संपादकीय
तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’
पाकिस्तान सरहद के करीब हिन्दुस्तान के अमृतसर में बीएसएफ के मुख्यालय में एक जवान ने अपने साथियों पर गोलियां चला दीं जिनमें चार लोग मारे गए, और बाद में इसी गोलीबारी में वह जवान खुद की या किसी और की गोली से मारा गया। सशस्त्र बलों के बीच हिन्दुस्तान में हर बरस ऐसी कई वारदातें होती हैं, और ऐसी तनावपूर्ण हिंसा का निशाना साथी ही बनते हैं। हर बरस छत्तीसगढ़ के बस्तर के नक्सल मोर्चे पर तैनात सशस्त्र बलों के बीच ऐसी हिंसा सामने आती है, और जांच के बाद जिंदा बचे हमलावर पर शायद कोई कार्रवाई होती हो, लेकिन यह बात सामने नहीं आती कि अपने जवानों में हिंसा की इस हद तक ले जाने वाले तनाव का क्या समाधान सुरक्षा बल निकालते हैं। हर बार यह बात तो मंजूर कर ली जाती है कि गोलियां चलाने वाला जवान तनाव में था, यह भी होता है कि साथी जवान खिल्ली उड़ाते हैं जिससे भडक़कर कोई जवान गोलियां चला देता है। बहुत से मामले लगातार मुश्किल ड्यूटी से थके हुए जवानों की हिंसा के रहते हैं, और कई मामलों में घर जाने की छुट्टी न मिलने पर अपने से सीनियर से हुए तनाव के बाद जवान ऐसे हमलावर हो जाते हैं।
हिन्दुस्तान के न सिर्फ सशस्त्र सुरक्षा बलों में, बल्कि राज्यों की पुलिस में भी जवानों से नाजायज मुश्किल ड्यूटी ली जाती है, न आराम का वक्त दिया जाता, न सम्मान का काम दिया जाता। नतीजा यह होता है कि इनके भीतर तनाव बढ़ते चलता है। वक्त-जरूरत परिवार के पास न जा पाना तनाव की एक वजह रहती है, लेकिन दूसरी वजह यह भी रहती है कि परिवार की उपेक्षा होते चलने से वहां दिक्कतें खड़ी होती हैं, और फोन पर उसकी जानकारी और तनाव खड़ा करती है। लोगों को याद होगा कि पिछली भाजपा सरकार के समय से छत्तीसगढ़ में पुलिस जवान और उनके परिवार साप्ताहिक छुट्टी की मांग कर रहे थे, और पुलिस परिवारों ने इसे लेकर प्रदर्शन भी किया था। वह आंदोलन अभी तक जारी है, और कुछ हफ्ते पहले उसमें लगे हुए लोगों पर बड़े संगीन जुर्म दर्ज किए गए हैं। जुर्म दर्ज करना तो सरकार के हाथ में होता है लेकिन कर्मचारियों की जायज मांगों को पूरा कर पाना उसके मुकाबले बड़ा अधिक मुश्किल काम रहता है।
सत्ता पर बैठे हुए जो लोग हथियारबंद जवानों में फैले हुए तनाव को लेकर कोई फिक्र जरूरी नहीं समझते, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि नेताओं की हिफाजत में भी यही लोग लगे रहते हैं, और किसी दिन उनकी बेकाबू हिंसा का निशाना कोई सत्तारूढ़ नेता भी बन सकते हैं। इसलिए और किसी वजह से न सही तो कम से कम अपनी हिफाजत के लिए नेताओं को सुरक्षा बलों और पुलिस के तनाव दूर करने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। सुरक्षाकर्मी और पुलिस इसी देश के नागरिक रहते हैं, और अपनी-अपनी सरकारों, या अपने अफसरों-नेताओं के भ्रष्टाचार के किस्से भी पढ़ते रहते हैं। इसलिए उनके मन में इस बात को लेकर भी रंज रहता है कि उन्हें भ्रष्ट लोगों के मातहत, उनके लिए काम करना होता है। ऐसे में उनसे अतिरिक्त निष्ठा की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। बड़े अफसरों के बंगलों पर बच्चों से लेकर कुत्तों तक को खिलाने के लिए मातहत कर्मचारियों का बेजा इस्तेमाल हिन्दुस्तान में हर कहीं देखने मिलता है। ऐसी बंगला-ड्यूटी के खिलाफ भी सरकारों को सोचना चाहिए क्योंकि घरेलू नौकरों के करने वाले काम पर जब बहुत अधिक तनख्वाह वाले पुलिस और सुरक्षा कर्मचारियों को झोंक दिया जाता है तो यह बात उनके मनोबल को भी तोड़ती है, और सरकार के खर्च की बड़ी बर्बादी होती है।
आज का वक्त हर मोबाइल फोन पर वीडियो-कैमरे का है, और लोगों को चाहिए कि जहां कहीं किसी नेता-अफसर के घर कर्मचारियों का ऐसा इस्तेमाल होता है, उसकी रिकॉर्डिंग करके उसे उजागर करना चाहिए। साथ ही जनसंगठनों को या ऐसे जवानों के परिवारों को जनहित याचिका लेकर अदालत भी जाना चाहिए ताकि वर्दीधारी जवानों से स्तरहीन निजी काम करवाना बंद हो सके।
आज की बात जहां से शुरू हुई थी उस पर अगर लौटें तो सशस्त्र बलों को अपने जवानों को छुट्टी देने और उनके परिवार का ख्याल रखने के बारे में सोचना चाहिए। परिवार से बहुत लंबे समय तक दूर रहने वाले जवानों का तनाव बहुत बढ़ा हुआ रहता है, और हिंसा की खबरों से नीचे भी यह तनाव कई अलग-अलग स्तरों पर रहता है जिससे जवानों को निजी नुकसान भी होता है, और ऐसी फोर्स भी कमजोर होती है। यह बात अक्सर उठती है कि जवानों में तनाव घटाने के लिए सशस्त्र बलों में परामर्शदाता या मनोचिकित्सक रखे जाएं, लेकिन शायद वैसा हो नहीं पाता है क्योंकि मनोचिकित्सकों की देश में भारी कमी है। फिर भी जहां हथियारबंद रहना ही काम का हिस्सा हो, वहां पर लोगों का तनावग्रस्त रहना सभी के लिए जानलेवा हो सकता है। बिना देर किए इस नौबत को सुधारना चाहिए।
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