संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लगातार देश का सबसे साफ राज्य इससे बेहतर भी कर सकता है, कम लागत, अधिक जनभागीदारी से...
20-Nov-2021 5:05 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लगातार देश का सबसे साफ राज्य इससे बेहतर भी कर सकता है, कम लागत, अधिक जनभागीदारी से...

छत्तीसगढ़ के भीतर रहने वाले लोगों को अपने शहरों में साफ-सफाई में चाहे थोड़ी कमी दिखती हो, लेकिन जब भारत सरकार ने देश के तमाम राज्यों की तुलना की, तो छत्तीसगढ़ को लगातार तीसरे साल देश के सबसे साफ-सुथरे राज्य का पुरस्कार मिला है। यह छोटी बात इसलिए नहीं है कि राज्य का इतिहास कुल 20 बरस पुराना है और अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा रहते हुए छत्तीसगढ़ हमेशा उपेक्षित रहते आया है। इसलिए जब यह राज्य बना यहां शहरों का बहुत काबिल ढांचा नहीं था। लेकिन ऐसे में इतने वर्षों में इसने जो तरक्की की है, वह देखने लायक है, और दक्षिण भारत के अपेक्षाकृत अधिक अनुशासन में रहने वाले राज्यों से भी मुकाबले में जब छत्तीसगढ़ को अधिक साफ-सुथरा पाया गया है, तो यह सचमुच तारीफ का हकदार है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की अगुवाई में नगरी प्रशासन मंत्री शिव डहेरिया और अफसरों ने राष्ट्रपति से आज सुबह यह पुरस्कार पाया है। छत्तीसगढ़ के लिए यह एक खुशी का मौका भी है, साथ में एक बड़ी चुनौती भी है। अगले बरस हो सकता है कि कोई और राज्य मेहनत करके छत्तीसगढ़ से आगे निकल जाए, और लगातार चौथे बरस यह पुरस्कार नहीं मिल पाए, इसलिए इस राज्य को न सिर्फ अपनी जगह पर काबिज रहने के लिए और अधिक मेहनत करने की जरूरत है, बल्कि एक दूसरी जरूरत भी है अपने आपको अपने से बेहतर बनाने की।

अब जब पुरस्कार और सम्मान की खुशियां पूरी हो जाएं, तो उसके बाद छत्तीसगढ़ को गंभीरता से यह भी सोचना चाहिए कि यह साफ-सफाई वह किस कीमत पर कर रहा है और क्या इस साफ-सफाई को कम खर्च पर किया जा सकता है? यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या इस साफ-सफाई में सिर्फ सरकारी अमला काम कर रहा है या फिर जनता की भी इसमें कोई भागीदारी है? आज छत्तीसगढ़ में दिक्कत यह लग रही है कि राज्य की संपन्नता की वजह से स्थानीय संस्थाएं साफ-सफाई पर खासा खर्च कर रही हैं और कुछ जगहों पर वार्ड के पार्षद भी निजी दिलचस्पी लेकर अपने साधन जुटाकर वार्ड को साफ रख रहे हैं, लेकिन प्रदेश में शायद ही कहीं जनता की भागीदारी अपने इलाके को, अपने शहर को साफ रखने में दिखाई पड़ती है। कुछ बरस पहले सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक सेमिनार में दक्षिण भारत की एक म्युनिसिपल ने एक प्रस्तुतीकरण किया था जिसमें उन्होंने बताया था कि वहां एक पैसा भी सफाई पर खर्च नहीं किया जाता, और यह जनता की जिम्मेदारी मानी जाती है कि वह निर्धारित जगह पर कचरा डाले, और कचरा इस तरह से अलग-अलग करके डाले कि उससे कमाई की जा सके। कचरे को उस म्युनिसिपल ने कमाई का जरिया बना लिया है। हिंदुस्तान का ही एक दूसरा शहर अगर ऐसा कर रहा है, तो कोई वजह नहीं है कि बाकी शहर उससे कोई सबक न ले सकें। वैसे भी सफाई की लागत को अगर छोड़ भी दें, तो भी पर्यावरण के हिसाब से जिस जगह कचरा पैदा होता है, उसी जगह पर उसकी छंटाई धरती को बचाने में मददगार रहती है। इसलिए छत्तीसगढ़ की स्थानीय संस्थाओं को अपने लोगों को जिम्मेदार बनाने का बीड़ा उठाना चाहिए और लोगों को उनके पैदा किए हुए कचरे की छंटाई और उसके निपटारे में जिम्मेदार भी बनाना चाहिए।

आज केंद्र सरकार और प्रदेशों का बहुत सा पैसा शहरों की सफाई पर लगता है। जैसे इंदौर शहर को देश का सबसे साफ सुथरा शहर होने का पुरस्कार लगातार पांच बरस से मिल रहा है, इस बरस भी मिला है। उस शहर में सफाई की लागत सैकड़ों करोड़ रुपए साल की है। अब यह लागत जनता को जिम्मेदार बनाने से बहुत हद तक घट सकती है। दूसरी बात यह कि जब जनता अपने घर और दुकान से ही कचरे को अलग-अलग करके भेजेगी, तो न सिर्फ म्युनिसिपल की सफाई लागत घटेगी बल्कि उस अलग-अलग कचरे के निपटारे से म्युनिसिपल की कमाई भी हो सकेगी। आज छत्तीसगढ़ में कचरे के निपटारे में जनता की भागीदारी शून्य है और स्थानीय संस्थाएं और कुछ चुनिंदा निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपने दम पर अपने इलाकों को साफ रखते हैं। सफाई के काम में लोगों को, गाडिय़ों को, और मशीनों को लगाकर इलाके को साफ कर देना खर्चीला होने के बावजूद आसानी से मुमकिन काम है। दूसरी तरफ जनता से इस काम को करवाना एक अलोकप्रिय काम भी हो सकता है, और उसके लिए अफसरों और पार्षदों को मेहनत भी अधिक करनी पड़ सकती है।

लेकिन पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार या स्थानीय सरकार को नहीं उठानी चाहिए, उसमें लोगों को भी शामिल करना चाहिए। इसके लिए किसी उच्च तकनीक की जरूरत नहीं पड़ती है, बल्कि घरों में अलग-अलग रंग की बाल्टियां रखकर उसमें अलग-अलग किस्म का कचरा जमा करके इस काम को आसानी से शुरू किया जा सकता है। एक बार जब यह कचरा एक साथ मिल जाता है तो फिर उसे अलग-अलग करना किसी भी कीमत पर मुमकिन नहीं होता। उसमें सडऩे लायक बायोडिग्रेडेबल सामान भी ठोस स्थाई कचरे के साथ मिल जाते हैं, और इन दोनों का कोई अलग-अलग इस्तेमाल नहीं हो पाता। शहरों में जहां पर कि कंक्रीट का कचरा लगातार निकलता ही है, वहां पर शहरों को यह कोशिश भी करनी चाहिए कि उसका चूरा बनाकर उसे भवन निर्माण या सडक़ निर्माण में दोबारा इस्तेमाल किया जाए ताकि रेत-मुरम-गिट्टी की जरूरत घटे। लेकिन यह काम बड़े-बड़े शहरों में भी शुरू नहीं हो पा रहा है, जबकि इसकी लागत इमारत मलबे से बने चूरे को बेचकर निकाली जा सकती है।

छत्तीसगढ़ दिल्ली से अभी इतने सारे पुरस्कार लेकर लौट रहा है। खुशी मनाने के बाद इस विभाग को बैठकर अपने म्युनिसिपलों के साथ ऐसे तमाम सुधार के लिए देश के कामयाब शहरों के जानकार और तजुर्बेकार लोगों को आमंत्रित करके उनसे सीखना चाहिए, और प्रदेश के शहरों को अगले वर्षों के लिए और अच्छा बनाकर मुकाबले में खड़ा रखना चाहिए। लोकतंत्र में वही व्यवस्था बेहतर रहती है जो कि जनभागीदारी से पूरी होती है।
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