संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भिखारियों को शहरी-संपन्न लोग पोल्ट्री की मुर्गी बना देना चाहते हैं
27-Jul-2021 3:58 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भिखारियों को शहरी-संपन्न लोग पोल्ट्री की मुर्गी बना देना चाहते हैं

सुप्रीम कोर्ट में अभी एक याचिका लगाई गई है जिसमें कहा गया है कि कोरोना के खतरे को देखते हुए सडक़ों पर से भिखारियों को हटाया जाए, उनका टीकाकरण किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील को मानने से साफ-साफ इनकार कर दिया और कहां कि अदालत कोई आभिजात्य दृष्टिकोण नहीं लेगी, और अदालत ने यह भी कहा कि कोई भी अपनी मर्जी से भीख नहीं मांगते, लोग शिक्षा और रोजगार के अभाव में मजबूरी में भीख मांगते हैं क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं रहता। अदालत ने साफ-साफ यह कहा कि वे लोगों को सडक़ों से हटाने के लिए बिल्कुल नहीं कहेंगे, भिखारियों को सार्वजनिक जगहों से हटाने के लिए बिल्कुल नहीं कहेंगे, लेकिन वे सरकार से यह जरूर पूछेंगे कि इन लोगों को टीके कैसे लगाए जा सकते हैं, और कैसे इन्हें बुनियादी सुविधाएं दी जा सकती हैं। अदालत ने साफ-साफ कहा यह एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है और भिखारियों को सार्वजनिक जगहों से हटाकर इसका समाधान नहीं किया जा सकता।

इन दिनों सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों का नजरिया सच में ही इंसानियत से भरा हुआ दिख रहा है। यह मामला जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एम आर शाह की अदालत का है, जहां पर दिल्ली के एक व्यक्ति ने एक जनहित याचिका लगाई है जिसमें देशभर से भिखारियों, आवारा, या बेघर लोगों को चौराहों से, बाजारों और सार्वजनिक जगहों से भीख मांगने से हटाकर उनके पुनर्वास की मांग की गई है।

भिखारियों का पुनर्वास दुनिया के किसी भी विकसित या विकासशील देश में एक बड़ा जनकल्याणकारी कार्य माना जा सकता है। लेकिन हिंदुस्तान में हमने देखा है कि सरकारी निराश्रित गृह में भिखारियों को ले जाकर छोड़ दिया जाता है, जहां उन्हें दो वक्त का खाना तो मिलता है, सोने की जगह मिल जाती है लेकिन उनकी जिंदगी वहीं खत्म हो जाती है। मानो सरकार ने यह मान लिया हो कि उन्हें अब मरने तक इसी तरह जीना है। और चूँकि वे इंसान हैं, इसलिए मुर्गीखाने की मुर्गियों की तरह उनसे अंडे की उम्मीद भी नहीं की जाती, और बस उन्हें दाना दिया जाता है ताकि वे जिंदा रह जाएं। जो लोग इस किस्म के पुनर्वास को भिखारियों के लिए पुनर्वास मानते हैं, उनकी इंसानियत की समझ बड़ी सीमित है। उन्हें लगता है कि सडक़ों पर भीख मांगने वाले लोगों को वहां से हटाकर किसी एक निराश्रित गृह में रख दिया जाए तो उनका बड़ा भला हो जाएगा। हकीकत तो यह है की भिखारी चौराहे या बाजार, या मोहल्ले की गलियों में अपनी मर्जी से घूमते हैं, अलग-अलग किस्म का खाना पाते हैं, कुछ नगदी भी पाते हैं, कुछ अपने पर खर्च करते हैं, और कुछ बचाते हैं।

बहुत से भिखारी ऐसे भी रहते हैं जो अपने परिवार के किसी तरह के संपर्क में रहते हैं और किसी मौके पर अपने परिवार के लोगों की मदद करने के लिए भी अपनी कमाई और बचत में से कुछ पैसे देते हैं। भीख मांगने का यह पूरा सिलसिला चाहे कितना ही अमानवीय लगे, लेकिन यह इस मायने में मानवीय रहता है कि इसमें भिखारी अपनी मर्जी के मालिक रहते हैं, इन्हें जब मंदिर के सामने बैठना रहता है तो वह गुरुवार को साईं बाबा का मंदिर देख लेते हैं, सावन सोमवार को शंकर का मंदिर, शुक्रवार को किसी मस्जिद के सामने, और इतवार को चर्च के सामने। उन्हें पता रहता है कि किस गुरुद्वारे के लंगर से उन्हें कुछ मिल सकता है, या सडक़ किनारे जब शामियाना लगते दिखता है तो भी उन्हें पता रहता है कि कहां भंडारा लगने वाला है। उन्हें यह भी मालूम रहता है कि उनके शहर में किन जगहों पर रोज गरीबों या भिखारियों को खाना बांटा जाता है। वे अपनी आजादी से रोजगार की अपनी जगह तय करते हैं, तरह-तरह की चीजें खाते हैं, और किसी को बददुआ देना, किसी को दुआ देना भी उनके हाथ में रहता है। वे सडक़ों पर आवाजाही देखते हैं, लोगों को हंसते-खेलते देखते हैं, लोगों के मनोविज्ञान का अध्ययन करते हैं, और अपने तजुर्बे का यह इस्तेमाल करते हैं कि कौन लोग उन्हें भीख दे सकते हैं, और कौन नहीं दे सकते हैं। ऐसे में अगर किसी सरकारी निराश्रित गृह में उन्हें किसी जानवर की तरह बांध दिया जाए और कहा जाए कि यही उन्हें दो वक्त का खाना मिलेगा और यही सोने की, सिर छुपाने की जगह मिलेगी, तो उसका मतलब यह है कि एक इंसान के रूप में विविधता के साथ जीने की उनकी सारी संभावनाएं खत्म हो जाती हैं। इन विविधताओं के बारे में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका लगाने वाले संपन्न तबके के लोग जो कि जाहिर तौर पर भिखारियों की फिक्र कर रहे हैं, लेकिन शायद जिनका मकसद सडक़ों पर से गंदे और बीमार दिखने वाले, फटे कपड़ों में ऐसे बूढ़े और विकलांग लोगों को हटाना है, तो ऐसे लोगों की जनहित याचिका के पीछे की जो सोच है, उसे सुप्रीम कोर्ट के कम से कम इन दो जजों ने बिल्कुल सही संदर्भ में समझा है, और सार्वजनिक जगहों से भिखारियों को हटाने से बिल्कुल मना कर दिया है, और यह कहा है कि अगर वे कोई नोटिस जारी करेंगे तो उससे ऐसा लगेगा कि वे लोगों को हटाने के हिमायती हैं, जो कि वे नहीं हैं।

दरअसल संपन्न समाज बहुत सी चीजों को अपनी नजरों के सामने से हटाना चाहता है। इसमें गरीब, बीमार, विकलांग, बेघर लोग भी हैं क्योंकि उन पर नजर पडऩे के बाद संपन्न समाज अपनी संपन्नता का बिना अपराध बोध के उस हद तक मजा नहीं ले पाता, जितना मजा लेना वह चाहता है। चौराहों पर एसी कारों के भीतर कुछ खाते-पीते लोगों को शीशा खटखटाते भिखारी खटकते हैं। इसलिए मंदिरों और धर्म स्थलों के वैराग्य से परे जिंदगी की सुख की जगहों पर ऐसे दुखी लोगों को देखना कोई नहीं चाहते। और तो और हमें पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार याद है जब बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री थे और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन मेजर कोलकाता आए थे। कोलकाता शहर के फुटपाथ और सडक़ों से सारे के सारे भिखारियों और बेघर लोगों को शहर के बाहर ले जाया गया था। यह पूरी तरह से वामपंथी सोच के खिलाफ और गोरे शासकों के प्रति गुलामी वाली एक सोच थी कि ऐसे मेहमान के आने पर हमें अपनी जिंदगी की हकीकत भी छुपा लेना है। यह वामपंथी सरकार का एक पाखंड था कि एक अंग्रेज प्रधानमंत्री को यह दिखाए कि उसके शहर में गोरी आंखों को तकलीफ देने वाले कोई भी फटेहाल बेघर लोग नहीं है। लोगों को याद होगा कि इसी सोच के चलते हुए अभी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के ठीक पहले जब डॉनल्ड ट्रंप अहमदाबाद आए थे तो सडक़ों के किनारे की झोपड़पट्टियों को छुपाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपनी ही पार्टी की गुजरात सरकार ने उन बस्तियों के सामने पूरी दीवार खड़ी कर दी थी ताकि वहां से तेज रफ्तार बुलेटप्रूफ गाड़ी में गुजरते हुए भी ट्रंप को कोई झोपड़पट्टी न दिखे।

यह सोच नई नहीं है लेकिन यह किसी विकसित और सभ्य लोकतंत्र की सोच भी नहीं है। दुनिया में अमेरिका जैसे लोकतंत्र हैं जहां बहुत से प्रदेशों में, बहुत से शहरों में, सार्वजनिक बाग-बगीचों में बेघर लोगों ने कब्जा कर लिया है, और उनमें रहते हैं। वहां पर भी इतनी बड़ी संख्या में रहते हैं कि वहां और लोगों का घूमने जाना नामुमकिन सरीखा रहता है। लेकिन फिर भी वहां जागरूक नागरिकों का एक तबका ऐसा है जो यह मानता है कि किसी भी सार्वजनिक जगह पर पहला हक बेघर लोगों का है, उसके बाद ही कोई हक वहां घरबार वाले लोगों का हो सकता है। क्या आज हिंदुस्तान में शहरी संपन्न लोगों के बीच कोई इस सोच से बात भी कर सकते हैं कि सार्वजनिक जगहों पर पहला हक बेघर गरीब और भिखारियों का है? संपन्न तबका ऐसा तर्क देने वालों को नोंच खाएगा। लेकिन हमें बहुत खुशी है कि सुप्रीम कोर्ट के इन दो जजों ने एक ऐसी राय सामने रखी है जो कि आदेश की शक्ल में सामने आने के बाद देश के दर्जनों हाईकोर्ट के सैकड़ों जजों के लिए भी एक मार्गदर्शक की तरह रहेगी कि भिखारियों को नजरों से हटा देना कोई आर्थिक सामाजिक समाधान नहीं है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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