संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नेकी की दीवार किसी कपड़े का अंत नहीं है, अंत तो दो सौ बरस दूर है, जरा सोचकर ही खरीदें !
06-Dec-2021 1:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  नेकी की दीवार किसी कपड़े का अंत नहीं है, अंत तो दो सौ बरस दूर है, जरा सोचकर ही खरीदें !

Getty Iamge

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दो-तीन जगहों पर पिछले कुछ वर्षों से लोगों के लिए ऐसी दीवारें बनाकर रखी गई हैं जिन्हें नेकी की दीवार का नाम दिया गया है और जहां पर लोग अपने पुराने कपड़े छोड़ सकते हैं, जिन्हें जरूरतमंद लोग ले जा सकते हैं। लेकिन यहां से गुजरते हुए जब-जब देखना होता है, तो दिखता यही है कि लोगों के छोड़े गए कपड़े भी पड़े-पड़े सडऩे लगते हैं, और उन्हें भी ले जाने वाले लोग नहीं हैं। या तो शहरों में इतने गरीब नहीं रह गए कि उन्हें फेंके गए कपड़े काम के लगते हों, फिर यह है कि शहरी लोग इतना कमा लेते हैं कि बाजार में मिलने वाले सस्ते या इस्तेमाल किए हुए कपड़ों को मर्जी और पसंद से खरीद लेते हैं, और छोड़े गए कपड़ों को लेने वाले लोग कम दिखते हैं। पड़े-पड़े कपड़े इतने बड़े-बड़े ग_े बन जाते हैं कि शायद उन्हें म्युनिसिपल उठाकर कचरे में डाल देता हो।

लेकिन यह बात भी है कि लोग जितने कपड़े नेकी की इन दीवारों पर ले जाकर छोड़ते हैं, उससे कहीं अधिक कपड़े अपने आसपास के काम करने वाले लोगों के बीच, या गरीब लोगों के बीच सीधे ही बांट देते हैं, और हिंदुस्तान में हर कपड़ा एक से अधिक बार शायद इस्तेमाल हो भी जाता होगा। लेकिन पूरी दुनिया का तजुर्बा देखें तो वह कपड़ों को लेकर बहुत खराब है। दुनिया का कपड़ा-उद्योग धरती पर पानी की बर्बादी में से 20 फीसदी का हिस्सेदार है। कपड़ा-उद्योग खूब सारा प्रदूषण फैलाता है, पानी में बहुत सारे रसायन डालता है, और इतने कपड़े बनाता है जिसके कि कोई ग्राहक नहीं हैं। एक दक्षिण अमेरिकी देश चिली को पूरी दुनिया का कपड़ों का घूरा माना जा रहा है और अभी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि वहां पर हर वर्ष 60 हजार टन से अधिक कपड़े ऐसे पहुंचते हैं जिन्हें कंपनियों ने बना लिया है, लेकिन जिनके ग्राहक नहीं मिले। इसके बाद चिली के लोग इन कपड़ों में से छांटकर कुछ तो खुद इस्तेमाल कर लेते हैं, और कुछ आसपास के देशों में बेचने के लिए मरम्मत करके तैयार कर लेते हैं। लेकिन वहां के एक रेगिस्तान में ऐसे कपड़ों का कबाड़ बढ़ते चल रहा है, और पर्यावरण वैज्ञानिकों का यह हिसाब है कि प्लास्टिक या दूसरे कई सामानों की तरह ऐसे कपड़े भी जल्द खत्म नहीं होते और ये कपड़े 200 बरस तक धरती पर बोझ बने रह सकते हैं। इनकी वजह से धरती में कई किस्म के रसायन मिलते हैं, और प्रदूषण फैलता है।

लोगों को यह भी मालूम है कि कपड़ों का कारोबार फैशन पर चलता है, और जरूरत तो बहुत थोड़ी सी रहती है लोग कपड़ों को फैशन की वजह से बदलते हैं। इश्तहारों से, और फिल्मी सितारों को तरह-तरह के कपड़े पहनाकर फैशन को जल्दी-जल्दी बदलाया जाता है, और कपड़ों के बाजार को बढ़ावा दिया जाता है। आज लोगों की जरूरत सीमित है लेकिन फैशन की चाहत असीमित है। ऐसी नौबत में एक बार फिर लोगों को अपने-अपने स्तर पर कपड़ों को बदल लेने और अधिक से अधिक खरीदने की अपनी चाह को काबू में करने की जरूरत है। और यह कोई नई बात नहीं है और माओ के वक्त चीन में गरीबी इतनी थी कि वहां एक ही किस्म के कोट और पैंट, औरत और मर्द सभी के लिए तय किए गए थे, जिनका एक ही रंग तय कर दिया गया था, और साइकिल पर जाते हुए मजदूर और कामगार एक फौज की तरह, एक ही किस्म के कपड़ों में दिखते थे। वह गरीबी का ऐसा दौर था कि वहां अगर फैशन का सिलसिला चलता तो लोगों पर भारी पड़ता, देश की अर्थव्यवस्था पर भरी पड़ता। दूसरी तरफ हिंदुस्तान में गांधी ने किफायत की एक मिसाल भी सामने रखी थी और वे खुद सामानों की कम से कम खपत करते थे। इसके साथ-साथ उन्होंने लोगों को जिंदगी में सादगी बरतने का रास्ता भी दिखाया था, और खुद उस पर चलकर दिखाया भी था कि कामयाब और महान बनने के लिए सामानों की जरूरत नहीं रहती है।एक जोड़ी चप्पल, दो जोड़ी आधी लंबाई की धोती, एक कमर घड़ी, एक चश्मा, और शायद एक कलम। बस इतने ही सामानों से गांधी ने अपनी बाद की पूरी जिंदगी गुजार ली थी। लेकिन आज दुनिया का कारोबार धरती को तबाह करने की कीमत पर भी कपड़ों, जूते-चप्पलों, और फैशन के दूसरे सामानों को इस कदर बढ़ावा दे रहा है, लोगों को इस कदर उकसा रहा है कि लोग अपनी अलमारियां भरते चले जा रहे हैं, और सामानों की उनकी चाह कम ही नहीं हो रही है।

यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है। जो लोग इंटरनेट पर सर्च कर सकते हैं उन्हें कपड़ा उद्योग का पर्यावरण पर बुरा असर जैसे शब्द सर्च करने चाहिए, और उन्हें डराने वाली जानकारियां दिखने लगेंगी। लेकिन दिक्कत यह है कि पूरी दुनिया में जो बड़े-बड़े फिल्मी सितारे हैं, बड़े-बड़े कलाकार, मॉडल, और खिलाड़ी हैं, वे सारे के सारे कपड़ों के इश्तहारों में जूते-चप्पलों को बेचने में लगे रहते हैं। अभी दो दिन पहले हिंदुस्तान के लोकप्रिय टीवी कार्यक्रम कौन बनेगा करोड़पति में उसके प्रस्तुतकर्ता अमिताभ बच्चन का परिवार मौजूद था। और अमिताभ के घर के लोग अमिताभ के कपड़ों के रंग और फैशन को लेकर चर्चा कर रहे थे जो कि पिछले 1000 एपिसोड में कभी ना दोहराए गए कपड़ों की बात थी। एक शाम के लिए एक जोड़ी अलग किस्म के कपड़े पहन-पहन कर कपड़ों के फैशन को बढ़ावा देना, ऐसा काम बहुत से फिल्मी सितारे करते हैं। लेकिन लोगों को याद रखना चाहिए कि आज दुनिया भविष्य के जिन सितारों की तरफ देख रही है उनमें से एक स्वीडन की एक छात्रा, और पर्यावरण आंदोलनकारी ग्रेटा थनबर्ग ने बरसों से कोई नए कपड़े नहीं खरीदे हैं और जरूरत पडऩे पर वह अपने आसपास के दोस्तों से कपड़े लेकर पहन लेती है, और बहुत जरूरी होता है तो ही वह बाजार से कोई सेकंड हैंड कहे जाने वाला पुराना कपड़ा खरीदती है।

धरती को तबाह होने से अगर बचाना है तो लोगों को अपनी खर्च करने की ताकत का बेजा इस्तेमाल बंद करना होगा, और किफायत बरतनी होगी। आज बहुत से लोग यह मानकर चलते हैं कि पर्यावरण को तबाह करने का काम सिर्फ कोयले और लोहे के कारखाने करते हैं, या कि जंगलों को काटने से ही पर्यावरण खत्म होता है। इस बात को लोग अपने से जोडक़र बिल्कुल नहीं देख पाते कि उनके अंधाधुंध कपड़े-जूते खरीदने से भी पर्यावरण खत्म हो रहा है क्योंकि एक जींस खरीदते हुए किसी को यह अंदाज नहीं होता कि उसे बनाने में 75 सौ लीटर पानी खर्च होता है। ऐसे आंकड़े न तो लोगों के सामने रखे जाते हैं, और न लोगों को खुद होकर ऐसा सूझता कि अपने इस्तेमाल किए जा रहे सामानों के पर्यावरण बोझ के बारे में कुछ सोचें क्योंकि ऐसा सोचने के बाद उन सामानों के इस्तेमाल का मजा भी घट जाएगा। लेकिन यह जरूरी है. अभी-अभी अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चिली के बारे में तस्वीरों सहित जो रिपोर्ट आई है, वह डरावनी है कि इस देश में हर वर्ष 60 हजार टन कपड़े पहुंच रहे हैं, जिसमें से कुल 20 हजार टन कपड़ों का इस्तेमाल हो रहा है, और बाकी की भीड़ वहां के रेगिस्तान पर अगले सैकड़ों बरस के लिए बोझ बनकर जुड़ती चली जा रही है।

पश्चिम के विकसित देश अपने पर्यावरण को बचाने के लिए अपनी सरहद के भीतर इस किस्म के कपड़े नहीं बनाते, उस पर पानी खर्च नहीं करते, और ऐसे अधिकतर कपड़े तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों में बंधुआ मजदूरों जैसी मजदूरी पर बनवाए जाते हैं, जिन पर वहां पर पानी खर्च होता है, जिनके रसायनों से वहां का पानी खराब होता है, और उस सस्ती मजदूरी से बने कपड़ों से अंतरराष्ट्रीय ब्रांड विकसित और सभ्य कही जाने वाली दुनिया में कारोबार करते हैं। इसलिए जब अगला कपड़ा खरीदें तो यह याद रखें कि आपका पुराना कपड़ा धरती पर बोझ बनने जा रहा है, और अगले सैकड़ों बरस के लिए यह बोझ रहने वाला है। यह अंदाज लगाना जरूरी है कि आज छोड़े गए कपड़े या जूते अगले 2 सौ बरस के लिए, यानी तकरीबन आठ-दस पीढिय़ों के लिए बोझ बनकर रहेंगे, पर्यावरण का नुकसान बनकर रहेंगे। इसलिए आज फैशन की चाह लोगों की अगली आठ-दस पीढिय़ों के भविष्य को नुकसान पहुंचाने वाली रहेगी। आज कुछ सामान खरीदते हुए महज यह सोचना जरूरी नहीं है कि उसे खरीद पाना आपके लिए मुमकिन है या नहीं, यह सोचना भी जरूरी है कि क्या आज सचमुच उसकी जरूरत है, और क्या उसका निपटारा अपने जीते-जी देख भी पाएंगे?
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