राजपथ - जनपथ
पुलिस के आंख-कान से परे
सडक़ों पर सबसे अधिक समय तक रहने वाली कारोबारी गाडिय़ां पुलिस को सबसे अधिक आसानी से दिखती हैं। और इनके कानून तोडऩे पर अगर कोई कार्रवाई नहीं होती है, तो इसे संगठित भागीदारी कारोबार के अलावा और कुछ मानना गलत है। माल ढोने वाली गाडिय़ों, या मुसाफिर ढोने वाली बसों का हाल इतना खराब रहता है कि जिन्हें देखकर कोई बच्चे भी गलती पकड़ सकते हैं, लेकिन पुलिस नहीं पकड़ सकती। मालवाहक गाडिय़ों की नंबर प्लेट इस तरह छुपी दिखती है कि किसी हादसे के बाद यह नंबर पढऩा मुमकिन ही नहीं रहता। गाडिय़ां अंधाधुंध प्रेशर हॉर्न बजाते चलती हैं, छोटी-छोटी गाडिय़ों पर अधिक से अधिक माल ढोने के लिए बड़े-बड़े ढांचे जोड़ दिए जाते हैं, मुसाफिर बसों को अंधाधुंध खूनी रफ्तार से दौड़ाया जाता है, लेकिन इन पर कार्रवाई नहीं होती। अब राजधानी रायपुर में हजारों बुलेट मोटरसाइकिलें साइलेंसर फाडक़र दौड़ती हैं, उनमें से बहुत सी मोटरसाइकिलों से गोलियां चलने की आवाज भी आती है, लेकिन पुलिस के आंख-कान इनको देख-सुन नहीं पाते।
पुराना फैसला खुद का ही था...
सरकार में कई ऐसे मौके आते हैं जब बड़ी कुर्सियों पर पहुंच चुके अफसरों के सामने उन्हीं के पुराने मामले कब्र फाडक़र आ खड़े होते हैं। अभी एक विभाग में एक प्रमोशन को लेकर एक ऐसा मामला विभागाध्यक्ष के सामने पहुंचा जो उन्हें गलत लगा। बाद में फाईल की जांच करने पर पता लगा कि कई बरस पहले जब वे एक दूसरी कुर्सी पर बैठते थे, तब यह नीतिगत फैसला उन्हीं का लिया हुआ था। अब सरकारी कामकाज में किसी भी एक कुर्सी पर बैठे हुए कुछ बरसों में हजारों फाईलें आती-जाती हैं, और सबको याद रखना भी मुमकिन नहीं रहता, इसलिए अपना ही पुराना फैसला आज गलत लगने लगा, और जब किसी और ने फाईल देखकर पुराने दस्तखत याद दिलाए, तब जाकर लगा कि फैसला गलत नहीं है।
इसीलिए प्रशासन का सिद्धांत यह भी कहता है कि किसी व्यक्ति को प्रमोशन के बाद ऐसी कुर्सी पर नहीं बिठाना चाहिए जहां उन्हें अपने ही पुराने फैसलों या आदेशों के खिलाफ की गई अपील सुननी पड़े। राज्य में बहुत से अफसरों की ऐसी तैनाती पिछली सरकारों के समय से होती आई है। कई कलेक्टरों को उन्हीं के संभागों में कमिश्नर बना दिया गया, और राजस्व के मामलों की अपील में उन्हें अपने ही कलेक्टरी के आदेश पर पुनर्विचार करना पड़ा है।
छत्तीसगढ़ की एक दिक्कत यह भी रही है कि यहां बात-बात में अफसर मध्यप्रदेश के समय की मिसालें ढूंढते हैं। अब थोड़े ही समय में नए राज्य को बने चौथाई सदी हो जाएगी, और अब वैसी मिसालों की तरफ देखना बंद करना चाहिए।
माली, कुक, पेंटर रेलवे से बाहर
रेलवे ने आमदनी बढ़ाने और खर्च घटाने के जितने फैसले लिए हैं, उसकी मार गरीब और निम्न मध्यम तबके पर ही पड़ती है। जब भी ट्रेनों को किसी वजह से रद्द किया जाता है, सबसे पहले लोकल पैसेंजर ट्रेनों की सूची बनती है, क्योंकि ये घाटे में हैं। मासिक सीजन टिकट और रियायती टिकट भी बंद की जा चुकी है। कोरोना महामारी के नाम पर जिन छोटे स्टेशनों पर स्टापेज खत्म किए गए हैं, वे भी शुरू नहीं किए जा रहे हैं। रेलवे ने छोटे स्टेशनों के संचालन को भी घाटे में पाया है, भले ही सैकड़ों लोगों के कारोबार पर इसका बुरा असर हुआ है। वाहनों का पार्किंग शुल्क मनमाने तरीके से स्टेशनों में बढ़ाया गया है। कुलियों का रेलवे के साथ गहरा और आत्मीय रिश्ता रहा है, पर धीरे-धीरे ये भी बेरोजगारी के चलते स्टेशनों से गायब हो रहे हैं। रेलवे ने इन्हें वैकल्पिक काम देना जरूरी नहीं समझा।
ताजा फैसला रेलवे जोन बिलासपुर का है। अंग्रेजों के जमाने से रेलवे में माली, कुक, चौकीदार, टाइपिस्ट, पेंटर, बढ़ई, खलासी जैसे पद बने हुए हैं। इन्हें ज्यादा वेतन नहीं मिलता। रेलवे बोर्ड ने जब खर्च और घटाने के लिए कहा तो इन पदों को जोनल मुख्यालय से समाप्त कर दिया गया। इन पदों पर जोन में करीब 500 लोग काम करते हैं। जो लोग अभी काम कर रहे हैं उनसे कहा जा रहा है कि यह आपके पद पर अंतिम भर्ती है। आपसे भी काम नहीं लिया जाएगा क्योंकि ये काम ठेके पर बहुत कम खर्च में करा लिए जाएंगे। इन कर्मचारियों को सलाह दी गई है कि वे या तो वीआरएस ले लें, या फिर ऐसे किसी स्टेशन में तबादले के लिए तैयार रहें, जहां से आप नौकरी छोडक़र लौटना ज्यादा ठीक समझेंगे।
अफसर चले गांवों की ओर..
जिलों में राजस्व और पुलिस विभाग के आला अफसरों को गांवों का इस तरह रुख करते बहुत दिनों बाद देखने में आ रहा है। कलेक्टर दरी पर बैठकर गांव वालों से मीठी बातें कर रहे हैं, उनके साथ बासी भात खा रहे हैं। कुछ पुलिस अधिकारी रात में ग्रामों में रुक रहे हैं। ग्रामीणों के साथ डिनर कर रहे हैं। कोविड का प्रकोप क्या फैला, अफसरों ने दफ्तरों से बाहर निकलना ही बंद कर दिया था, उबरने के बाद भी सिलसिला चलता ही रहा। पहले सप्ताह में एक दिन ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण का ही तय होता था। पिछले दो साल से स्थिति ऐसी बनी है कि कई कलेक्टर आवेदन लेने तक के लिए कमरे से बाहर निकलना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। नारायणपुर और सुकमा में ग्रामीणों की भीड़ जिस तरह से कलेक्टोरेट में क्यों घुसी, इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है।
मुख्यमंत्री की भेंट मुलाकात अभी ज्यादातर जिलों में नहीं हो पाई है। बीच-बीच में दिल्ली-जयपुर भी जाना पड़ रहा है। इधर अधिकारियों को मौका मिल गया कि सब दुरुस्त कर लें। गांवों में चौपाल लगाकर वे पूछ रहे हैं हाट बाजार क्लीनिक की गाड़ी आती है न, इलाज तो होता है? पटवारी घूस तो नहीं मांग रहा? स्कूल में शिक्षक आ रहे हैं या नहीं? सबको निराश्रित पेंशन मिल रहा है या नहीं? किसी का नाम राशन कार्ड से कट तो नहीं गया? लगे हाथ एक दो को नोटिस भी थमा आते हैं। अच्छा है- भेंट मुलाकात लंबी चले। चलने के बाद बार-बार चलती रहे। लोग अफसरों को अपने सामने देख लेते हैं तभी उनको लगने लग जाता है कि उनकी आधी तकलीफ तो दूर हो गई।