसे पहले मुख्यमंत्री को भिंडी की टोकरी दी गई। इसके बाद जैसे ही करेले की टोकरी महिलाओं ने आगे बढ़ाई, सीएम ने तपाक से कृषि मंत्री की तरफ इशारा किया कि ये उन्हें दिया जाए। कृषि मंत्री ने बड़ी सहजता से करेला स्वीकार किया। उसके बाद जितनी भी सब्जी-भाजी दी गई सभी को सीएम ने लिया। अब करेले में ऐसा क्या था, ये तो नहीं पता, लेकिन सीएम साहब ने जो किया उसे सभी ने देखा। चूंकि इसी दिन यहां हरेली उत्सव भी मनाया जा रहा था और हरेली के दिन मान्यता है कि चौखट पर नीम के पत्ते लगाए जाते हैं। सीएम आवास में भी जगह-जगह नीम के पत्ते लगाए गए थे। इस तरह यहां पर करेले और नीम का कॉम्बिनेशन अपने आप हो गया। संभव है कि करेले पर नीम चढ़ गया होगा, तभी तो सीएम ने कृषि मंत्री की तरफ बढ़ा दिया। जैसा कि सभी जानते हैं कि करेला कड़वा होता है और नीम की भी तासीर कड़वी होती है। करेले पर नीम चढ़ जाए तो उसकी कड़वाहट मत पूछिए। अब यहां कौन करेला है और किस पर नीम चढ़ा है। इस पर हम कुछ नहीं कह रहे हैं। ये तो एक वाकया है, जिसके कई लोग साक्षी है। अब सियासत में मायने तो ऐसे ही निकाले जाते हैं।
पद छोडऩा उचित समझा
रसिक परमार के छत्तीसगढ़ दुग्ध महासंघ अध्यक्ष पद से इस्तीफे से सहकारिता अफसरों ने राहत की सांस ली है। रसिक भाजपाई हैं। और वे सरकार की आंखों की किरकिरी बने हुए थे। सरकार के लोग उन्हें हटाना चाह रहे थे, मगर यह आसान नहीं था। क्योंकि उनके खिलाफ कोई पुख्ता मामला भी नहीं बन पा रहा था और उन्हें जबरिया हटाने से मामला अदालत जा सकता था। राजनीति में आने से पहले रसिक पत्रकार के रूप में सीएम के दो सलाहकार रूचिर गर्ग और विनोद वर्मा के साथ भी काम कर चुके हैं। अलग-अलग पार्टियों से जुड़े होने के कारण पुराने सहयोगी भी चाहकर रसिक की मदद नहीं कर पा रहे थे।
ऐसा नहीं है कि पिछली सरकार में भी रसिक के लिए सबकुछ ठीक था। तब भी कई प्रभावशाली लोग उन्हें नापसंद करते थे। पार्टी बैठकों के नाम पर मुफ्त दूध-म_ा और श्रीखंड भिजवाने के लिए काफी दबाव रहता था, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से साफ तौर पर मना कर दिया। चूंकि रसिक संगठन के पसंदीदा थे इसलिए किसी दबाव का उन पर ज्यादा असर नहीं पड़ा। उन्होंने अपने कार्यकाल में देवभोग ब्रांड को अमूल की तर्ज पर मशहूर करने के लिए भरपूर मेहनत की। खैर, भूपेश सरकार ने उनके खिलाफ जांच बिठाई, तो उन्हें इससे कोई परेशानी नहीं थी। मगर जिस तरह शिकायतों को विरोधी मीडिया में हवा दे रहे थे उससे वे नाखुश थे। पार्टी के कई नेता उन्हें इस्तीफा देने के बजाए अदालत में जाने की सलाह दी थी, लेकिन इससे महासंघ को नुकसान पहुंचने का अंदेशा था। ऐसे में उन्होंने पद छोडऩा उचित समझा।
राजनीति में सब कुछ संभव है
निगम-मंडल में नियुक्तियां होनी है, और अब रसिक परमार के इस्तीफे के बाद खाली दुग्ध महासंघ में भी नियुक्तियां होनी है। महासंघ के अध्यक्ष पद के लिए संगठन के एक बड़े पदाधिकारी का नाम उछला है। सुनते हैं कि संगठन के ये पदाधिकारी राज्य बनने के पहले और बाद में कभी महासंघ के बड़े ठेकेदार हुआ करते थे, उनका दुग्ध परिवहन में एकाधिकार था। मगर वे कांग्रेस की गुटबाजी में फंस गए। उन पर विद्याचरण शुक्ल का साथ छोडऩे के लिए दबाव पड़ा, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। धीरे-धीरे उनका सारा काम छीन गया। अब सरकार कांग्रेस की आ गई है और खुद भी ताकतवर हो चुके हैं। ऐसे में उनका नाम तो चर्चा में है, लेकिन उन्हें संगठन के अहम दायित्व से मुक्त कर महासंघ की कमान सौंपी जाएगी, इसमें संदेह है। फिर भी कांग्रेस और राजनीति में सब कुछ संभव है।