संपादकीय
आज सुबह जब यह खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नौ बजे राष्ट्र को संबोधित करेंगे, तो बहुत से लोगों के मन में यह आशंका हुई कि यह जनता की सहूलियत बढ़ाने वाला कोई फैसला होगा, या कि जनता के लिए नोटबंदी, लॉकडाउन, या जीएसटी की तरह का परेशानी लाने वाला कोई फैसला होगा। लेकिन जिस बात की किसी को उम्मीद नहीं थी, वह घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने एक बार फिर लोगों को चौंकाने का काम किया और कहा कि जिन तीन किसान कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन चल रहा था, उन्हें सरकार वापिस ले रही है। उन्होंने कहा कि सरकार किसानों के एक तबके को इन कानूनों का फायदा समझाने में नाकामयाब रही, और वह इसके लिए लोगों से माफी चाहते हैं। उन्होंने साफ किया कि संसद के शुरू होने वाले सत्र में ही इन कानूनों को वापस लेने की संवैधानिक औपचारिकता पूरी कर ली जाएगी। साथ ही उन्होंने यह घोषणा भी की कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों, किसानों, कृषि वैज्ञानिकों, और कृषि अर्थशास्त्रियों के प्रतिनिधियों की एक समिति बना रही है, जो इस बात पर चर्चा करेगी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कैसे अधिक असरदार बनाया जा सकता है, और कैसे फसल के पैटर्न को वैज्ञानिक तरीके से बदला जा सकता है।
उन्होंने आज की यह घोषणा सिखों के एक सबसे बड़े धार्मिक त्यौहार प्रकाश पर्व के मौके पर की, और पिछले एक बरस से अधिक समय से चले आ रहे किसान आंदोलन में शामिल लोगों से घर लौटने की अपील की। इस आंदोलन में पंजाब, हरियाणा, और उत्तर प्रदेश के किसान शामिल हैं, और इन तीन में से दो राज्य, पंजाब और उत्तर प्रदेश में अभी 3 महीने बाद चुनाव होने जा रहे हैं। तमाम विपक्षी पार्टियों का यह मानना है कि पंजाब और यूपी के चुनावों को देखते हुए किसानों की नाराजगी को कम करने के लिए प्रधानमंत्री ने यह घोषणा की है। लेकिन इस पर किसानों की पहली प्रतिक्रिया यह आई है कि वे आंदोलन खत्म करने नहीं जा रहे। पहले तो वे इस बात का इंतजार करेंगे कि संसद से यह कानून खत्म हो जाए, और उसके बाद वे इस बात के लिए लड़ाई जारी रखेंगे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को कानून की शक्ल मिले। किसानों के नेता राकेश टिकैत ने यह भी कहा कि हजारों किसानों पर तरह-तरह के मुकदमे दर्ज किए गए हैं, तो जब कभी भी सरकार की बनाई कमेटी से बात होगी, उसमें यह मुद्दा भी उठेगा कि आंदोलन खत्म करने के पहले ये सारे मुकदमे खत्म किए जाएं। उन्होंने कहा कि यह सोचना गलत होगा कि अपने सिर पर ऐसे मुकदमों का कानूनी बोझ लेकर किसान घर लौटेंगे।
विपक्ष के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी लगातार किसानों के पक्ष में बयान देते आ रहे थे, और आज सुबह से उनका एक वीडियो भी तैर रहा है जिसमें वे दमखम के साथ यह कह रहे थे कि लोग लिखकर रख लें कि एक दिन मोदी सरकार को इन काले किसान कानूनों को वापस लेना पड़ेगा। साल भर से अधिक से चले आ रहे इस किसान आंदोलन के दौरान कांग्रेस के अलावा बहुत सी विपक्षी पार्टियों के लोग खुलकर आंदोलन के साथ में थे, फिर भी इस आंदोलन की कामयाबी यह रही कि वह अहिंसक भी बने रहा और गैर राजनीतिक भी। आज राहुल गांधी ने मोदी की घोषणा के बाद कहा कि अन्याय के खिलाफ जीत की बधाई, देश के किसानों ने अहंकारी सरकार को सत्याग्रह के माध्यम से झुकने के लिए मजबूर किया है। यह लोगों का देखा हुआ है कि किस तरह से वामपंथी पार्टियों के नेता, और वामपंथी किसान संगठनों के मुखिया लगातार किसान आंदोलन के साथ बने रहे. आज इस मौके पर सोशल मीडिया पर देश के हजारों लोगों ने यह याद किया कि किस तरह से 700 किसानों की शहादत के बाद केंद्र सरकार ने अपना इरादा बदला है, और कई लोगों ने यह भी कहा कि जिंदगियों का इतना बड़ा नुकसान होने के पहले भी केंद्र सरकार यह फैसला ले सकती थी। लोगों ने इस मौके पर यह भी याद किया कि भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं ने केंद्र और उसकी राज्य सरकारों के मंत्रियों ने किस तरह किसानों को कभी खालिस्तानी कहा, कभी पाकिस्तानियों से मिला हुआ कहा, कभी देशद्रोही कहा, तो कभी कुछ और। इन्हें बड़े किसानों का और आढ़तियों का दलाल कहा गया, और इनके खिलाफ जितने तरह का दुष्प्रचार सत्तामुखी हो चुके टीवी चैनलों पर किया गया, उसे भी आज लोगों ने याद किया है, और यह सवाल खड़ा किया है कि इन टीवी चैनलों के लोग साल भर तक किसान आंदोलन को बदनाम करने के बाद आज किस तरह इस कानून की वापसी की तारीफ करेंगे, यह देखने लायक होगा।
यह बात बहुत जाहिर तौर पर दिख रही है कि उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनावों को लेकर केंद्र सरकार ने यह कड़वा घूंट पिया है, और किसानों के सामने, विपक्ष के समर्थन से चल रहे इस मजबूत आंदोलन के सामने अपनी हार मानी है। लेकिन किसानों का आंदोलन इन तीन कानूनों की वापसी या खात्मे से परे भी जारी रहना सरकार के सामने एक चुनौती रहेगा, लेकिन इसमें एक अच्छी बात यह होने जा रही है कि प्रधानमंत्री की बनाई हुई कमेटी में राज्यों को भी जोड़ा जा रहा है. किसानों के मुद्दों पर बिना राज्य सरकारों को भरोसे में लिए हुए, बिना उनका सहयोग मांगे हुए, और बिना उनकी हिस्सेदारी के राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी फैसला करना गलत और मनमानी होगा। भारत के संघीय ढांचे के मुताबिक भी देशभर के लिए ऐसी कोई भी बड़ी नीति अगर बनती है, तो वह केंद्र सरकार की मनमानी के बजाय राज्य सरकारों की भागीदारी से बननी चाहिए। जिस वक्त संसद में ये तीनों कानून पास किए गए थे उस वक्त की बात भी लोगों को याद है कि किस तरह वहां एक बहुमत के आधार पर, बिना किसी अधिक चर्चा के, सत्तापक्ष ने इन कानूनों को बनवा दिया था। उस वक्त भी अगर एक खुली बहस इन पर हुई रहती, तो भी इन कानूनों की खामियां सामने आ गई रहतीं, लेकिन बहुमत की सरकार ने किसी असहमति की फिक्र नहीं की थी। और यह पहला मौका है जब एक मजबूत आंदोलन के चलते हुए, और विपक्ष के मजबूत समर्थन के जारी रहते हुए, बिना राजनीति, बिना हिंसा चल रहा प्रदर्शन सरकार को झुकने पर मजबूर कर गया।
ये कानून तो खत्म हो गए, लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा के लोगों ने किसानों के खिलाफ जितने किस्म की अपमानजनक बातें कही थीं, और जिस तरह लखीमपुर खीरी में एक केंद्रीय मंत्री के बेटे ने अपनी गाड़ी से किसान आंदोलन के लोगों को कुचल कर मारा, वह सब कुछ बहुत ही भयानक अध्याय बनकर हमेशा लोगों को याद रहेगा। जब बहुत ही मजबूत केंद्र और राज्य की सत्ता अपनी मनमानी करती है, तो उसके लोग इस हद तक जुबानी और चक्कों की हिंसा पर भी उतर आते हैं। अभी तुरंत तो सामने खड़े हुए विधानसभा चुनाव मोदी सरकार और उनकी पार्टी को डरा रहे होंगे, इसलिए किसान आंदोलन के किसी नए ताजा बड़े दौर के बिना भी केंद्र सरकार ने खुद होकर यह सुधार कुछ उसी तरह किया है, जिस तरह पेट्रोल और डीजल के दाम कम किए हैं। पता नहीं जनता चुनाव तक इन फैसलों के पीछे की चुनावी मजबूरियों को याद रख पाएगी या भूलकर वोट देगी, जो भी हो किसान आंदोलन ने इस देश के किसी भी किस्म के आंदोलन के इतिहास में मील का एक नया पत्थर लगा दिया है जो कि देश के बहुत से लोकतांत्रिक आंदोलनों के लिए हमेशा ही एक मिसाल बना रहेगा। अब आने वाले दिनों में देखना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आज घोषित की गई कमेटी कब तक बनती है और वह किस तरह किसानों के मुद्दों को आगे ले जाती है। इसमें छत्तीसगढ़ जैसे राज्य के मुद्दे भी सामने आएंगे जिसमें केंद्र सरकार ने यह शर्त रख दी थी कि अगर छत्तीसगढ़ धान पर बोनस देगा तो केंद्र सरकार उससे चावल नहीं खरीदेगी। आज दिल्ली में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात को उठाया है, और देशभर के अलग-अलग राज्यों में इस तरह की जो भी और बातें होंगी, वे सब भी किसान-मुद्दों पर बनाई गई ऐसी राष्ट्रीय कमेटी में सामने आएंगी और उन पर राष्ट्रीय स्तर पर ही विचार होना चाहिए, जिनमें केंद्र और तमाम राज्यों की भागीदारी होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि किसान कानूनों पर केंद्र सरकार के हाथ जिस तरह जले हैं, उससे उसने यह तय किया है कि आगे बचे हुए मुद्दों पर राज्यों को भी बातचीत में शामिल किया जाए।
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