संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इजराइल और फिलीस्तीन पर हुए हमलों की प्रतिक्रिया से फायदा आखिर किसको?
14-Oct-2023 4:40 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इजराइल और फिलीस्तीन पर हुए हमलों की प्रतिक्रिया से फायदा आखिर किसको?

इजराइल और फिलीस्तीन के मुद्दे ने दुनिया को इनमें से किसी एक के पक्ष में उलझा दिया है। यह उलझन धर्म की वजह से है, या लोगों के अपने देश की विदेश नीति की वजह से है, या जिन लोगों ने इतिहास को बेहतर जाना और समझा है, उनके लिए इंसाफ के तर्कों की वजह से वे इनमें से किसी एक के साथ हैं। इंसाफ की बात करने वाले अधिकतर लोग फिलीस्तीन के साथ हैं, लेकिन दुनिया के कामयाब कारोबारी इजराइल को बेहतर समझते हैं क्योंकि वह दुनिया का एक सबसे कामयाब कारोबारी मुल्क है। अंतरराष्ट्रीय संगठन अपनी जिम्मेदारी समझते हैं, और उन्होंने इस मौके पर बेकसूर इजराइली नागरिकों पर हुए फिलीस्तीनी आतंकी संगठन हमास के हमले की निंदा की है, और साथ-साथ अगले ही वाक्य में बेकसूर फिलीस्तीनी आबादी पर इजराइली बमबारी की भी निंदा की है, जिसमें मारे जाने वाले अधिकतर लोग हमास से परे के आम फिलीस्तीनी हैं। 

फिलीस्तीन और इजराइल के बीच विवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि गांधी अपने अखबार हरिजन और यंग इंडिया में फिलीस्तीनियों के हक की वकालत करते थे। पौन सदी पहले से भी इजराइलियों का यह जुल्म चले आ रहा था, और पूरी दुनिया में जो बेघर शरणार्थी रहते हैं, उनके लिए फिलीस्तीनी शब्द एक विशेषण की तरह इस्तेमाल होता है। अपने ही घर में बेघर, अपने ही देश में एक खुली जेल के कैदी की तरह रहते फिलीस्तीनियों को इजराइली हिंसा और जुल्म से संयुक्त राष्ट्र संघ भी नहीं बचा पाया जबकि उसने दर्जनों प्रस्ताव इजराइल के खिलाफ पास किए हुए हैं। ऐसी नौबत में इस जटिल मुद्दे को लेकर एक बेहतर समझ की जरूरत है क्योंकि यह मुद्दा खबरों में बने रहेगा, और लोग अपने धर्म के पूर्वाग्रहों की वजह से बेइंसाफी का साथ देते रहेंगे। ऐसे में न सिर्फ इस मुद्दे को, बल्कि इस किस्म के दूसरे जटिल मुद्दों को समझने के लिए एक तर्कपूर्ण नजरिए की जरूरत रहती है, और आज हम इस प्रसंग में बात करते हुए इस तरह की दूसरी नौबतों की भी चर्चा करना चाहते हैं। 

जिस तरह हमास ने अपनी ताकत और औकात के बाहर जाकर इजराइल जैसी बड़ी फौजी ताकत पर इतना कड़ा हमला किया, और सोच-समझकर सैकड़ों नागरिकों को मारा, दर्जनों या सैकड़ों का अपहरण भी किया, उससे यह तो साफ था कि इजराइल की प्रतिक्रिया क्या होगी, लेकिन यह अभी तक साफ नहीं है कि उतनी भयानक प्रतिक्रिया का अंदाज रहते हुए भी हमास ने यह हमला क्यों किया? हमास तो एक आतंकी संगठन है जो कि गाजा पट्टी जैसे छोटे से इलाके पर काबिज है, वह न तो फौज है, और न ही निर्वाचित सरकार है, यह एक अलग बात है कि उसे ईरान जैसे ताकतवर मुल्क का साथ हासिल है, लेकिन हमास के हमले के जवाब में इजराइल जिस तरह से गाजा पर फौजी हमला कर रहा है, उसका अंदाज तो कोई फिलीस्तीनी बच्चे भी लगा सकते थे। यह भी जाहिर था कि इजराइल अपने हजार-दो हजार नागरिकों की मौत का हिसाब चुकता करने के लिए उससे अधिक संख्या में फिलीस्तीनियों को मारेगा, ताकि अपने सहमे हुए नागरिकों को वह चेहरा दिखा सके। हुआ भी वही। और यह भी हुआ कि फिलीस्तीन पर हवाई हमलों में हमास के कब्जे वाली कुछ इमारतों से परे सैकड़ों या हजारों आम फिलीस्तीनी मारे जा रहे हैं, जिन पर संयुक्त राष्ट्र से लेकर इजराइल के सबसे बड़े मददगार अमरीका तक को मुंह खोलना पड़ रहा है। ऐसे में सैकड़ों की संख्या में मारे जा रहे बेकसूर फिलीस्तीनियों के पक्ष में कई अरब मुस्लिम देशों के बीच एक हमदर्दी पैदा हो रही है, और इजराइली हमले के खिलाफ इन देशों से आवाजें उठ रही हैं। 

अब हमास के हमले से जो नौबत उठ खड़ी हुई है उसे देखें, तो जो इजराइल अपने नागरिकों के एक बड़े तबके के इतिहास के सबसे बड़े विद्रोह को झेल रहा था, वह पल भर में खत्म हो गया। इजराइली जनता अपनी भ्रष्ट और दकियानूसी सरकार के खिलाफ  सडक़ों पर थी, आंदोलन कर रही थी, और रिजर्व फौजी ड्यूटी का भी बहिष्कार कर रही थी, वह सब कुछ पल भर में खत्म हो गया, और दूसरे देशों में बसे इजराइली भी अपने देश की फौज में शामिल होने के लिए लौट रहे हैं। इजराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री नेतन्याहू अपनी जिंदगी की सबसे बुरी घरेलू चुनौती झेल रहे थे, और अब वे मुसीबत की इस घड़ी में अपने देश के सबसे बड़े दुश्मन से जंग में उतरे हुए सेनापति की तरह हो गए हैं, और तमाम नागरिक उनसे मतभेद भूलकर उनके साथ खड़े हैं, फौज की ड्यूटी की कतार में लगे हैं। जब कभी कोई देश आतंकी हमला या किसी देश की जंग झेलता है, तो उसके मौजूदा नेता पूरे देश का समर्थन पाते हैं। इसलिए हमास के इस हमले का पहला सबसे बड़ा फायदा इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू को हुआ है कि उनके सारे घरेलू संकट खत्म हो गए हैं, और जंग में अपने देश की अगुवाई करने वाले नेता की तरह वे अब तमाम मजबूती पा चुके हैं। पूरी दुनिया का इतिहास बताता है कि जंग से जीतकर लौटे मुखिया अपनी पार्टी को अगला चुनाव जिता देते हैं। लोगों को भारत का 1971 का युद्ध याद रखना चाहिए जिसके बाद विपक्षियों ने भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तुलना दुर्गा से की थी। 

अब नेतन्याहू को इस नौबत से नुकसान भी बहुत हुआ है क्योंकि इजराइल अपनी सारी खुफिया निगरानी की साख खो बैठा है। लेकिन वह साख कारोबार के काम की थी, और नेतन्याहू को राजनीतिक मुसीबत से बचाने के काम की नहीं थी। दूसरी तरफ फिलीस्तानी में हमास है जो कि फिलीस्तीनियों के मुद्दों पर दुनिया का ध्यान खींचना चाहता है, लेकिन वैसा हो नहीं पा रहा था। अब इजराइल पर हमले के बाद हमास की निंदा चाहे जितनी हुई हो, दो-चार दिन के भीतर ही इजराइली फौजी प्रतिक्रिया ने हमास को खलनायक दिखाना बंद कर दिया है, और अब इजराइल खलनायक दिखने लगा है। यह नौबत फिलीस्तीनियों के बुनियादी मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय चर्चा के केन्द्र में ला चुकी है। और इससे कुछ हजार मौतें जरूर हुई हैं, लेकिन इतने बेकसूर मुस्लिम-फिलीस्तीनियों के मारे जाने से अब मुस्लिम-अरब देशों के लिए भी यह मजबूरी हो गई है कि वे इस मुद्दे पर साथ बैठें और कुछ सोचें। 

हम हमास के हमले और इजराइल की प्रतिक्रिया इन दोनों को किसी एक, या अलग-अलग साजिश का हिस्सा नहीं कह रहे हैं, लेकिन इन दोनों कार्रवाईयों के बाद क्या होगा, इसका अंदाज लगाना मुश्किल नहीं था। हमले से जख्मी इजराइल की मौजूदा सरकार का जनविरोध खत्म हो जाना तय था, और इजराइली हमले से जख्मी फिलीस्तीन का अरब और मुस्लिम हमदर्दी पाना भी तय था। अब सोचने की बात यह है कि हमारे सरीखे दूर बैठे लोगों को अपनी सीमित रणनीतिक और कूटनीतिक समझ के साथ अगर इन दो हमलों के ऐसे असर सूझ रहे हैं, जो कि पहले से सोचे जा सकते थे, तो फिर यह समझने की भी जरूरत है कि क्या इन दोनों ताकतों ने पहले यह अंदाज नहीं लगाया होगा? इजराइल के साथ हमास की छोटी-मोटी लड़ाई उसे किसी किनारे नहीं पहुंचा रही थी, और अपने नागरिकों से जूझते हुए इजराइल की सरकार किनारे लग गई थी। यह भी याद रखने की जरूरत है कि इजराइल की आज की सरकार में वहां के इतिहास की एक सबसे ही कट्टरपंथी पार्टी सत्ता में भागीदार है। तो क्या इनमें से कोई भी कार्रवाई उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया का अंदाज लगाकर की गई थी? ऐसे बहुत से रहस्यमय सवाल हैं, और दुनिया के दूसरे देशों में भी ऐसे रहस्यमय सवाल वक्त-वक्त पर उठते रहते हैं। कोई भी आतंकी या फौजी हमला उसे झेलने वाले देश की मौजूदा सरकार को मजबूत करता है, और अपने कुछ फौजी या नागरिक मारे जाएं, तो उससे भी आम जनता की हमदर्दी बढ़ जाती है। दुनिया की कई घटनाओं को इस रौशनी में देखने-समझने की जरूरत है। 

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