संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दिवस पर हिंदी पर कर लें कुछ चर्चा?
14-Sep-2021 5:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दिवस पर हिंदी पर कर लें कुछ चर्चा?

आज के दिन हिंदी दिवस मनाया जाता है। लोग इस भाषा के बारे में कई तरह की बातें लिखते हैं और सालाना श्रद्धांजलि के अंदाज में इस भाषा के महत्व को याद किया जाता है। ऐसे मौकों पर बहुत से लोग भावुक होने लगते हैं और राष्ट्रभाषा की उपेक्षा गिनाते हुए वे हिंदी सेवा की जरूरत पर बोलने और लिखने लगते हैं। हिंदी सेवा, हिंदी सेवक जैसे शब्द पूरे वक्त कहीं न कहीं हवा में तैरते रहते हैं। बहुत से लोग इसी नाम से बनाए गए संगठनों की कुर्सियों पर काबिज रहते हैं, कुछ लोग इसे एक पूर्णकालिक पेशे की तरह भी बना लेते हैं और वे हिंदी सेवक का दर्जा पाकर एक किस्म की शहादत की कोशिश में लग जाते हैं। यह माहौल कुछ उसी तरह का लगता है जैसे घूरों पर पलती गायों के देश में लोग पूर्णकालिक गौसेवक हो जाते हैं। गाय को सिर्फ पॉलिथीन वाला घूरा नसीब होता है और गौसेवक गाय के हिस्से की रोटी खाने लगते हैं।

हिंदी भाषा की सेवा बड़ा मजेदार शब्द है। हिंदी को कम पढऩे वाले कोई विदेशी अगर सुनेंगे तो वे हिंदी को मां समझेंगे और उन्हें लगेगा कि ऐसे सेवक मां के पैर दबाने में लगे रहते हैं। हम अपनी साधारण समझ से जब यह सोचते हैं कि इस बड़े देश में सबसे बड़ा हिस्सा जब हिंदी बोलने वालों का है, तो फिर हिंदी इस्तेमाल करने वालों का बुरा हाल क्यों है? कुछ लोग इस बात को मुगल राज तक ले जाएंगे जब भारत में उर्दू का प्रचलन शुरू हुआ और सरकारी कामकाज उसमें होने लगा। फिर अगर देखें तो ईस्ट इंडिया कंपनी आई और देश का सरकारी काम, अदालती काम उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी में भी होने लगा। फिर जब भारत के आजाद होने का वक्त आया, देश के संविधान को बनाने की बात आई, तो दुनिया के बहुत से संविधानों की मिसालें अंग्रेजी में थीं, और भारत का उस वक्त का सत्ता का तबका अंग्रेजी जानने-समझने वाला था, तो कानून अंग्रेजी में बना। सरकार का कामकाज भी आजादी के बाद अंग्रेजी में शुरू हुआ, इसलिए देश के बीच के एक बड़े हिस्से को छोडक़र बाकी राज्यों में हिंदी बोलचाल की भाषा भी नहीं थी, बोली भी नहीं थी।

भारत के नक्शे को अगर देखें तो दिल्ली से शुरू होकर हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान इतने राज्य ही अपने थोड़े या अधिक हिस्से में हिंदी बोलने वाले थे, बाकी के तमाम राज्य हिंदी से परे की दूसरी जुबानों वाले थे। और जिन राज्यों को यहां हम गिना रहे हैं, इनके भीतर भी क्षेत्रीय बोलियां बहुत ताकतवर थीं, जैसे छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, और दो-तीन और बोलियां, ऐसा हाल हिंदी भाषी इन प्रदेशों का भी था। जैसे भोजपुरी में, राजस्थानी में, हरियाणवी और गढ़वाली में कितने ही किस्म की फिल्में बनती हैं, संगीत रिकॉर्ड होता है, साहित्य लिखा जाता है, लोकगीत चले आ रहे हैं। इनकी लिपि देवनागरी होने से इनको हिंदी भाषी मान लिया गया और वह गिनती हकीकत से थोड़ी दूर रही।

लेकिन यह भी बहुत बड़ा मुद्दा नहीं था, और हिंदी से सत्ताहीन तबके, कमजोर तबके, उद्योग-बाजार और आयात-निर्यात से परे के तबके, तकनीकी शिक्षा और उच्च शिक्षा से परे के तबके अपना काम चलाते रहे और कमजोर बने भी रहे। चूंकि कामयाबी का एक रिश्ता अंग्रेजी से एक सदी से अधिक से बना हुआ था, इसलिए वह चलते रहा, और देश के बाहर हिंदुस्तान का अधिकतर लेना-देना अंग्रेजी भाषी देशों से था इसलिए भी वह चलते रहा। जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते-समझते थे, और जिनके लिए हिंदी में ऊंची पढ़ाई करना मुश्किल था, बाहरी दुनिया से संपर्क मुश्किल था, कम्प्यूटर से लेकर टेक्नोलॉजी तक का काम मुश्किल था, वे पीछे रहते चले गए। और जिस तरह पीछे रह गई एक पीढ़ी की अगली पीढ़ी के पीछे रहने का खतरा अधिक रहता है, उसी तरह का हाल हिंदी बोलने वालों का हुआ। दूसरी तरफ हिंदी को एक भावनात्मक मुद्दा मानने वाले लोग उसकी सेवा के नाम पर अंग्रेजी के विरोध को आक्रामक तरीके से बढ़ाते रहे, और हिंदी इलाकों में एक के बाद दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी की जानकारी के बिना, अंग्रेजी में काम करने वाले राज्यों के लोगों से पीछे रहती चली गईं।

भाषा को लेकर आज इस जगह इस चर्चा में अपने विचार लिखने के लिए हमारे पास दो छोटी-छोटी बातें हैं। एक तो यह कि हिंदुस्तान में जो लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा मानते हैं उनको यह भी समझना होगा कि जिस शुद्ध हिंदी को वे राष्ट्रभाषा करार देना चाहते हैं, वह हिंदी यहां की राष्ट्रभाषा नहीं रही, नहीं है, और नहीं रहेगी। मुगलों की उर्दू और अंग्रेजों की अंग्रेजी आने के पहले भी हिंदुस्तान के आज के कुछ हद तक के हिंदी भाषी राज्यों में स्थानीय और क्षेत्रीय बोलियों की इतनी जबर्दस्त पकड़ थी, और आज भी है कि आज की खड़ी बोली जैसी हिंदी, शुद्ध कही जाने वाली हिंदी, मोटे तौर पर बहुत सीमित थी। जिस तरह हिंदी को अलग, और हिंदुस्तानी को अलग मान लिया जाता है, उससे हिंदी का बहुत बड़ा नुकसान हुआ। आज की हिंदी के साथ उर्दू, अंग्रेजी, और हिंदुस्तान की दर्जनों दूसरी भाषाओं और बोलियों ने मिलकर जो हिंदुस्तानी जुबान बनाई है, उसमें से फेंटकर सिर्फ खालिस हिंदी को जब अलग कर लिया जाता है, और उसे एक सेवा की तरह की भावना से जोड़ दिया जाता है तो वह बाकी हिंदुस्तानियों के काम की नहीं रह जाती। जिस तरह किसी मिली-जुली हिंदू-मुस्लिम समाधि या दरगाह पर जब इनमें से किसी एक ही धर्म के रीति-रिवाज, उसी धर्म के रंगों को लेकर हावी हो जाते हैं, तो दूसरे धर्म वहां से हटना बेहतर समझते हैं। इसी तरह का हाल हिंदी का हुआ, और हिंदी इलाकों को यह ठीक से पढऩे-समझने भी नहीं मिला कि गैरहिंदी राज्यों में, खासकर दक्षिण के राज्यों में हिंदी किस हद तक बेकाम की जुबान है। उसका न कोई अस्तित्व है, न उसकी वहां कोई जरूरत है। वहां हिंदी जानने, समझने और बोलने वाले लोग ऐसे कामगार हैं जिनका कि भारत के हिंदी भाषी राज्यों से कामकाज का वास्ता पड़ता है। इससे परे वे अपनी क्षेत्रीय भाषा में खुश हैं और आगे बढऩे की संभावनाएं देने वाली अंगे्रजी जुबान के साथ खुश हैं।

हिंदुस्तानी से अपने-आपको अलग करने के फेर में शुद्धतावादी हिंदी ने अपने दायरे को बहुत सीमित कर लिया। वरना एक वक्त था जब प्रेमचंद जैसे लेखक उर्दू को भी समझते थे, उर्दू में भी लिखते थे, और जब वे हिंदी लिखते थे, तो वह गरिष्ठतावादी, शुद्धतावादी हिंदी से परे की हिंदुस्तानी जुबान होती थी, यही वजह है कि वह आसानी से लोगों के समझ आती थी, और आज पौन सदी बाद भी वह आज के बहुत से हिंदी लेखन के मुकाबले समझने में अधिक आसान है। हिंदी की सेवा या शुद्धता के नाम पर जो लोग लगे रहते हैं, उन्हीं से इस भाषा की संभावनाओं को नुकसान हुआ। किसी भाषा का असरदार होना, उसकी संवाद-क्षमता का अधिक होना जरूरी होता है, न कि उसका शुद्ध होना। हिंदी को जब लगातार शुद्ध बनाए रखने की ऐसी कोशिशें हुईं कि वह अधिक से अधिक लोगों की समझ से परे होती चली गई, तो वह अपना असर और खोती चली गई, क्योंकि वह कम लोगों के इस्तेमाल की रह गई। हिंदी के साथ एक दिक्कत और यह हो गई है कि अंग्रेजी से नापसंदगी के चलते हिंदी के जो लोग अंग्रेजी से परहेज करने लगे, उनका ज्ञान-संसार भी सीमित रहने लगा, और ज्ञान के विकल्प की तरह उन्होंने भावनाओं और विशेषणों का इस्तेमाल अधिक किया।

भाषा इस्तेमाल के लिए होती है, उसका मकसद किसी से अपने पैर दबवाना नहीं है, उसका मकसद किसी एक की बात को दूसरे तक पहुंचाना है। भाषा एक औजार की तरह है जो अगर अच्छी तरह अपना काम करे, हुनरमंद कारीगर के काम में उससे मदद मिले, तो ही उस औजार की इज्जत है। जिस घन से अच्छा वार हो सके, वह लोहे का भी अच्छा। और जिसके वार से चोट न पहुंचे, वह सोने का घन भी किसी काम का नहीं। इसलिए भाषा को बांहें फैलाकर दूसरी भाषाओं और बोलियों से मिलकर चलना चाहिए, उन्हें गले मिलाकर चलना चाहिए। भाषा से बिल्कुल परे की एक मिसाल हम यहां देना चाहेंगे जो कि हमें अपने किस्म की बेमिसाल बात लगती है। सिखों के सबसे महान ग्रंथ गुरूग्रंथ साहिब को देखें तो गुरूनानक देव ने उस वक्त के मुस्लिम, हिंदू, दलित, सभी तबकों के संतों की बातों को सिखों के इस ग्रंथ में उनके नाम सहित जोड़ा। गुरूनानक चाहते तो उन्हें सिर्फ अपनी बातों से ही यह ग्रंथ पूरा कर देने से कौन रोक सकता था? दुनिया के अधिकांश धार्मिक गं्रथ सिर्फ अपनी ही बातों के होते हैं। लेकिन धर्मों की ऐसी दुनिया में जब गुरूनानक देव ने बेझिझक दूसरे धर्मों को इतना महत्व दिया, तो उनकी उस दरियादिली से भी यह ग्रंथ इतना महत्वपूर्ण बन पाया। इसी तरह का हाल जुबान के मामले में अंग्रेजी का रहा, जिसने दुनिया की दर्जन भाषाओं से सैकड़ों शब्दों को हर बरस अपने में शामिल करने का सिलसिला चला रखा है और अंग्रेजी के शब्दकोषों में ऐसी लिस्ट हर साल जुड़ती भी है।

विचार के इस कॉलम में इस बड़े मुद्दे पर पूरा लिखना मुमकिन नहीं है इसलिए हम आधी-अधूरी बात को ही यहां छोड़ रहे हैं, यहां उठाए गए कुछ पहलुओं पर कुछ सोच-विचार की उम्मीद के साथ।
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