राजपथ - जनपथ
खाकी के रंग, स्कूल के संग
पुलिस की समाज को जरूरत है और वह कई अच्छे काम करती है, इसके बावजूद उनके चुनौती भरे पेशे को लेकर लोगों के बीच एक नकारात्मक धारणा बनी हुई है, जो उनकी रक्षक के रूप में अपेक्षित भूमिका के विपरीत है। इस धारणा को बदलने के लिये समय-समय पर अनेक अधिकारी कोशिश करते हैं। ग्रामीण स्कूल के शिक्षक के रूप में अपना कैरियर शुरू करने वाले 2013 बैच के आईपीएस, कोरबा के पुलिस अधीक्षक भोजराम पटेल इस दिशा में एक अनूठा काम कर रहे हैं। जिले की पुलिस खासकर स्कूली बच्चों तक पहुंच रही है। इस मुहिम का नाम रखा गया है- खाकी के रंग, स्कूल के संग। मकसद है, बच्चों में खाकी के डर को दूर किया जाये, बच्चों में अनुशासित जीवन जीने की भावना विकसित करें। कानूनों के प्रति जागरूक करें। आत्मरक्षा में, विशेषकर छात्राओं को निपुण बनाये और नेतृत्व की भावना विकसित करें। समाज को नशामुक्त बनायें और अच्छी शिक्षा का महत्व समझायें।
इस अभियान को थोड़ा और व्यापक बनाते हुए छात्रों, शिक्षकों और पंच सरपंचों को तैयार किया जा रहा है कि वे असामाजिक कृत्यों की सूचना पुलिस में दें। एसपी का कहना है कि छात्रों और शिक्षण समुदायों के बीच इस अभियान का अच्छा असर देखने को मिल रहा है। एक स्कूल के प्राचार्य का कहना है कि पुलिस से संवाद और चर्चा के बाद छात्रों में बहादुरी, फिटनेस, बातचीत के कौशल और मानसिक चुस्ती पर समझ विकसित हो रही है।
खुले में शौच एक बार फिर से..
प्रदेश में जब भाजपा की सरकार थी, घरों में शौचालय बनाने की केंद्र सरकार की योजना पर काफी काम हुआ। एक के बाद एक कलेक्टरों में होड़ मच गई कि वे अपने जिले को खुले में शौच से मुक्त करें। कुछ को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान, पुरस्कार भी मिले। धड़ाधड़ शौचालय बने, जागरूकता के लिये स्वयंसेवकों की टीम मैदानों में उतारी गई, लेकिन आज उन शौचालयों का क्या हाल हो रहा है इसकी कोई ऑडिट नहीं कर रहा। जिन जिलों को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया गया था उनमें कबीरधाम (कवर्धा) भी शामिल है। यहां की एक पंचायत बरबसपुर की रिपोर्ट है कि वहां न केवल आम ग्रामीण बल्कि जनप्रतिनिधि भी बेझिझक खुले में शौच के लिये निकलते हैं। जो शौचालय बने हैं, वे घरों में जगह नहीं होने के कारण बस्ती से दूर बना दिये गये। यह भी बर्दाश्त कर लें तो वहां पानी की व्यवस्था नहीं है। जिन गांवों में आये दिन पेयजल का संकट खड़ा हो जाता हो वहां शौचालय के लिये पानी कहां से आये? जिन अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों की जेबें भरनी थी इन शौचालयों से भर चुकी, पर अब वे जर्जर हो चुके हैं, छज्जे, शीट टूट-फूट गये हैं, वहां कोई झांकने भी नहीं जाता।
एसपी-कलेक्टर का रिकॉर्ड
छत्तीसगढ़ में साल 2018 के बाद कलेक्टर और एसपी की पोस्टिंग फटाफट होती रही है। एक जिले में सालभर का कार्यकाल पूरा नहीं होता है कि नई पोस्टिंग के लिए उलटी गिनती शुरू हो जाती है। एक रिसर्च के मुताबिक प्रदेश में 2018 की स्थिति में 27 जिलों में इन पदों पर बदलाव के लिए लगभग आधा दर्जन बार तबादला सूची निकली। जबकि पेंड्रा जैसे नए जिले में महज एक साल में 2 कलेक्टर, 2 एसपी बदल दिए गए। साल 2000 से 2003 तक जहां 13 से 15 सूचियों के माध्यम से प्रदेश में 46 से 50 बार बदलाव किया गया था। वहीं 2003 से 2018 के बीच लगभग 23 से 30 तबादला सूचियों के माध्यम से 60 से 64 बार बदलाव किए गए थे। जबकि 2018 से 2021 सितंबर तक की स्थिति के मुताबिक करीब 6 सूचियों के माध्यम से 23 से अधिक बार बदलाव हुए हैं। अनुमान के मुताबिक छत्तीसगढ़ में एसपी-कलेक्टर का किसी भी एक जिले में कार्यकाल अधिकतम सवा से डेढ़ साल का रहा है। इस बीच सोमवार को छत्तीसगढ़ में 7 जिलों के एसपी को मिलाकर 9 आईपीएस अफसरों के ट्रांसफर हुए। जिसमें भी दंतेवाड़ा एसपी डॉ अभिषेक पल्लव को छोडक़र सभी का कार्यकाल एक से डेढ़ साल के आसपास ही रहा है। अभिषेक पल्लव ही पिछले तीन साल से दंतेवाड़ा के एसपी थे। इस सरकार में उन्होंने सबसे ज्यादा समय तक एसपी रहने का रिकॉर्ड बना लिया है। उन्हें दंतेवाड़ा से जांजगीर-चांपा भेजा गया है। अब देखना होगा कि वहां वे रिकॉर्ड बना पाते हैं या सरकार का रिकार्ड बना रहेगा ?