संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नफरत ने लोगों को जोडक़र इस हद तक एक कर दिया है
22-Dec-2021 6:00 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  नफरत ने लोगों को जोडक़र इस हद तक एक कर दिया है

उत्तराखंड के चंपावत जिले में एक स्कूल के सवर्ण बच्चे पिछले एक हफ्ते से स्कूल में दोपहर का खाना नहीं खा रहे हैं क्योंकि वह एक दलित महिला द्वारा बनाया जा रहा है। इन बच्चों ने पहले दिन तो बिना किसी विवाद के इस महिला का पकाया हुआ खाना खा लिया था, लेकिन अगले दिन से सवर्ण बच्चे घरों से अपना टिफिन लेकर आने लगे और इस दलित भोजनमाता का बनाया हुआ खाना खाने से मना कर दिया। इस सरकारी इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल का कहना है कि 57 छात्र-छात्राओं में से कुल 17 वहां खा रहे हैं जो कि दलित समुदाय के हैं, बाकी ने खाना बंद कर दिया है। जबकि खाना पकाने के लिए दलित महिला की नियुक्ति एक कमेटी ने की थी जिसमें स्कूल मैनेजमेंट के लोग भी थे और पालक शिक्षक संघ के लोग भी थे। उत्तराखंड में ऊंची कक्षाओं वाली स्कूल को इंटर कॉलेज भी कहा जाता है और दलित महिला के पकाए खाने को खाने के बजाय यहां के सवर्ण छात्र-छात्रा घर से खाना लेकर आ रहे हैं।

यह तो मामला है स्कूल का, जहां पर छात्र-छात्राओं के सवर्ण मां-बाप एक दलित महिला को खाना पकाने पर रखने के खिलाफ बात कर रहे हैं और जाहिर है कि उनके कहे हुए ही उनके बच्चे घर से टिफिन लेकर आ रहे हैं। लेकिन एक दूसरी खबर को इसके साथ जोडक़र देखने की जरूरत है। अभी मध्य प्रदेश के एक प्रमुख राजनीतिक कार्यकर्ता बादल सरोज ने फेसबुक पर एक वीडियो पोस्ट किया है जिसमें कोई एक हिंदू प्रवचनकर्ता भगवे कपड़ों में धर्म की बहुत सी बातों को कर रहा है और साथ-साथ उनसे अधिक बातें मुस्लिमों के खिलाफ घोर सांप्रदायिक और नफरत फैलाने वाली कर रहा है। किसी भी सेहतमंद दिमाग वाले के लिए इतनी नफरत की बातें सुनना मुश्किल है लेकिन इस नफरतजीवी के सामने बैठे भक्तजन तालियां बजा रहे हैं और इस भीड़ में बैठे हुए छोटे-छोटे बच्चे नफरत की बातों पर हाथ जोडक़र तालियां बजाते दिख रहे हैं। जाहिर है कि अपने परिवार के बड़े लोगों के साथ वहां पहुंचे हुए ऐसे छोटे बच्चे पांच-दस बरस की उम्र से ही नफरत की ऐसी हिंसक बातों को सुन रहे हैं कि मुस्लिमों के खिलाफ क्या-क्या किया जाना चाहिए।

इन दो बातों को अगर मिलाकर देखें तो ऐसा लगता है कि हिंदुस्तान में नफरत पर जीने वाले लोग न केवल आज की हवा को जहरीली करने के खतरों से बेफिक्र हैं बल्कि वे अपनी आने वाली पीढिय़ों को भी एक जहरीली हवा देकर जाना चाह रहे हैं। उनके लिए हिंदुस्तान का संविधान, इसकी बुनियादी बातें, इंसानियत की बुनियादी बातें, कोई मायने नहीं रखतीं, वे सिर्फ नफरत पर जी रहे हैं और नफरत को ही बढ़ाते चलना चाहते हैं। जिस तरह तिल का लड्डू बनाने के लिए गुड़ की चाशनी तिलों को जोडऩे का काम करती है उसी तरह हिंदुस्तान में नफरत धार्मिक हिंसा, जातिवादी हिंसा के नाम पर लोगों को बहुत तेजी से एक कर लेती है, उन्हें जोडक़र एक लड्डू के दानों की तरह मजबूत बना देती है। चारों तरफ आज लोग आने वाली पीढ़ी के भविष्य से बेफिक्र, आज ही हिंदुस्तान को इतनी खतरनाक जगह बनाने पर आमादा हैं कि जिसकी कोई हद नहीं। ऐसे लोगों के लिए कोई धार्मिक प्रवचन हो या यह स्कूल का खाना हो या ट्रेन और बस में बैठ कर बातें करना हो, हर जगह नफरत इनकी पहली प्राथमिकता रहती है। फिर ऐसा भी नहीं है कि लगातार हिंसक नफरत की बातें करने वाले समाज में सिर्फ तनाव खड़ा करके उतना ही नुकसान करते हैं। लगातार ऐसी हिंसा और नफरत सोचने वाले लोग अपने दिल-दिमाग पर भी इसका असर पाते हैं और उनका खुद का कामकाज भी इससे बहुत बुरी तरह प्रभावित होता है। उनके परिवार और आस पड़ोस में, काम की जगह पर जो लोग उनके प्रभाव में रहते हैं उन तक भी ऐसी हिंसक नफरत फैलती है और फिर यही हिंसक नफरत लहरों की तरह दौड़-दौडक़र वापस उन तक आती हैं।

समाज में जो सामाजिक और राजनीतिक चेतना रहनी चाहिए, मानवीय मूल्यों की जो समझ लेनी चाहिए, जो दूसरों के अधिकारों और अपनी जिम्मेदारी के प्रति सम्मान रहना चाहिए, वह सब बहुत रफ्तार से खत्म हो चला है। लोगों को सच से एलर्जी हो गई है और समझदारी की बातों से परहेज हो गया है। देश की हवा ऐसी घोर सांप्रदायिक और हिंसक हो गई है कि जिसकी कोई हद नहीं। सवाल यह है कि जो लोग ऐसी नफरत के हिमायती नहीं हैं वे लोग चुप हैं, और जो लोग नफरत के वकील हैं वे झंडे-डंडे लेकर सडक़ों पर हैं। जहां भलमनसाहत घर के भीतर आरामकुर्सी पर हाथ टिकाए महफूज रहती है वहां नफरत सडक़ों पर राज करती है। इसे हमने जगह-जगह देखा है और यह हिंसा मिजाज में ऐसे बैठ जाती है कि वह फिर अपने धर्म की रक्षा के नाम पर, किसी शक के आधार पर, किसी की भी सामूहिक हत्या कर लेती है और उसे अपने धर्म को बचाने का नाम दे देती है।

कहीं पर गाय को बचाने के नाम पर ऐसी हत्याएं हो रही हैं, तो कहीं पर किसी हिंदू-मुस्लिम लडक़े-लडक़ी को मिलने से रोकने के लिए ऐसी हत्याएं हो रही हैं। धर्म और जाति के नाम पर फैलाई जा रही नफरत मासूम नहीं है, यह वोटों की राजनीति करने के लिए, चुनाव जीतने के लिए सोच समझकर साजिशन फैलाई जा रही है। इसके खतरों को समझना जरूरी है। समाज में जो जिम्मेदार लोग हैं उनको मुंह खोलना होगा, उनको ऐसे मामलों में सामने आना होगा। आज जो लोग अपने बच्चों को एक दलित महिला के पकाए हुए खाने को खाने से रोक रहे हैं, वे उन बच्चों की पूरी पीढ़ी को एक जातिवादी नफरत में झोंक रहे हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए आज देश का कानून इसे खत्म करने की ताकत रखता है, लेकिन उस ताकत के इस्तेमाल की राजनीतिक इच्छाशक्ति तो उन लोगों के पास जरूरी है जो कि सरकार हांकते हैं।
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