संपादकीय
भारत में पिछले कुछ महीनों से एक नए किस्म का कारोबार जोर पकड़ रहा है जिसे क्विक कॉमर्स कहते हैं, मतलब यह कि सामान की तुरंत बिक्री-डिलीवरी। कुछ ऐसी कंपनियों ने काम शुरू किया है जो 10 से 15 मिनट में किराने का सामान घर पर पहुंचाने का दावा करती हैं, और यह बाजार पूरे हिंदुस्तान में बहुत बड़ा है। जिन आंकड़ों का कोई अधिक मतलब हम नहीं समझते हैं उन आंकड़ों के मुताबिक हिंदुस्तान में किराना बाजार करीब 600 अरब डॉलर का है, और मोबाइल फोन पर किए गए ऑर्डर से 10-15 मिनट में घर पर सामान पहुंचाने वाली क्विक कॉमर्स कंपनियों का कारोबार 2025 तक 15 गुना बढक़र 5.5 बिलियन डॉलर होने की एक रिपोर्ट आई है। इन आंकड़ों से आम लोग कोई अधिक अंदाज नहीं लगा सकते, लेकिन बाजार के जो तौर-तरीके बदल रहे हैं उन्हें लेकर हम अपने आसपास के मोहल्ले और कॉलोनी के छोटे-छोटे किराना दुकानदारों की जिंदगी बदल जाने, या अधिक सही यह कहना होगा कि तबाह हो जाने की तस्वीर का अंदाज जरूर लगा सकते हैं।
हिंदुस्तान के बड़े और मंझले आकार के शहरों में पहले से ही बड़े-बड़े सुपर बाजार खुले हैं, जहां से लोग कुछ रियायती दाम पर महीने भर का सामान एक साथ ले आते हैं और पड़ोस की किराना दुकान का काम वैसे भी पिछले वर्षों में तेजी से घटते गया है। अब उन बड़े बाजारों के मुकाबले भी 10 मिनट में घर पर सामान पहुंचाने वाली इन क्विक कॉमर्स कंपनियों के बीच भी कड़ा मुकाबला चल रहा है, और ऐसी खबरें हैं कि रिलायंस और अमेजॉन जैसी कुछ सबसे बड़ी कंपनियां भी सुपर बाजार के बाद अब इस धंधे में भी उतरना चाह रही हैं. एक ग्राहक के लिए यह बड़ी तसल्ली की बात हो सकती है कि आधा किलो नमक का उसका पैकेट अंबानी की कंपनी से घर पर पहुंचा है। जंगल की आग की रफ्तार से यह कारोबार तो आगे बढ़ सकता है, क्या इस रफ्तार से आज के किराना व्यापारी अपने लिए किसी नए काम-धंधे की सोच सकते हैं?
यह तस्वीर बहुत भयानक है। बहुत से किराना व्यापारी तो दूसरी और तीसरी पीढ़ी के भी हैं जो उसी जगह पर काम करते आए हैं, और जो मोहल्ले के लोगों का हिसाब एक कॉपी में दर्ज करके उन्हें सामान देते रहते हैं और फिर महीने में उसका भुगतान पाते हैं। लेकिन उनके लिए भी यह मुमकिन नहीं होगा कि वह ऐसा मोबाइल एप्लीकेशन बनाएं और लोगों को घर तक सामान पहुंचाएं। अगर मान लीजिए ऐसा हो भी जाता है, तो भी उनके लिए यह मुश्किल होगा इस धंधे में उतरी हुई बड़ी कंपनियों जितना स्टॉक रख सकें और अलग-अलग सामान ग्राहक के लिए मोबाइल ऐप पर पेश कर सकें। तो ऐसे में हिंदुस्तान के करोड़ों मोहल्ला दुकानदारों के सामने एक बड़ा खतरा खड़ा हुआ दिखता है जिससे निपटने के लिए उन्हें तैयारी करनी होगी ।
ऐसा भी नहीं है कि यह नौबत पहली बार आ रही है। लोगों को याद होगा कि जब एसटीडी पीसीओ चलते थे और लोग वहां जाकर दूसरे शहरों में फोन लगाते थे तो हर चौराहों के आसपास ऐसे पीसीओ दिखते थे और इनमें दो-दो तीन-तीन लोगों को काम भी मिल जाता था, कम तनख्वाह का काम, लेकिन रोजगार तो रोजगार ही रहता है। मोबाइल फोन आया और रातों-रात ये सारे पीसीओ बंद होने लगे। लेकिन दूसरी तरफ मोबाइल फोन की बिक्री, उससे जुड़े हुए दूसरे सामानों की बिक्री, और उसकी मरम्मत जैसे काम के लिए, मोबाइल कंपनियों के सिम कार्ड बेचने के लिए इन्हीं या ऐसी ही जगहों पर यही लोग या कुछ दूसरे लोगों को कारोबार और रोजगार मिल गया। कुछ बरस के भीतर ही जितने एसटीडी पीसीओ थे, उससे 10 गुना अधिक मोबाइल और सिम कार्ड की दुकानें खुल गईं। नौकरियां खत्म नहीं हुई, उनकी शक्ल बदल गई, कारोबार भी पूरी तरह से तबाह नहीं हुए, लोगों को दूसरे कारोबार करना पड़ा। यहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन अब जब छोटे-छोटे से काम में दुनिया की सबसे बड़ी-बड़ी कंपनियां उतर रही हैं और वे बाजार के मुकाबले में पहले ग्राहकों को अंधाधुंध सहूलियतें और रियायतें देने जा रही हैं, तो हिंदुस्तान की आज की उदार अर्थव्यवस्था को यह भी सोचना पड़ेगा कि क्या सचमुच यह देश इतने अधिक कारोबारी बदलाव के लिए तैयार है? या फिर छोटे छोटे दुकानदारों का धंधा छीनकर बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों या हिंदुस्तान के सबसे बड़े कारोबारियों की जेब में चले जाए तो उससे हिंदुस्तान की सरकार के जीडीपी पर कोई फर्क नहीं पड़ता?
ग्राहकों की जरूरतें तो बनी रहेंगी और मोबाइल फोन पर एक बार छूकर सामान बुलाने की सहूलियत उनकी खरीदारी को बढ़ाएगी ही, इसलिए सरकार को तो असंगठित छोटे कारोबारियों के मुकाबले संगठित बड़े कारोबारियों से मिलने वाला टैक्स कहीं भी कम नहीं होगा और देश की अर्थव्यवस्था के कुल जमा आंकड़ों में बहुत नुकसान नहीं दिखेगा, और हो सकता है कि उसमें बढ़ोतरी भी दिखे। लेकिन दिक्कत यह रहेगी कि बहुत से छोटे-छोटे कारोबार तबाह होंगे और जो लोग पहले से खरबपति हैं उनका कारोबार बढ़ेगा। अब हिंदुस्तान में सरकारों का जो नजरिया रहने वाला है, उसके मुताबिक छोटे लोगों की नौकरियां जाने और छोटे लोगों के कारोबार खत्म होने से दिल्ली की नींद खराब नहीं होती, और दिल्ली के चेहरे पर शिकन भी नहीं पड़ती क्योंकि जीएसटी के आंकड़े चाहे कहीं से आकर बनते हैं, केंद्र सरकार को ऐसे तमाम आंकड़ों को एक साथ देखने की जरूरत ही होती है। लोगों को याद होगा कि चुनाव से गुजरते हुए दौर में भी उत्तर प्रदेश में एक छोटे कारोबारी ने जो कि भाजपा समर्थक था और भाजपा नेताओं के लिए होर्डिंग लगवाते जिसकी तस्वीरें भी छपी थीं, उसने केंद्र सरकार की टैक्स नीति से थककर, भारी नुकसान झेलकर, फेसबुक लाइव के दौरान बीवी सहित आत्महत्या कर ली थी. उसके पहले उसने सरकार की नीतियों से उसे होने वाली तकलीफ के बारे में बयान भी दिया था।
हम उम्मीद करते हैं कि हिंदुस्तान के छोटे कारोबारी ऐसा कुछ करने के बजाय दूसरा रास्ता ढूंढ लेंगे कि वे जिंदा कैसे रह सकते हैं। लेकिन क्या हिंदुस्तान में कोई ऐसी सरकार भी हो सकती है जो यह देखें कि मोहल्ला स्तर के जो छोटे-छोटे से कारोबार हैं उन पर कब्जा करने के लिए हमलावर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की कंपनियों को इससे अलग रखा जाए? ऐसा दिखता तो नहीं है क्योंकि यह सरकार निजी कारोबारियों की हिमायती तो है ही, विदेशी पूंजी निवेश के लिए भी लाल कालीन बिछा कर बाहें फैलाए हुए खड़ी है, और स्वदेशी तो मानो एक अवांछित सा शब्द हो गया है क्योंकि अब तो हथियार बनाने के लिए भी विदेशी पूंजी निवेश का स्वागत है। हो सकता है कि दुनिया के तौर-तरीके अब ऐसे हो गए हैं कि कोई भी देश बहुत लंबे समय तक छोटे कारोबारियों को बचा न सके, लेकिन यह नौबत देश के करोड़ों लोगों के लिए बहुत खतरनाक है और कोई हैरानी की बात नहीं है कि बहुत से छोटे किराना व्यापारी ऐसी बड़ी कंपनियों के सामान पहुंचाने की नौकरी करने को मजबूर हो जाएं, उनका जीना मुश्किल हो जाए। व्यापार को इस बारे में चर्चा करनी चाहिए और खासकर व्यापारियों के जो संगठन हैं, उनको दुनिया की बड़ी कंपनियों से जो खतरा है उस पर बात करनी चाहिए।