राजपथ - जनपथ
अंग्रेज चले गए, पुलिस छोड़ गए...
दुनिया के सभ्य और विकसित लोकतंत्रों में जब मां-बाप अपने बच्चों को किसी मुसीबत की नौबत के बारे में सिखाते हैं तो पहली नसीहत यह रहती है कि कोई खतरा या परेशानी होने पर सबसे पहले पुलिस को फोन करें या आसपास दिख रही पुलिस तक जाएं। यही वजह है कि पश्चिम के विकसित देशों में छोटे-छोटे बच्चे भी असली खतरे के वक्त या नासमझी में भी पुलिस को फोन लगा लेते हैं।
लेकिन हिन्दुस्तान में खुद पुलिस के लोग यह मानते हैं कि यहां पुलिस के अमले में इतनी संवेदनशीलता नहीं है कि बच्चे उनसे जाकर संपर्क कर सकें। इस देश में अंग्रेजों के वक्त से पुलिस को देसी लोगों को कुचलने के हिसाब से तैयार किया गया था, और आजादी की पौन सदी बाद भी उसका मिजाज बदला नहीं है। मुसीबत में पुलिस को बुलाने का एक मतलब एक नई मुसीबत खड़ा करना भी होता है, और लोग यह तौलते रह जाते हैं कि पुलिस को न बुलाना बड़ी मुसीबत होगी, या बुलाना।
अब राजधानी रायपुर में आज जिस वक्त कांग्रेस भवन में मुख्यमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक तमाम लोग मौजूद थे, तब बाहर ट्रैफिक पुलिस के लोग एक ऑटोरिक्शा पर इस तरह रवाना हो रहे थे। ड्राइवर की सीट पर ही एक पुलिसवाला सवार हो गया था जो कि ट्रैफिक के नियमों के भी खिलाफ है और कोरोना से सावधानी के भी खिलाफ।
जब तक पुलिस अपने मिजाज को नियम-कायदे मानने वाला नहीं बनाएगी, तब तक पुलिस पर लोगों का भरोसा बन नहीं पाएगा। किसी मारपीट की नौबत पर पुलिस को बुलाएं तो वह पहुंचते ही गंदी गालियों से शुरूआत करती है, और लाठियों पर बात खत्म होती है। बिना जरूरत पुलिस-गाडिय़ां सायरन बजाते चलती हैं, और सडक़ के बीच में डेरा डाल देती हैं। मुसीबत से बचने के लिए अब अगर ऐसी पुलिस तक जाने की सलाह मां-बाप अपने बच्चों को नहीं देते हैं, तो उसकी वजह यह है कि हिन्दुस्तानी पुलिस अब तक अंग्रेजी राज के मिजाज से बाहर नहीं आ पाई है।
भाजपा में आदिवासियों की पीड़ा
कांग्रेस हो, भाजपा या अग्रिम पंक्ति का कोई दूसरा राजनीतिक दल। अनुसूचित जाति, जनजाति समुदाय से ऐसे नेताओं को आगे रखने की कोशिश करते हैं जिनकी अपने समाज में पकड़ तो अच्छी तो हो पर नेतृत्व के लिये हाथ उठाने, हां में हां मिलाने के लिये तैयार रहें। इसके बाद भी हर पार्टी में एक दो ऐसे मुखर नेता भी होते हैं जिनसे नेतृत्व को खतरा तो रहता है पर उनका अपने क्षेत्र में, समुदाय के बीच प्रभाव इतना अधिक होता है कि हाशिये पर रखा नहीं जा सकता। उनका विकल्प तैयार करने की कोशिश भी कामयाब नहीं हो पाती।
भाजपा में नंदकुमार साय भी ऐसे ही नेता हैं। उन्होंने पार्टी का समर्थन नहीं मिलने बल्कि एक खेमे द्वारा रोड़े अटकाने के बावजूद स्व. अजीत जोगी की जाति को लेकर अदालती लड़ाई जारी रखी। वे अपनी पार्टी में आदिवासी नेतृत्व की मांग भी उठाते रहे। पिछले दिनों जब भाजपा प्रभारी डी. पुरन्देश्वरी यहां आई तो वरिष्ठ नेताओं की बैठक में जाने से उन्हें दरवाजे पर रोक लिया गया। बुरी तरह अपमानित हुए और नाराजगी जताई भी। अब उनका ताजा बयान आया है। कह रहे हैं पार्टी प्रदेश में कमजोर हो गई है। आदिवासी समाज से पकड़ खत्म हो गई है। इसके चलते बस्तर और सरगुजा में पार्टी का सफाया हो गया।
अनुसूचित जनजाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से मुक्त होने के बाद साय को पार्टी ने कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं दी है। केन्द्र में सरकार है पर वहां भी उनके लिये कुछ नहीं सोचा गया। वे तीन बार लोकसभा और तीन बार विधानसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। दो बार राज्यसभा भी भेजे जा चुके हैं। अब कायदे से उनके अनुभव का इस्तेमाल तो पार्टी को करना ही चाहिये। ये क्या बात हुई कि उन्हें सीनियर लीडर्स की बैठक में भी न घुसने दिया जाये। उन्होंने खुद आदिवासी नेताओं की बैठक बुलाकर बता ही दिया कि जब जरूरत होगी वे समाज के सारे धड़ों को वे अपने साथ ले सकते हैं।
शाकाहारी अंडा छीन लेगा एक सियासी मुद्दा
स्कूल और आंगनबाड़ी जाने वाले बच्चों को पौष्टिक आहार के रूप में जब अंडा वितरित करने की बात आई तो यह एक राजनैतिक मुद्दा बन गया। न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि मध्यप्रदेश में। भाजपा की आपत्ति के बाद छत्तीसगढ़ में सरकार को कहना पड़ा कि अंडे का वितरण सिर्फ उन्हीं बच्चों में किया जायेगा, जो इसे खाना चाहें। बाकी के लिये सोयाबीन से बनी सामग्री या वैकल्पिक प्रोटीन दी जायेगी। पर अब इसका हल निकलने वाला है। आईआईटी दिल्ली के छात्रों ने शाकाहारी अंडों का अविष्कार किया है। ये अंडे मुर्गियां नहीं बल्कि फैक्ट्रियां पैदा करती हैं। खुश्बू, स्वाद और इनमें मौजूद प्रोटीन असली अंडे की तरह ही है। अविष्कारकों ने खुद इसे कुपोषण के खिलाफ स्वच्छ प्रोटीन की लड़ाई बताया है। हो सकता है आम लोगों तक इस अंडे को पहुंचने में वक्त लग जाये लेकिन जब आयेगा इसे बांटने और खाने पर राजनीति तो खत्म हो जायेगी।
कोरबा में खाद कारखाने का कबाड़
देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने छत्तीसगढ़ में जिन औद्योगिक इकाईयों को सैद्धांतिक मंजूरी दी थी उनमें कोरबा का खाद कारखाना भी शामिल था। सन् 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने एफसीआई की फैक्ट्री के लिये यहां आधारशिला रखी। रूस, चेक गणराज्य से मशीनें मंगाई गईं और फैक्ट्री लगाने का काम शुरू हुआ। इसी बीच देश के अन्य हिस्सों में लगे एफसीआई की खाद फैक्ट्रियां भारी घाटे में चलने लगीं। तब कोरबा का काम बीच में रोक दिया। बाद में जितने भी सांसद और विधायक इस क्षेत्र से हुए उन्होंने इस कारखाने को शुरू कराने की कोशिश की लेकिन वे सफल नहीं रहे।
सन् 2016 में तत्कालीन सांसद स्व. बंशीलाल महतो की कोशिश के बाद केन्द्र की पहल पर अमेरिका की निजी कम्पनियों ने यहां की मशीनों का मुआयना किया और गैस आधारित प्लांट लगाने में दिलचस्पी दिखाई। उस समय अनुमान लगाया गया था कि 9 हजार करोड़ रुपये के खर्च से संयंत्र मुनाफे के साथ चल निकलेगा। पर आगे काम नहीं बढ़ा।
अब हाल ही में फैक्ट्री के सारे साजो-सामान, विदेशी आयातीत मशीनें कबाड़ मानकर 13.84 करोड़ रुपये में बेच दी गई। यहां के मजदूर संगठनों की मांग थी कि गैस आधारित फैक्ट्री शुरू करने की प्रक्रिया को तेज की जाये। पर उनकी नहीं सुनी गई। यह हाल ही की बात है कि कोरबा में विद्युत मंडल ने भी अपनी कई इकाईयों को कबाड़ मानकर बेच दिया। वहां भी यूनियन्स की मांगें थी कि आधुनिकीकरण कर फिर से इनमें उत्पादन शुरू किया जाये।
खाद कारखाना पिछले कई चुनावों में राजनैतिक मुद्दा रहा। कोरबा जिले के लोग इसके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ गये थे। अभी एफसीआई को आबंटित 900 एकड़ जमीन बची हुई है, जिसे बेचने की कोशिश नहीं हुई तो मान सकते हैं, संयंत्र लगाने की संभावना भी बनी हुई है।