संपादकीय
किसी एक से मिलते-जुलते मुद्दे पर लगातार लिखना ठीक नहीं रहता लेकिन इन दिनों हिंदुस्तान में कोरोना और कोर्ट का हाल कुछ ऐसा है कि उन पर लिखने के मौके तकरीबन रोज खड़े रहते हैं। कल ही हमने यह बात लिखी कि मद्रास हाई कोर्ट के जज ने समलैंगिकता के एक मुद्दे पर अपनी समझ को नाकाफी बताते हुए कहा कि वे मनोचिकित्सक से समय लेकर उनसे इस मुद्दे को बेहतर समझना चाहते हैं, ताकि जब वे इस पर फैसला दें तो वह दिमाग से निकला हुआ न रहे, दिल से निकला हुआ भी रहे। उसमें हमने यह लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बड़े-बड़े जजों को मुद्दों की समझ के लिए प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए, उन्हें जानकार लोगों को बुलाकर खुद छात्र-छात्रा बनकर क्लास में बैठना चाहिए, और अपनी सारी जिज्ञासाओं को शांत करना चाहिए, इससे वे बेहतर जज बन पाएंगे।
अब कल जब हमने यह लिखा होगा, उसी समय दिल्ली हाईकोर्ट में एक जज जस्टिस विपिन सांघी कोरोना वैक्सीन मामले की सुनवाई करते हुए अपनी एक निजी राय भी वकीलों के सामने रख रहे थे। जज की जुबानी राय की वैसे तो कोई कीमत नहीं होती, और जो अदालत के लिखित आदेश में आखिर में सामने आता है, वही मायने रखता है, लेकिन ऐसी जुबानी राय से कम से कम जज की सोच के बारे में भी कुछ पता लगता है। कई बार होता यह है कि सबूतों और गवाहों की बुनियाद पर जो फैसले आते हैं, उनमें जो बातें जज नहीं लिख पाते, उन बातों को भी सुनवाई के दौरान कह सकते हैं। जस्टिस सांघी ने केंद्र सरकार की वैक्सीन तैयारी और वैक्सीन नीति को लेकर तो उसकी जमकर खिंचाई की ही है, लेकिन यह कोई नई बात नहीं रही। जिस-जिस अदालत ने भारत में वैक्सीन के इंतजाम को लेकर बात की, उन सबने केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा किया ही है, लेकिन इन्होंने एक दूसरी बात कही जो कि सोचने लायक है, और इस मुद्दे पर भी कुछ हफ्ते पहले हम लिख भी चुके हैं।
जस्टिस सांघी ने कहा कि वे अपनी खुद की राय रख रहे हैं कि जब केंद्र सरकार ने 18 से 44 बरस के लोगों को वैक्सीन लगाने की घोषणा की और सरकार के पास वैक्सीन थी नहीं, तो ऐसी घोषणा क्यों की? उन्होंने कहा कि भारत में 60 वर्ष से ऊपर के लोगों को कोरोना वैक्सीन लगाने में प्राथमिकता दी गई जबकि नौजवानों को वैक्सीन लगाने में प्राथमिकता देनी चाहिए थी, क्योंकि 60 वर्ष के ऊपर के लोग तो अपनी जिंदगी जी चुके हैं, और यह नौजवान पीढ़ी है जो कि देश का भविष्य है। उन्होंने अपने आपको 60 वर्ष से ऊपर के बुजुर्ग तबके में गिनते हुए यह कहा कि हम तो अब जिंदगी की ढलान पर हैं, लेकिन नौजवान पीढ़ी से इस देश का भविष्य बनना है। उन्होंने कहा कि 80 बरस के लोग तो अपनी उम्र जी चुके हैं, और अब वह देश को कहीं आगे नहीं ले जा सकते, ऐसे में अगर वैक्सीन सीमित संख्या में थी तो नौजवान पीढ़ी को प्राथमिकता देनी चाहिए थी। उन्होंने कहा कि आदर्श स्थिति तो यह होती कि हर किसी को टीका मिलता, लेकिन जब हर किसी के लिए है नहीं, तो कम से कम नौजवान पीढ़ी को पहले मिलना चाहिए था। उन्होंने भारत सरकार के वकील से कहा कि आप ऐसे फैसले से शर्मा क्यों रहे हैं, यह तो सरकार की जिम्मेदारी है कि वह आगे का रास्ता तय करे, दूसरे देशों ने ऐसा किया है, इटली ने अपने बुजुर्ग लोगों से माफी मांग ली थी कि हमारे पास अस्पतालों में आपके लिए पर्याप्त बिस्तर नहीं हैं।
पाठकों को याद होगा कि हमने कुछ दिन पहले ही इसी पन्ने पर लिखा था कि किस तरह जापान में अकाल पडऩे पर जब लोगों के पास खाने को नहीं रहता था तो वे अपने परिवार के बुजुर्गों को एक पहाड़ी पर ईश्वर के दर्शन कराने के नाम पर ले जाते थे और वहां से नीचे फेंक देते थे। यह फिल्म इसी पर केंद्रित थी। लेकिन 1-2 सदी पहले की यह कहानी कल दिल्ली हाईकोर्ट में फिर दोहराई जाएगी इसका अंदाज हमें नहीं था। 21वीं सदी के 21वें बरस की देश की राजधानी की एक सबसे बड़ी अदालत जज की इस राय की गवाह बनी कि बुजुर्गों के जिंदा रहने का हक जवानों के मुकाबले कम माना जाना चाहिए। यह खबर पढ़ते ही पल भर को ऐसा लगा कि इस अदालत की दुनिया 1-2 सदी पहले चली गई है। अब सवाल यह उठता है कि जज की बात से मन पर पड़ती हुई लात के दर्द को कुछ देर के लिए अलग कर दें, तो यह एक कड़वी हकीकत है कि धरती के लिए बुजुर्गों के मुकाबले जवान अधिक उत्पादक हैं। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि सभ्यता का विकास पिछले हजारों वर्षों में क्या हमें इस मोड़ पर ले आया है कि जहां पर किसी इंसान की उत्पादकता ही उसके जिंदा रहने के हक का सबसे बड़ा सुबूत हो? यह तो जंगल की सोच रहती है, जंगली जानवरों की सोच रहती है जो कि सबसे ताकतवर के सबसे आखिर तक जिंदा रहने की हिमायती रहती है। जंगल में जिसकी उत्पादकता नहीं रह जाती, उसे जिंदा रहने का हक भी नहीं रह जाता। उसी प्रजाति के जानवर भी अपने ही बीमार या जख्मी साथी को खा जाते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि एक बर्फीली पहाड़ी पर गिरे हुए विमान के मुसाफिरों ने आखिर में अपने बीच के मरने वाले लोगों को खाना शुरू कर दिया था। कल जस्टिस सांघी की बातें कुछ उसी किस्म की लगने लगीं कि क्या हम एक बार फिर सबसे ताकतवर के जीने की सबसे अधिक संभावना वाली नौबत में पहुंचे हुए हैं या ऐसी नौबत इन हजारों-लाखों बरसों में कहीं गई ही नहीं थी, और वह, सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट, हमारे ही बीच अनबोले बिनलिखे शब्दों में दिल-दिमाग में चली ही आ रही थी?
यह सोचना बड़ा तकलीफदेह होता है, और हमने खुद इसी सवाल को कुछ वक्त पहले उठाया था कि जब लोगों के सामने तय करने का यह बहुत बड़ा संकट आकर खड़ा हो जाएगा कि वे अपने को जन्म देने वाले मां-बाप को बचाएं, या अपने पैदा किए हुए अपने बच्चों को बचाएं, या अपनी पीढ़ी के लोगों को बचाएं, तो उस वक्त समझ पड़ेगा कि लोगों की प्राथमिकता क्या है? कल दिल्ली हाईकोर्ट के जज ने जो सवाल उठाया है, उस सवाल को पहली नजर में खारिज कर देना तो बहुत आसान है, लेकिन उसके बारे में जितना ज्यादा सोचें उतना ही ज्यादा मन दुविधा से बाहर निकलने लगता है, और दिल के किसी एक कोने से यह आवाज उठने लगती है कि वे गलत क्या कह रहे हैं? यह बात उस वक्त तो अधिक गलत लग सकती है जब देश की सरकार की जिम्मेदारी हर किसी को वैक्सीन जुटाकर देना थी, लेकिन उस जिम्मेदारी का वक्त तो चले गया, अब वैक्सीन कहीं है नहीं, सरकार का कोई इंतजाम है नहीं, तो ऐसे में जो है उससे किसकी जिंदगी बचाई जाए ? जवान जिंदगी बचाई जाए या बुजुर्ग जिंदगी बचाई जाए? इस बारे में अपने आसपास अपने परिवार के लोगों की कल्पना करके असल नाम भरकर, असल चेहरे भरकर, अगर इस पहेली को सुलझाने की कोशिश करें, तो लगता है कि हमारे भीतर भी एक जस्टिस सांघी दिखने लगेगा!(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)