संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हर बुरे दौर में कुछ अच्छा भी सीखने की सम्भावना होती है
11-Jul-2021 5:24 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हर बुरे दौर में कुछ अच्छा भी सीखने की सम्भावना होती है

पिछले एक-डेढ़ बरस से लॉकडाउन की वजह से लोगों को घरों से काम करना पड़ा, स्कूल और कॉलेज के बच्चों को घरों में पढ़ना पड़ा, और घरों से ही इम्तिहान भी देना पड़ रहा है। इन सबको अगर देखें तो यह लगता है कि हिंदुस्तान जैसे देश में भी जहां एक बड़ा गरीब तबका डिजिटल टेक्नोलॉजी, इंटरनेट, और स्मार्टफोन के बिना था, उसके बीच भी इन सबकी घुसपैठ बड़ी तेजी से हुई है। हम अभी भी यह मानते हैं कि हिंदुस्तान में लॉकडाउन ने, और तमाम ऑनलाइन काम ने, गरीबों और अमीरों के बीच एक बड़ी डिजिटल खाई को और गहरा और चौड़ा किया है। लेकिन यह बात भी समझना चाहिए कि कुछ वर्षों के अमीर-गरीब मुकाबले के नुकसान के बावजूद, आज हिंदुस्तान में डिजिटल काम जिस तरह से बढा है और कागज का काम जिस तरह से कम हुआ है, क्या उससे दुनिया में कागज पर दबाव घटा है? 

यह बात सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं रही कि अधिक लोगों को घरों से ऑनलाइन काम करना पड़ा, बाकी दुनिया में भी ऐसा हुआ। विकसित देशों में और अधिक हद तक हुआ, भारत से कम विकसित देशों में भी कुछ सीमा तक तो यह हुआ ही है। कुल मिलाकर हुआ यह है जिंदगी में कंप्यूटर और स्मार्टफोन का जो काम था वह एकदम से बढ़ गया। और इसके साथ ही कागज का काम घटा भी है। बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने कोरोना लॉकडाउन के दौरान संक्रमण के खतरे से बचने के लिए गैरजरूरी कागजों को छूना बंद कर दिया जिनमें अखबार और पत्रिकाएं भी शामिल थे। उनकी जगह इनको ऑनलाइन पढ़ना शुरू किया और धीरे-धीरे ऑनलाइन उन्हें बेहतर लगने लगा। अब एक बुनियादी सवाल यह उठता है कि क्या लॉकडाउन के इस लंबे दौर ने लोगों को इस बात के लिए तैयार किया है कि वे कागज का कम इस्तेमाल करें और कंप्यूटर या स्मार्टफोन का अधिक इस्तेमाल करें? 

इसके अलावा सरकारों के ऊपर भी यह जिम्मेदारी आती है कि क्या वे कागज के विकल्प के रूप में स्क्रीन को बढ़ावा देने के काम को और योजनाबद्ध, और व्यवस्थित तरीके से आगे बढ़ा सकते हैं? यह मामला थोड़ा मुश्किल है क्योंकि अभी तो एक बड़ी आपदा के रूप में सरकारों ने किसी भी तरह सब कुछ ऑनलाइन करने की कोशिश की और जैसे ही साल-छह महीने में संक्रमण का खतरा घटेगा, हो सकता है सरकार फिर से अपने परंपरागत तौर-तरीकों पर लौट आएं। लेकिन इस मौके को एक सबक के रूप में भी लेना चाहिए कि कागज के काम को कैसे-कैसे कम किया जा सकता है, खासकर सरकार को अपनी कागजी खानापूरी घटाने की बात सीखने का यह एक बड़ा सही मौका आया है। 

अब हम इस मुद्दे पर लिखने के पीछे की आज की अपनी वजह पर आते हैं कि क्या डिजिटल तकनीक और डिजिटल उपकरणों से धरती के पेड़ों पर दबाव घट सकता है? अगर कागज की खपत घटेगी तो हो सकता है कि धरती पर पेड़ भी कम कटने लगें और कागजों की वजह से कटने वाले पेड़ बच जाएं। इसलिए आज जब धरती पर डिजिटल उपकरणों का कचरा बढ़ने का एक खतरा दिख रहा है वहां यह भी समझने की जरूरत है कि क्या धरती पर पहले से मौजूद पेड़ों के कटने का जो खतरा था क्या उसके घटने की संभावना भी साथ-साथ नहीं दिख रही है? राज्य सरकारों को और सरकार के बाहर के संस्थानों को भी यह सोचने की जरूरत है कि लॉकडाउन के दौरान बिना कागजों के जो काम हो सका है उनके लिए आगे फिर कागजों की एक शर्त क्यों लागू की जाए? 

राज्य सरकारें चाहें तो अपने आपको पूरी तरह कागजमुक्त बनाने के लिए एक योजना बना सकती हैं और इसके लिए सरकारी ढांचे के बाहर के कल्पनाशील और जानकार विशेषज्ञों को रखना जरूरी होगा क्योंकि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी उनके सामने पेश किए जाने वाले कागजों पर ही अपनी सत्ता चलाने के आदी रहते हैं। अगर सामने कागज नहीं रहेंगे तो उन्हें लगेगा कि उनका साम्राज्य खत्म हो रहा है, उनका अधिकार खत्म हो रहा है। इसलिए जरूरत यह है कि सरकार बाहर के लोगों को लेकर आएं और उनसे अपने कामकाज में इस तरह की मरम्मत करवाएं कि बिना कागजों के क्या-क्या काम किए जा सकते हैं। पिछले डेढ़ बरस की डिजिटल तकनीक इस्तेमाल ने यह संभावना दिखाई है कि लोग बिना कागजों के या काफी कम कागजों के साथ जी सकते हैं। इस संभावना को आगे बढ़ाने की जरूरत है और एक-एक कागज की जरूरत को घटाने का मतलब एक-एक पेड़ को बचाना भी होगा, यह भी याद रखना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news