संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हिजाब के नाम पर साम्प्रदायिकता भडक़ाना अच्छी तरह दर्ज हो रहा है हिंदुस्तान के इतिहास में...
05-Feb-2022 4:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  हिजाब के नाम पर साम्प्रदायिकता भडक़ाना अच्छी तरह दर्ज हो रहा है हिंदुस्तान के इतिहास में...

कर्नाटक के एक जूनियर कॉलेज में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने के खिलाफ खड़े किए गए बवाल की आग अब वहां के दूसरे जिलों में भी फैल रही है। पूरी तरह से सांप्रदायिक सोच से उपजे हुए इस प्रतिबंध को बढ़ावा देने के लिए अब वहां की सांप्रदायिक ताकतें हिंदू छात्र-छात्राओं को भगवा शाल-दुपट्टे पहनाकर स्कूल-कॉलेज भेज रही हैं ताकि स्कूल की पोशाक का सांप्रदायिककरण किया जा सके। मुस्लिम छात्रों पर यह मामला सरकार के यूनिफार्म नियमों के हवाले से लादा जा रहा है और हिजाब लगाई हुई मुस्लिम लड़कियों को स्कूल-कॉलेज आने से रोका जा रहा है। इस रोक के खिलाफ कर्नाटक हाईकोर्ट में अपील की गई है लेकिन तब तक हिजाब, और हिजाब के मुकाबले भगवे दुपट्टे को खड़ा कर दिया गया है, और घोर सांप्रदायिक संगठन पूरी तरह सक्रिय हो गए हैं। हिंदुस्तान में जो ताजा धर्मांधता चारों तरफ फैलाई जा रही है यह उसी का एक विस्तार है और यह आग पता नहीं कहां तक पहुंचेगी। यह भी हो सकता है कि कर्नाटक में इम्तिहान के महीने भर पहले मुस्लिम छात्राओं पर लगाई गई यह रोग महज कर्नाटक के हिसाब से न हो और यह उत्तर प्रदेश के चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण का एक और हथियार हो। कर्नाटक की भाजपा सरकार पूरी ताकत के साथ मुस्लिम छात्राओं के हिजाब के खिलाफ लगी हुई है, और तो और हिंदू छात्रों को इसके खिलाफ स्कूल-कॉलेज के अहातों में सांप्रदायिक मोर्चे पर झोंक दिया गया है।

हिंदुस्तान में छात्र-छात्राओं के धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल का मामला कोई नया नहीं है। हिंदू छात्र अपनी पसंद से बालों के पीछे अपनी एक चुटिया रख सकते हैं जिस पर कोई रोक नहीं लगी है, हिंदू लड़कियां चूड़ी पहन सकती हैं, या बिंदी लगा सकती हैं, और सिख छात्र पगड़ी पहन कर जाते हैं, कड़ा पहनते हैं, प्रतीकात्मक कटार टांगते हैं। इनमें से किसी पर कोई रोक नहीं है। लेकिन अब अचानक मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पर रोक लगाकर उन्हें पढ़ाई से दूर कर देना एक बहुत ही असंवैधानिक काम है और यह मामला हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जाकर सरकार के लिए फटकार लेकर आएगा। धार्मिक प्रतीकों को लेकर कोई भी जिम्मेदार लोकतंत्र सम्मान का नजरिया इस्तेमाल करते हैं। पश्चिम के बड़े-बड़े विकसित देश और ऑस्ट्रेलिया तक सिख नागरिकों को हेलमेट लगाने से छूट मिलती है जो कि वहां के सुरक्षा नियमों के हिसाब से बहुत ही अजीब बात है, इसके बावजूद वहां नियम कानून में तरह-तरह के फेरबदल करके यह छूट दी गई है। सिखों को प्रतीक के रूप में अपनी कटार टांगने की छूट भी मिली हुई है। हिंदुस्तान में ही सरकारी दफ्तरों में सरकारी गाडिय़ों में, और थानों में जगह-जगह हिंदू धर्म के प्रतीक दिखते ही हैं। तमाम स्कूल-कॉलेजों में आज बसंत पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा हो रही है। तमाम सरकारी संस्थानों में जहां कहीं तिजोरी रहती है, या नकद रकम रखने के कैशबॉक्स रहते हैं, बहीखाता या कैश रजिस्टर रहता है, वहां पर दिवाली पर लक्ष्मी पूजा होती ही है। जितने कल-कारखाने होते हैं उनमें विश्वकर्मा पूजा होती ही है। देशभर में पुलिस और दूसरे सुरक्षा बलों में दशहरे पर हिन्दू रिवाजों से शस्त्र पूजा होती है और अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग धर्मों के नेता और अफसर उनमें बैठते हैं। इसी तरह जहां कहीं कोई भूमि पूजन होता है तो हिंदू धर्म की परंपराओं के अनुसार वहां पर पूजा होती है और चाहे किसी धर्म के हों, नेता और अफसर वहां बैठकर हिंदू रीति रिवाज से पूजा करते हैं।

यह देश सांस्कृतिक विविधताओं से भरा हुआ देश है, लेकिन यह देश उदारता से आगे बढ़ा हुआ, उदारता पर टिका हुआ देश भी है। हिंदुस्तान में ऐसी कट्टरता कभी नहीं थी कि किसी दूसरे धर्म के प्रतीकों को कुचला जाए, उनको खारिज किया जाए, जिससे कि किसी भी किसी दूसरे धर्म को कोई नुकसान भी नहीं हो रहा है. आज हिजाब के खिलाफ यह बवाल खड़ा किया जा रहा है क्योंकि देश में एक माहौल बनाया जा रहा है कि मुस्लिमों का विरोध हो। लेकिन किसी ने यह सोचा है कि अगर सारे धार्मिक प्रतीकों को सार्वजनिक जीवन से हटा ही देना है, तो बाकी धर्मों के लोगों के कौन-कौन से धार्मिक प्रतीकों को हटाना होगा? किसी धर्म की चुटिया, किसी धर्म की पगड़ी, किसी धर्म का कड़ा, और किसी दूसरे धर्म का कोई और प्रतीक, किस-किसको हटाया जाएगा?  हिंदुस्तान के भीतर यह किस तरह लोगों को जोडऩे का काम चल रहा है कि अलग-अलग तबकों को तोड़ दिया जा रहा है? आज मुस्लिम समाज में पर्दे की प्रथा अच्छी है या नहीं है, उस समाज के लोगों के सोचने की भी बात है। लेकिन जब तक उस समाज में कोई बेहतर फैसला नहीं होता है, तब तक अगर हिजाब रोकने के नाम पर मुस्लिम लड़कियों की पढ़ाई को रोक दिया जाएगा तो यह हिंदुस्तान के संविधान को कुचलने का काम होगा। हमारा ख्याल है कि कर्नाटक की जो सरकारी और राजनीतिक ताकतें सांप्रदायिक संगठनों को सक्रिय करके ऐसा बवाल खड़ा कर रही हैं उनके आकाओं को भी यह बात अच्छी तरह मालूम है कि अदालतों में यह मामला नहीं टिक पाएगा, फिर भी हिंदुओं के बीच एक सांप्रदायिकता बढ़ाने के लिए और सांप्रदायिक हिंदुओं को खुश करने के लिए यह बखेड़ा खड़ा किया गया है जिसका स्कूल की पोशाक से कोई लेना-देना नहीं है। आज दुनिया के किसी दूसरे देश में भी तमाम धार्मिक प्रतीकों को खारिज कर देने का काम नहीं हो पाया है।

कल के दिन क्या यह हो सकेगा कि राजस्थान में घूंघट डाली हुई महिलाओं को अस्पताल जाने ना मिले, सरकारी दफ्तर जाने ना मिले, या मतदान केंद्र में घुसने ना मिले? वहां तो बहुत सी महिलाएं बिना घूंघट अपने ही घर के दूसरे कमरों में नहीं जातीं, उन पर किस तरह से इसे थोपा जा सकेगा? हम अपनी निजी सोच के मुताबिक तो इस बात के हिमायती हैं कि सार्वजनिक जीवन से सारे ही धार्मिक प्रतीकों को हटा दिया जाए। लेकिन क्या देश-प्रदेश चलाने वाले मंत्री-मुख्यमंत्री अपनी धार्मिक पोशाकों को हटाने के लिए तैयार होंगे? क्या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हिंदू धर्म की प्रतीक अपनी पोशाक, भगवा कपड़ों को हटाने के लिए तैयार होंगे? अगर यह देश ऐसे क्रांतिकारी बदलाव के लिए तैयार है, तब तो हिजाब को भी हटा देना चाहिए, और बाकी तमाम धर्मों के तमाम प्रतीकों को भी सार्वजनिक जीवन से हटा देना चाहिए। लेकिन छांट-छांटकर मुस्लिम लोगों पर ऐसे हमले करना यह कर्नाटक की भाजपा सरकार और दूसरी जगहों पर भी दूसरे कई प्रदेशों की ऐसी सरकारों की बदनीयत बताती है.

इस मामले में अदालतों को तेजी से सुनवाई करना चाहिए क्योंकि देश के भीतर एक तबके के खिलाफ दूसरे तबके में नफरत फैलाने का यह सिलसिला खत्म करने की जरूरत है। आज कर्नाटक में मुस्लिम लड़कियों की परंपरागत धार्मिक पोशाक के मुकाबले स्कूल के बच्चों को सांप्रदायिकता के मोर्चे पर खड़ा कर दिया गया है जो कि एक जुर्म है। कर्नाटक हाईकोर्ट को बिना देर किए इस सांप्रदायिक हिंसा को खत्म करना चाहिए लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्नाटक में सांप्रदायिक दंगों का एक पुराना इतिहास रहा हुआ है जिसमें से एक दंगे में मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए उमा भारती का नाम भी जुड़ा था जिन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। एक तरफ तो कर्नाटक प्रदेश का बेंगलुरु देश में सूचना तकनीक का सबसे विकसित केंद्र होने का दावा करता है, दूसरी तरफ वह वहां के समाज को पत्थर युग में ले जाने की कोशिश भी करता है। कर्नाटक की राजधानी सांप्रदायिक संगठनों की अति सक्रियता के लिए पहले से बदनाम है, यह सबसे विकसित और आधुनिक शहर पहले भी लड़कियों के खिलाफ, अल्पसंख्यकों के खिलाफ, और उत्तर-पूर्व के लोगों के खिलाफ तरह-तरह की हिंसा देख चुका है। हम बिना देर किए इस तजा मामले के एक संवैधानिक निपटारे की मांग करते हैं, और जिन लोगों ने इसे भडक़ाने की कोशिश की है उनको सजा भी होनी चाहिए।
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