संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : यह वक्त दूसरों की मदद का है अपने-आप में सिमटने का नहीं
12-May-2021 5:08 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : यह वक्त दूसरों की मदद का है अपने-आप में सिमटने का नहीं

दुनिया के विकसित देशों के कुछ वीडियो बीच-बीच में सोशल मीडिया पर चलते हैं जिनमें किसी रेस्तरां, फूड कॉर्नर, कॉफी शॉप में लोग जाते हैं, काउंटर पर भुगतान करते हैं और कहते हैं, दो कॉफी, एक सस्पेंडेड। ऐसे वीडियो बतलाते हैं कि कुछ देर बाद कोई गरीब, बेघर या जरूरतमंद दिखते हुए लोग वहां पहुंचते हैं, और काउंटर पर पूछते हैं कि क्या कोई सस्पेंडेड कॉफी है ? और काउंटर से उन्हें या तो कुछ देर इंतजार करने कहा जाता है, या तुरंत उन्हें कॉफी या कोई दूसरा नाश्ता दिया जाता है। यह पूरा सिलसिला बड़ा दिलचस्प है और यह यूरोप के कुछ देशों से शुरू हुआ है। वहां पर कई लोग जब खाने पीने का सामान लेने जाते हैं तो जरूरतमंदों की मदद करने के लिए अपने खरीदे सामान से अधिक का भुगतान करके आते हैं, और वहां आर्डर देते समय ही बता देते हैं कि कितना सामान उन्हें ले जाना है और कितने सस्पेंडेड सामान का भी भुगतान करके जा रहे हैं। इन रेस्त्रां के कारोबारी भी ऐसी समाजसेवा को बढ़ावा देते हैं क्योंकि इससे उनकी खुद की एक सामाजिक जिम्मेदारी पूरी होती है, वे गरीब जरूरतमंद की मदद में एक जरिया बन जाते हैं और फिर उनका खुद का कारोबार तो इससे बढ़ता ही है। लेकिन यह वीडियो सिर्फ पश्चिमी देशों का हो ऐसा भी नहीं है। हिंदुस्तान में ही मुंबई में मुस्लिम बस्तियों में निकलें तो फुटपाथ पर रेस्तरां के सामने बहुत से गरीब लोग एक कतार में एक उकडू बैठे हुए दिखते हैं। इन्हें रेस्तरां के काउंटर पर बैठा आदमी गिनती बताकर बुलाता है और भीतर बिठाकर खिलाता है। इस बारे में पता लगता है कि कोई रहमदिल दानदाता अपनी मर्जी की गिनती के लोगों के लायक खाने के पैसे जमा कर जाते हैं, और फिर रेस्त्रां मालिक किस्तों में ऐसे लोगों को बुलाकर, बिठाकर खिला देते हैं।

लोगों की मदद करने के बहुत से तरीके होते हैं, हिंदुस्तान में बहुत बड़े हिस्से में यह भी प्रचलन में हैं कि खाना बनना शुरू हो तो पहली रोटी गाय की बनती है और आखिरी रोटी कुत्ते की। इसके बाद ऐसा भी कहा जाता है कि कामयाब रसोई वही होती है जिसमें घर के लोगों के खाने के बाद भी अचानक आ गए मेहमान, या भूखे के लायक भी खाने के लिए बचा रहना चाहिए। बहुत से लोग अभी लॉकडाउन के बीच में अपने दुपहिए पर या अपनी कार में जानवरों के खाने की तरह-तरह की चीजें लेकर निकलते हैं, कहीं गाय-कुत्ते को रोटी डालते हैं, तो कहीं किसी और जानवर को किसी तरह की सब्जी खिलाते हैं। ऐसा इसलिए भी कर रहे हैं कि इन दिनों सभी तरह के होटल, ढाबे, रेस्तरां बंद हैं और वहां से इन जानवरों को खाने जो मिल जाता था वह अभी बंद हो चुका है। इसलिए लोग जरूरतमंदों की मदद के बहुत से तरीके सोचते हैं और काम करते हैं।

आज कोरोना की बीमारी के इस खतरे के बीच भी बहुत से ऐसे सामाजिक संगठन है जो बीमारों को अस्पताल पहुंचाने से लेकर अस्पताल से लाश घर पहुंचाने तक के काम में जुटे हुए हैं, और अगर किसी के पास भुगतान करने की ताकत है तो वह भुगतान कर दें, और ताकत नहीं है तो उसे मुफ्त भी पहुंचा कर आते हैं। कल ही सोशल मीडिया पर एक ऐसे डॉक्टर की तस्वीर आई है जिसकी बीपी की मशीन और स्टेथोस्कोप टेबल पर है, और उसने नोटिस लगा रखा है कि जब तक लॉकडाउन चल रहा है, दवा के दाम अपने हिसाब से दें। मतलब यही है कि जिसके पास भुगतान की ताकत नहीं है, वह भुगतान न करें। बहुत से शहरों में मामूली ऑटो रिक्शा वाले ऐसा ही कर रहे हैं और उन्होंने नोटिस लगा रखा है कि मरीज को अस्पताल ले जाने का कोई किराया नहीं लिया जाएगा। कुछ ऑटो रिक्शा महिलाओं से किराया नहीं ले रहे हैं, कुछ बुजुर्गों से किराया नहीं ले रहे हैं। यह पूरा सिलसिला बताता है कि बहुत आम लोगों के मन में भी दूसरों के लिए बहुत कुछ करने का जज्बा है। और जाहिर है कि बहुत से ताकतवर लोग ऐसे हैं जो कि कुछ भी नहीं कर रहे हैं या इतना कर रहे हैं जो कि उनकी छोटी उंगली के कटे हुए नाखून से भी कम है। अभी एक भरोसेमंद खबर आई थी कि किस तरह देश के एक कारोबारी अजीम प्रेमजी ने पिछले एक बरस में करीब 8 हजार करोड़ रुपए का दान दिया है, यानी हर दिन 22 करोड़ ! यह रकम छोटी नहीं होती है, खासकर तब जब इसे मुकेश अंबानी के 100 करोड़ के दान के साथ रखकर देखा जाए। यह वक्त ऐसा है जिसमें बहुत अनपढ़ और मजदूर सरीखे काम करने वाले दानदाता भी अपनी आज की बदहाली के बीच भी किसी के काम आ रहे हैं, और जिनके पास दौलत के पहाड़ हैं वे किस तरह उसमें से पत्थर का एक छोटा सा टुकड़ा उठाकर दुनिया पर एहसान करने के अंदाज में दे रहे हैं।


आज यहां पर इस मुद्दे पर लिखने का एक मकसद यह भी है कि लोगों को अपने-अपने दायरे के भीतर भी दूसरों की मदद के बारे में सोचना चाहिए। और इसकी शुरुआत लोगों को अपने खुद के दायरे से करनी चाहिए कि उनके साथ में काम करने वाले जिन लोगों को उन्हें लॉकडाउन के कारण या बीमारी के डर के कारण, या सचमुच बीमार हो जाने पर छुट्टी देनी पड़ी है, उन्हें वह कम से कम पूरी तनख्वाह तो दे सकते हैं। आज लोगों को अपने निजी काम करने वाले घरेलू कर्मचारियों की तनख्वाह काटने के पहले यह भी सोचना चाहिए कि वे किस तरह जी सकेंगे? अगर उन्होंने खुद होकर छुट्टी नहीं ली है और लॉक डाउन की वजह से वे काम पर नहीं आ सके हैं, या मालिक के घर पर किसी के कोरोनाग्रस्त होने से उन्हें रोका गया या उनके खुद के घर पर किसी के कोरोनाग्रस्त होने से उन्होंने काम पर आना बेहतर नहीं समझा, तो ऐसे में उन्हें तो जिंदा रहने के लिए मदद करना हर सक्षम व्यक्ति की जिम्मेदारी होनी चाहिए। जब इस दायरे में जिम्मेदारी लोग निभा लें, तो उसके बाद उन्हें दूर के लोगों के बारे में भी सोचना चाहिए कि वह किसके लिए क्या कर सकते हैं. बहुत से घरों में बीमारी के दौरान बहुत से ऐसे मेडिकल सामान इकट्ठा हो जाते हैं जो बात में काम के नहीं रहते, ऐसे वक्त पर किसी सामाजिक संस्था के माध्यम से उन्हें जरूरतमंद लोगों तक तुरंत पहुंचा देना चाहिए। आज हजार-पांच सौ का ऑक्सीमीटर लेना हर किसी के बस की बात नहीं है, और हर कोई तो थर्मामीटर भी नहीं ले पाते। इसलिए आज खाने-पीने के सामान से लेकर दवा और मेडिकल उपकरण तक, अस्पताल पहुंचाने या अंतिम संस्कार में मदद तक, कई किस्म से आप लोगों के काम आ सकते हैं। लोगों को न केवल खुद ऐसा करना चाहिए बल्कि आसपास के दूसरे लोगों को भी मददगार बनने की प्रेरणा देना चाहिए। आज की यह बहुत बड़ी जरूरत है और अगले साल-दो साल तक बीमारी और बेरोजगारी से देश और दुनिया का जो हाल रहना है उसमें यह जरूरत बने रहेगी, लोगों को दूसरों के काम आना सीखना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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