संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दिल्ली के प्रदूषण से खफा सुप्रीम कोर्ट के खतरनाक तेवरों से क्या हासिल?
15-Nov-2021 6:07 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दिल्ली के प्रदूषण से खफा सुप्रीम कोर्ट के खतरनाक तेवरों से क्या हासिल?

दिल्ली का प्रदूषण न सिर्फ देश में सबसे अधिक बुरा प्रदूषण बन चुका है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के जजों के फेफड़ों को क्योंकि वह सीधे प्रभावित करता है, इसलिए उस पर सुनवाई लगातार होती है। कई बरस हो गए, दिल्ली के प्रदूषण पर अदालत तरह-तरह से केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार को कटघरे में लाती है, और फसलों के ठूंठ (पराली) जलाने के मामले में दिल्ली से लगे हुए दूसरे कुछ राज्यों के किसानों पर भी तरह-तरह की तोहमत ये दोनों सरकारें लगाती हैं। आज दिलचस्प बात यह रही कि सुप्रीम कोर्ट में जब केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के वकीलों ने उनके तर्क रखे, तो जजों ने कम से कम दिल्ली सरकार को बहुत बुरी तरह खारिज कर दिया, और मामले से जुड़े हुए मुद्दों से आगे बढ़ते हुए जजों ने कहा कि बेकार के बहाने बनाना ठीक नहीं है, ऐसे में लोकप्रियता के नारों पर दिल्ली सरकार जो खर्च करती है, उसका ऑडिट करवाने के लिए अदालत मजबूर होगी।

केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार की आपसी राजनीति भी है जिसके चलते हुए दोनों एक-दूसरे को कभी-कभी घेरने का काम भी करती हैं। अदालत में केंद्र सरकार के वकील ने बतलाया कि प्रदूषण में किसानों के खेत में ठूंठ जलाने से 10 फ़ीसदी हिस्सा ही जुड़ा है, और बाकी प्रदूषण दूसरी वजहों से हो रहा है। यह तमाम दूसरी वजहें दिल्ली सरकार के दायरे की हैं, और इसीलिए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि फसल के ठूंठ जलाने के अलावा कंस्ट्रक्शन, बिजली, ट्रांसपोर्ट, और धूल जैसे मुद्दे भी हैं। अदालत ने इस पर तुरंत ही बैठक करके यह योजना लाने के लिए कहा है कि कल शाम तक इस पर कैसे अमल किया जा सकता है. उसने इतना भी सवाल किया है और क्या दिल्ली आने वाली तमाम गाडिय़ों को रोक दिया जाए?

दिल्ली का प्रदूषण बहुत खतरनाक है और वहां रहने वाले लोगों की सेहत के लिए यह हर बरस कई महीनों तक खतरा बने रहता है, अभी भी है। दिल्ली में सरकारी और निजी बड़े-बड़े अस्पतालों में रोजाना लाख-पचास हजार मरीज पहुंचते हैं, और उनमें से दसियों हजार इलाज के लिए भर्ती भी रहते हैं। इसलिए इनकी तकलीफ और दिक्कतों में प्रदूषण से और इजाफा ही होता होगा। पिछले दिनों हमने इसी जगह देश के प्रदूषण, और खासकर दिल्ली के प्रदूषण को लेकर बार-बार लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट पटाखों पर लगाए गए प्रतिबंधों को किसी अमल के लायक नहीं लिख पाया, और उसके आदेश से न तो पटाखे रुकने थे, और न रुके। हमने यह बात भी लिखी थी कि पश्चिम बंगाल हाईकोर्ट ने जब अलग-अलग धर्मों के कई त्योहारों पर पटाखों पर पूरी की पूरी रोक लगा दी थी, तो सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश को पलट दिया। सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही एक अजीब सी नामुमकिन नौबत सरकार और पुलिस के सामने खड़ी कर दी कि मानोकुछ हजार पुलिस वाले  दिवाली की रात पटाखे फोडऩे वाले लोगों को लाखों की संख्या में गिरफ्तार कर सकते हैं, या लाखों मामले दर्ज कर सकते हैं। अदालत को कोई आदेश देने के पहले यह भी तो सोच लेना चाहिए कि उस पर अमल करना मुमकिन होगा या नहीं।

अभी भी वक्त है सुप्रीम कोर्ट हर दिवाली के आसपास कुछ हफ्ते तक दिवाली, फसल, मौसम, और बाकी के समय के प्रदूषण को मिलाकर सुनवाई करना बंद करे, और अभी से अगले दिवाली के लिए यह तय करे कि देश में किसी भी तरह के पटाखे न बनाए जाएं और न फोड़े जाएं। पटाखे न तो किसी धर्म का हिस्सा हैं, और न ही लोकतंत्र में पटाखे फोडऩे का हक जरूरी है। आज के वक्त में जब प्रदूषण इतनी बड़ी दिक्कत बन चुका है कि सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी बेंच बैठकर केवल इसी मामले की सुनवाई कर रही है तो अदालत को देश में हवा जहरीली करने वाले पटाखों पर पूरी की पूरी रोक लगानी चाहिए। यह सिलसिला हर बरस दिवाली मनाने की तरह, हर बरस अदालती सुनवाई करने जैसा नहीं हो जाना चाहिए। लोकतंत्र में पुलिस की काम करने की एक सीमा है और वह सारी की सारी जनता को त्यौहार के बीच में पटाखे जलाने से रोककर एक नए किस्म का दंगा खड़ा नहीं कर सकती। इसलिए अदालत को जमीनी हकीकत को थोड़ा सा समझना चाहिए, वरना लोग यह मानकर चलेंगे कि जज बड़ी ऊंची-ऊंची मीनारों में बैठे रहते हैं, जिन्हें यह भी पता नहीं रहता कि पुलिस क्या कर सकती है और क्या नहीं कर सकती।

पटाखों से परे कुछ और चीजों के बारे में सोचने की जरूरत है जिसमें दिल्ली पर तो फोकस रहेगा ही, लेकिन बाकी देश में भी उस पर अमल करना चाहिए। दिल्ली में चूंकि पैसा बहुत है, सरकारी फिजूलखर्ची बहुत है, देश भर की राज्य सरकारों के दफ्तर और अफसर भी दिल्ली में बसे हुए हैं, और दिल्ली में दुनिया भर के विदेशी दूतावास और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के दफ्तर भी हैं, इसलिए वहां पर गाडिय़ों में कोई कमी नहीं होती है। इतने बड़े-बड़े कारोबारी हैं कि वे परिवार के लिए कई-कई गाडिय़ां रख सकते हैं, ड्राइवर रख सकते हैं, और पूरे वक्त सडक़ पर डीजल-पेट्रोल जला सकते हैं। ऐसे शहर में जब तक सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा नहीं मिलेगा, जब तक हर आय वर्ग के लोगों के लिए तरह तरह की बसों का पूरा इंतजाम नहीं होगा, तब तक निजी गाडिय़ों का इस्तेमाल नहीं घट सकता। लेकिन यह बात पूरे देश पर लागू होती है, और देश के अधिकतर शहरों में सार्वजनिक परिवहन को बढ़ाने की जरूरत है। निजी गाडिय़ां लगातार बढ़ रही हैं, और उससे सरकार को एक टैक्स तो मिलता है लेकिन उससे सडक़ों को एक अंधाधुंध दबाव भी मिलता है, बढ़ा हुआ ट्रैफिक जाम भी मिलता है। इसलिए गाडिय़ों की बिक्री को बहुत अच्छी बात मानना ठीक नहीं होगा, और मेट्रो, बस, लोकल ट्रेन, इनका जो भी इंतजाम जहां हो सकता है, वह किया जाना चाहिए ताकि निजी गाडिय़ों का इस्तेमाल कम से कम हो सके। वैसे भी इस बात को समझने की जरूरत है कि जिस रफ्तार से गाडिय़ां बढ़ती जा रही हैं शहरों में सडक़ें वैसे भी इतनी गाडिय़ों को झेल नहीं पाएंगी और थमा हुआ ट्रैफिक सबसे बुरा प्रदूषण पैदा करते रहेगा। इस काम को केंद्र सरकार को बड़े पैमाने पर देश के तमाम शहरों के लिए बढ़ावा देना चाहिए ताकि डीजल का धुआँ कम हो सके। लोगों को उनकी खर्च करने की ताकत के मुताबिक सहूलियत, और शान-शौकत वाले सार्वजनिक परिवहन जब तक मुहैया नहीं कराए जाएंगे, तब तक यह प्रदूषण बढ़ते ही चले जाएगा।

सरकार को आज पूरी दुनिया में चल रही एक दूसरी चर्चा पर भी गौर करना चाहिए कि हिंदुस्तान में कौन-कौन से ऐसे काम है जिन्हें घर पर रहकर किया जा सकता है, जिसके लिए लोगों को काम की जगह पर आना-जाना कम पड़े। यह भी सोचना चाहिए कि क्या अलग-अलग किस्म के दफ्तरों को अलग-अलग दिनों पर, या अलग-अलग वक़्त पर खोलने और बंद करने का कोई ऐसा तरीका निकाला जा सकता है जिससे सडक़ों पर हर दिन कुछ लोगों की भीड़ कम रहे। केंद्र सरकार को दिल्ली से बहुत से सरकारी दफ्तर दूसरे शहर भेजने के बारे में भी सोचना चाहिए। यह तमाम नए तौर-तरीके रहेंगे और केंद्र और राज्य सरकारों को अपने-अपने स्तर पर इनके बारे में फिक्र करनी चाहिए। आज दुनिया के बहुत से देशों में महामारी के चलते घर से काम को बढ़ावा मिला है, और भारत में भी कम से कम बड़े शहरों में इसके कुछ हिस्सों पर तो अमल किया ही जा सकता है। अब देखना यही है कि कल शाम तक केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार कौन सी बंदिशें लागू करने की बात सुप्रीम कोर्ट को बताती हैं, और क्या सुप्रीम कोर्ट महीने-दो महीने की सुनवाई के बाद इस मामले को अगले साल तक फिर छोड़ देगा, या अगली दिवाली और अगले ठंड के मौसम का भी कोई इलाज अभी से करेगा।
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