संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बड़े जजों की बड़ी बातें, और उन्हें उनसे भी बड़े जजों की समझाइश !
10-Jul-2021 5:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बड़े जजों की बड़ी बातें, और उन्हें उनसे भी बड़े जजों की समझाइश !

किसी भी लोकतंत्र में बड़ी अदालतों के कई आदेश और फैसले दोनों ही बड़े दिलचस्प तो होते हैं, और उनसे देश में सरकारी कामकाज या सार्वजनिक जीवन को लेकर बहुत से नए पैमाने भी तय होते हैं। अभी सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच ने उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट के एक आदेश को खारिज किया और अदालत को एक समझाइश दी है। बड़े कड़े शब्दों में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अदालतों को अफसरों को व्यक्तिगत रूप से कोर्ट में पेश होने के लिए कहने का सिलसिला अच्छा नहीं नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जजों से कहा कि सरकारी अधिकारियों के जिम्मे भी बहुत तरह के काम रहते हैं, और उन्हें बात-बात पर मनमाने ढंग से अदालत में व्यक्तिगत रूप से मौजूद रहने के लिए कहना, जनता के कामकाज का नुकसान है। इन जजों ने कहा कि जजों को सम्राट की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए और उन्हें अपनी सीमाएं मालूम होना चाहिए।  उनके बर्ताव में शालीनता और विनम्रता रहनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने साफ साफ कहा कि किसी अधिकारी को अदालत में बुलाने से अदालत की गरिमा और महिमा नहीं बढ़ती है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि बहुत से जज अधिकारियों को अपनी अदालत में बुलाकर और उन पर दबाव बनाकर अपनी इच्छा के अनुसार काम करवाने का आदेश पारित करवाने की कोशिश भी करते हैं। अदालत ने यह भी कहा कि अधिकारियों को बार-बार अदालत में बुलाने की कड़े शब्दों में निंदा करनी चाहिए।

अब यह मामला दिलचस्प है इसलिए है कि जनहित के कुछ बड़े मुद्दों पर जिनमें कि सरकार लापरवाही बरतती हैं उनमें हम भी अदालतों को ऐसे सुझाव देते आए हैं कि अफसरों को बुलाकर कटघरे में खड़ा करना चाहिए और दिन भर वहां खड़ा रखा जाए तो सरकार का कामकाज ठीक होने लगेगा। यह हमारी अपनी सोच है लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा आदेश इस सोच के खिलाफ है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने किसी अफसर को अदालत में बुलाने के खिलाफ कोई आदेश नहीं दिया है लेकिन अफसरों को बार-बार बुलाने के मिजाज के खिलाफ बात कही है। ऐसे में देश के अलग-अलग हाईकोर्ट के सामने यह ताजा फैसला तब तक एक मिसाल रहेगा जब तक कि सुप्रीम कोर्ट की इससे बड़ी कोई बेंच इसके खिलाफ कोई बात ना करे। किसी किसी बड़े जनहित के मुद्दे पर और सरकारी अफसरों की सोची समझी अनदेखी पर हमें भी ऐसा लगता है कि उन्हें अदालत में बुलाकर फटकार लगानी चाहिए। अब सुप्रीम कोर्ट ने बाकी जजों को यह याद दिलाया है कि उन्हें जो कहना है वे अपने लिखित आदेश या फैसले में कह सकते हैं, उसके लिए अफसरों को वहां बुलाकर खड़ा रखना जरूरी नहीं है, और उनके अदालतों तक आने-जाने से जनता के प्रति उनकी जो जिम्मेदारी है उसकी भी अनदेखी होती है।

सुप्रीम कोर्ट ने जजों को सम्राटों की तरह बर्ताव ना करने की जो नसीहत दी है उसकी एक ताजा मिसाल अभी बंगाल में सामने आई। वहां एक हाई कोर्ट के जज के पास ममता बनर्जी का एक मामला पहुंचा और ममता बनर्जी ने यह संदेह जाहिर किया कि इस जज से उन्हें इंसाफ नहीं मिल सकेगा क्योंकि वे पहले भाजपा के सदस्य रह चुके हैं। इस बात पर जज ने ममता बनर्जी पर पांच लाख रुपये का एक जुर्माना ठोक दिया। इस अकेले मुद्दे पर लिखने से हम बच रहे थे लेकिन अभी सुप्रीम कोर्ट का यह नया फैसला जो कहता है उसकी रोशनी में जब बंगाल के इस जज के इस आदेश को देखते हैं, तो लगता है कि सम्राट की तरह बर्ताव बंगाल के इस जज के मिजाज में भी है। अगर कोई जज किसी एक राजनीतिक दल का सदस्य रहा हुआ है तो उसे उसके विरोधी रहे हुए राजनीतिक दल के नेता के बारे में मामले को सुनने से वैसे भी बचना चाहिए था। बहुत से जज तो खुद होकर भी बहुत से मामले छोड़ देते हैं लेकिन इस जज ने ममता बनर्जी पर जुर्माना लगा दिया। अब ममता बनर्जी इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने जा रही हैं और हमारा अंदाज यह है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ममता के पक्ष में होगा और कोलकाता हाई कोर्ट के जज का लगाया हुआ यह जुर्माना रद्द हो जाएगा। लोगों को इस बात का पूरा हक है कि वे किसी वजह से उन्हें इंसाफ न मिलने की अपनी आशंका जाहिर कर सकें और किसी दूसरे जज के पास अपने मामले को भेजने की अपील कर सकें। जब संविधान में ही ऐसा प्रावधान किया गया है तो फिर इसे अपमानजनक कैसे कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में ममता बनर्जी और भाजपा के बीच जितने हिंसक और तनावपूर्ण संबंध हाल के वर्षों में रहे हैं, वे सबके सामने हैं। भाजपा से जुड़े रहे एक जज से अपने मामले की सुनवाई में अगर उन्हें इंसाफ की गुंजाइश नहीं दिखती है, तो इसमें कोई अटपटी बात नहीं है। ऐसे में ऐसे जज को कोई जुर्माना सुनाकर अपनी व्यक्तिगत नापसंदगी को इस तरह से उजागर भी नहीं करना था।

इसी सिलसिले में यह भी समझने की जरूरत है कि देश में बहुत से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जज मामलों की सुनवाई के दौरान कई केस में जुबानी बातें कहते हैं जो कि बाद में उनके आदेश या फैसले का हिस्सा नहीं रहतीं, लेकिन चूंकि वे सुनवाई के दौरान इन बातों को कहते हैं, इससे उनका रुख भी उजागर होता है और इससे बाकी लोगों को भी एक संदेश मिलता है। हमारे हिसाब से ऐसा जुबानी जमाखर्च चाहे कितना ही लुभावना क्यों न हो, उससे जजों को बचना चाहिए क्योंकि इनके खिलाफ कोई अपील भी नहीं हो सकती। यह आदेश और फैसले से अलग ऐसी टिप्पणियां रहती हैं जिनके खिलाफ ना कोई मानहानि का मुकदमा किया जा सकता है कमा और ना ही इनके खिलाफ ऊपर की बड़ी अदालत में कोई पुनर्विचार याचिका लगाई जा सकती। हमारा ऐसा मानना है कि बहुत से बड़े जज बहुत किस्म की अप्रासंगिक बातें भी करने पर उतारू हो जाते हैं, उससे लोगों के ऊपर एक गैरकानूनी और नाजायज हमला हो जाता है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को किसी फैसले में यह जिक्र भी करना चाहिए कि हाईकोर्ट के जज सुनवाई के दौरान अपनी निजी राय को जुबानी बहुत अधिक सामने ना रखें, क्योंकि वे जो चाहते हैं उसके लिए औपचारिक आदेश जारी कर सकते हैं, और उनके वैसे आदेश को चुनौती भी दी जा सकती है, लेकिन उनकी जुबानी बातों को कोई चुनौती भी नहीं दी जा सकती। इसलिए जजों को सम्राटों की तरह मनमानी बातें कहने का हक भी नहीं रहना चाहिए और इस बारे में भी बड़ी अदालतों को फैसले में लिखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news