संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कितने लोग तैयार हैं सवा सौ बरस के होने तक जिन्दा रहने के लिये?
09-Jul-2021 5:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कितने लोग तैयार हैं सवा सौ बरस  के होने तक जिन्दा रहने के लिये?

विज्ञान और जिंदगी की हकीकत कई बार साथ-साथ चलते हुए दिखती हैं, लेकिन कई बार वे साथ-साथ नहीं भी चलतीं। विज्ञान की हकीकत यह है कि वह एटॉमिक बम बना सकता था और उसने बनाया, लेकिन जिंदगी की हकीकत यह थी कि अमेरिका ने उस बम को जापान पर गिरा दिया, लाखों लोग मारे गए और दसियों लाख लोग उसकी वजह से तरह-तरह के प्रदूषण की बीमारी के शिकार हुए। यहां पर विज्ञान की कामयाबी को इंसान ने नाकामयाब कर दिया और उसका बुरा इस्तेमाल किया। वह ताकत किसी काम नहीं आई और लोगों का नुकसान कर गई। लेकिन उस बम को बनाने के पहले की टेक्नोलॉजी में कामयाबी, और बम को बनाने में कामयाबी, यह तो वैज्ञानिकों के नाम दर्ज हुई है। इसी तरह आज दुनिया भर में तरह-तरह की बीमारियों से बचाव के लिए बचपन से ही लोगों को दर्जनों वैक्सीन लगते हैं, बाद में तरह-तरह की ऐसी जांच होती है जिससे बीमारियों का बहुत शुरुआती दौर में ही पता लग जाता है। दुनिया की गरीबी कम से कम एक तबके के लिए तो घट ही रही है, और इस तबके को बेहतर खानपान, बेहतर और साफ-सुथरी जिंदगी हासिल है। नतीजा होता है कि उसकी औसत उम्र बढ़ती जा रही है। वैसे तो सबसे गरीब और सबसे कमजोर तबके को जोडक़र भी धरती के लोगों की औसत उम्र लगातार बढ़ रही है। ऐसे में लोगों के बीच जो संपन्न तबका है उसकी औसत उम्र हो सकता है कि और तेजी से आगे बढ़ रही हो, और अधिक आगे बढ़ रही हो। 

अब वैज्ञानिकों ने रिसर्च करके यह निष्कर्ष निकाला है कि इस सदी के अंत तक इंसान हो सकता है कि 130 बरस की उम्र तक जिंदा रह सकें। अमेरिका की वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दुनिया के दूसरे देशों के विज्ञान के आंकड़ों को लिया और अपना नतीजा निकाला है। उनका मानना है कि आने वाले वर्षों में इंसान की औसत उम्र बढ़ते चलेगी। आज दुनिया में 10 लाख से अधिक लोग ऐसे हैं जो 100 बरस की उम्र पार करके भी जिंदा है, इनमें से 600 से अधिक लोग ऐसे हैं जो 110 या 120 बरस भी पार कर चुके हैं। इसलिए इंसान अमर होने की दिशा में एक-एक इंच आगे बढ़ रहे हैं, और इस सैद्धांतिक संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोग काफी लंबा जीने लगेंगे।

एक तरफ तो यह चिकित्सा विज्ञान की एक कामयाबी रहेगी कि वह लोगों को अधिक उम्र तक जिंदा रख पाएगा, और लोगों को बीमारियों से बचा कर भी रखेगा, बीमार होने पर ठीक भी कर सकेगा, और मौत को हम से दूर रखेगा, लेकिन दूसरी तरफ परिवार और समाज के नजरिए से देखें तो यह लगता है कि हर कुछ बरस में लोगों की औसत उम्र कुछ-कुछ बरस अगर बढ़ती चली जाएगी तो क्या समाज उनके उसके हिसाब से तैयार हो सकेगा, परिवार उसके हिसाब से तैयार हो सकेंगे? यह बात किसी झटके के साथ नहीं आने जा रही क्योंकि अगले बरस लोग 10-20 बरस अधिक जीने वाले नहीं होने वाले हैं, वह अपनी जिंदगी की लंबाई को धीरे-धीरे ही बढ़ते देखेंगे, और हो सकता है कि इस सदी की बची हुई करीब 4 पीढिय़ों की औसत उम्र में लोग हर पीढ़ी में 10-10 बरस और अधिक जीने वाले हों। इसलिए यह रातों-रात नहीं होने जा रहा है कि लोगों ने अपने माता पिता को तो 80 बरस में मरते देखा था और अब वे खुद सीधे 100 बरस में मरेंगे। उम्र का यह बढऩा धीरे-धीरे होगा, कुछ चुनिंदा लोगों में होगा, और आबादी का बहुतायत तो इतना लंबा फिर भी नहीं जी सकेगा। इसलिए यह एक बड़ा सामाजिक मुद्दा नहीं बनने जा रहा है कि एक समाज का एक बड़ा हिस्सा सवा सौ बरस का हो जाए। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि समाज में अगर कुछ फीसदी लोग भी 100 बरस पार करके इतना लंबा जीने वाले हैं तो उस समाज की जरूरतें क्या होंगी? क्या उनके परिवार सचमुच ही इतने लंबे समय तक अपने बुजुर्गों का जरूरत की हद तक साथ दे पाएंगे? या फिर समाज और सरकार को आज के वृद्धाश्रमों की तरह, अति वृद्ध लोगों के आश्रम के बारे में भी सोचना पड़ेगा, जिनकी जिंदा रहने की जरूरतें आज के वृद्ध लोगों के मुकाबले भी अलग होंगी, उनकी इलाज की जरूरतें भी अलग होंगी। यह भी समझना पड़ेगा कि इतने बुजुर्ग लोगों के इलाज के लिए, उनकी मदद के लिए किस किस्म का ढांचा लगेगा। अच्छी बात यही है कि आज समाज के पास इसकी तैयारी करने का वक्त है, और इंसानों में लंबी उम्र रातों-रात पहुंचने वाले कोरोना वायरस की तरह रातों-रात नहीं आने वाली है, बल्कि वह धीमी रफ्तार से आएगी। हमने हिरोशिमा-नागासाकी पर अमेरिकी बम गिरने की जो बात शुरू में कही है, यह बुढ़ापा उस तरह रातों-रात सिर पर नहीं गिरने वाला है, फिर भी एक जो बड़ी बात रहेगी वह कि समाज में बुजुर्ग अधिक संख्या में रहेंगे और उनके अधिक वक्त तक जिंदा रहने की संभावना रहेगी, या कि कुछ परिवारों पर बोझ के हिसाब से देखें तो, आशंका रहेगी।

चिकित्सा विज्ञान को भी अपनी एक अलग शाखा विकसित करनी होगी जो वृद्ध और अति वृद्ध लोगों की जरूरतों को देख सके, सरकारों को भी अति वृद्ध आश्रम को कम से कम सैद्धांतिक रूप से तो सोच-विचार में लाना पड़ेगा और उसकी तैयारी करनी पड़ेगी। इसके अलावा सरकारें यह भी सोच सकती हैं कि लोग अपने अति बुढ़ापे के वक्त के लिए किस किस किस्म के बीमे का इंतजाम कर सकते हैं और अभी से कर सकते हैं। बीमा कंपनियां खुद भी लोगों के सामने अभी से ऐसी संभावनाओं को लेकर तरह-तरह की पॉलिसी रख सकती हैं कि वे किस-किस किस्म के बुढ़ापे के लिए रहने खाने, और इलाज, तमाम किस्म का बीमा कर रही हैं। आज लोगों को भी यह समझ आना चाहिए कि आज तो वे जवान हैं, लेकिन 50 वर्ष बाद अगर उन्हें यह समझ आएगा कि अभी 20 बरस की जिंदगी और बाकी है, तो उस 20 बरस का इंतजाम क्या होगा? 

आज भी बहुत से जवान, कामयाब, और खाते-पीते लोगों ने अपने मां-बाप को वृद्ध आश्रम में भेज ही दिया है, और हो सकता है यह सिलसिला बढ़ते चले। शहरों में जहां मकान छोटे हैं, और पति-पत्नी दोनों काम करने वाले हैं, वहां हो सकता है कि उनकी जिंदगी में बुजुर्ग मां-बाप को साथ में रखने में दिक्कत हो, इसलिए आने वाला वक्त अगर लोगों को अमर करने वाला नहीं है, तो कम से कम देर से मारने वाला जरूर है। इसलिए समाज और सरकार को, बीमा कंपनियों को, समाजसेवी संगठनों को इस दिन के हिसाब से तैयारी रखनी चाहिए कि आने वाली हर पीढ़ी दस-दस बरस अधिक जिंदा रह सकती है, और सदी के अंत तक हो सकता है कि कुछ फ़ीसदी लोग सवा सौ बरस उम्र तक के रहें। आज जो लोग खा-कमा रहे हैं और जिनके पास भविष्य में झांकने के लिए कुछ इंतजाम है, उन्हें अपने-आपको सवा सौ बरस का देखते हुए एक कल्पना करनी चाहिए और उसका इंतजाम करना चाहिए लेकिन ऐसा इंतजाम कोई व्यक्ति अपने अकेले के स्तर पर शायद नहीं कर सकेंगे, जब तक उन्हें बैंक, बीमा कंपनियां, सरकार, और सामाजिक संगठन सभी मिलकर तरह-तरह के विकल्प न दें।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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