संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ऐतिहासिक नाकामयाबी से कांग्रेस के सामने पेश हुई ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी..
11-Mar-2022 5:01 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  ऐतिहासिक नाकामयाबी से कांग्रेस के सामने पेश हुई ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी..

पांच राज्यों के चुनावी नतीजे आ जाने के बाद आज हिन्दुस्तान में सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा हुआ है कि अब कांग्रेस पार्टी का क्या होगा। जो लोग कांग्रेस पार्टी के शुभचिंतक हैं वे भी यह सोचने में लगे हैं कि कांग्रेस पार्टी को क्या करना चाहिए? इन दोनों का सवालों का जवाब आसान नहीं है। लोगों को याद रखना चाहिए कि कुछ दशक पहले भाजपा लोकसभा में कुल दो सीटों वाली थी, देश के आधी राजनीतिक दलों को उससे परहेज था, लेकिन वहां से चलकर उसने इतना लंबा सफर तय किया है। इसलिए आज कुछ दर्जन लोकसभा सीटों वाली कांग्रेस पार्टी का कोई भविष्य हो ही नहीं सकता यह मान लेना जायज नहीं होगा, लेकिन यह सोचना जरूरी होगा कि इसका कोई भविष्य हो कैसे सकता है?

कांग्रेस पार्टी पिछले लोकसभा चुनाव को हारने के बाद से करीब दो बरस बिना अध्यक्ष के गुजार चुकी है। राहुल गांधी न केवल खुद इस ओहदे से अलग हुए, बल्कि उन्होंने खुलकर यह कहा कि सोनिया परिवार से परे लीडरशिप देखी जाए। लेकिन बिना इस परिवार की लीडरशिप के हीनभावना से कांपने वाली इस पार्टी ने घूम-फिरकर सोनिया गांधी को ही कामचलाऊ जिम्मेदारी दी, और अब माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि आने वाले महीनों में कांग्रेस संगठन के चुनाव अगर होते हैं, तो उसमें फिर राहुल गांधी को घेर-घारकर अध्यक्ष बनाया जाए। यह नौबत तब है जब तीन बरस पहले के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने आखिरी बार कोई प्रदेश जीता था, और उसके बाद से वह लगातार हार ही रही है। हार भी छोटी-मोटी हार नहीं है, बहुत बड़ी-बड़ी, ऐतिहासिक, और शर्मनाक हार इस पार्टी ने झेली है। यह पार्टी लंबे समय तक पश्चिम बंगाल पर राज करने वाली पार्टी रही है, और आज हालत यह है कि बंगाल विधानसभा में दूसरी पार्टियों के विधायकों के हाथ की शक्ल में ही कांग्रेस का चुनावी निशान दिख सकता है, इस पार्टी का अपना एक हाथ भी विधानसभा में दाखिल नहीं हो पाया है। करीब-करीब वही हालत उत्तरप्रदेश में भी रही है जहां पर पिछले चुनाव में जीती गई सात सीटें भी अब घटकर दो रह गई हैं। पार्टी 399 सीटों पर लड़ी थी, और भाजपा के 68 फीसदी वोटों के मुकाबले कांग्रेस के वोट एक फीसदी रह गए हैं। जिस प्रदेश से कांग्रेस के एक के बाद एक प्रधानमंत्री रहे हैं, पूरा सोनिया-कुनबा जिस प्रदेश से लड़ते, जीतते, और लड़वाते आया है, वहां पर महज नाम के लिए कांग्रेस विधायक विधानसभा पहुंच पाए हैं। पंजाब में, जैसा कि हमने कल इसी जगह लिखा था, कांग्रेस ने बुरी तरह अपनी सरकार खोई है, और जिस उत्तराखंड और गोवा में एक्जिट पोल उसकी आसपास की संभावनाएं बता रहे थे, वहां भी वह सत्ता पर दावे से कोसों दूर थम गई है। ऐसी हालत में कांग्रेस पार्टी को, और खासकर गांधी परिवार को क्या करना चाहिए?

गांधी परिवार के चाहने वाले, और वफादारों को यह बात सुनने में कुछ कड़वी लग सकती है, लेकिन आज कांग्रेस के एक ऐसे मुहाने पर आकर खड़ी हो गई है कि उसके हित, और सोनिया-परिवार के हित अलग-अलग हो गए हैं। यह पार्टी चाहे तो, और इसी की गुंजाइश भी अधिक है, परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को चाहे तो नाम के लिए ही सही अध्यक्ष बनने का मौका दे सकती है, और अपने परंपरागत पारिवारिक असर को कुछ वक्त के लिए आराम दे सकती है ताकि पार्टी एक नई सोच से दुबारा खड़ी होने की एक कोशिश तो कर सके। नाकामयाबी तो राहुल और सोनिया की लीडरशिप को भी लगातार मिल ही रही है, लेकिन वे पार्टी अध्यक्ष तो बने हुए ही हैं, ऐसे में परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति की लीडरशिप में भी कांग्रेस को अगर नाकामयाबी मिलनी है, तो वह भी मिल जाए, कम से कम यह परिवार अपने आपको कांग्रेस पर काबिज कुनबापरस्त की तोहमत से तो आजाद हो जाएगा। आज जितनी जरूरत कांग्रेस पार्टी को गांधी परिवार की लीडरशिप से परे भी कुछ देखने की है, उतनी ही जरूरत इस परिवार को भी कम से कम कुछ बरस के लिए पार्टी से परे, अध्यक्ष पद से परे कुछ और देखने की है ही। आज इन दोनों को एक-दूसरे से परे राहत की एक सांस की जरूरत है, और एक-दूसरे से परे कुछ संभावनाओं को तलाशने की जरूरत भी है।

आज गांधी परिवार नाकामयाबी की तोहमत तो झेल ही रहा है, वह पार्टी पर किसी भी तरह काबिज रहने पर आमादा रहने की तोहमत भी झेल रहा है। इस सिलसिले के चलते हुए लोग सोनिया गांधी के सारे इतिहास को आसानी से भूल जाते हैं कि किस तरह राजीव गांधी की शहादत के बाद उन्होंने नरसिंह राव को केन्द्र सरकार और संगठन दोनों पर काबिज होने का मौका दिया था, और नरसिंह राव ने बोफोर्स को कुरेदने सहित कई काम किए थे, लेकिन वे सोनिया गांधी को दफन नहीं कर पाए, और आगे चलकर सोनिया की लीडरशिप ने दो बार यूपीए की सरकार बनी, कई राज्यों में भी कांग्रेस की सरकारें बनीं। लेकिन लगातार हार के बाद आज जब खुद राहुल गांधी ने यह साफ किया है कि वे पार्टी अध्यक्ष पद पर न खुद रहेंगे, न परिवार के किसी को रखा जाए, और बाहर के किसी व्यक्ति की लीडरशिप को देखा जाए, तो फिर इस परिवार से अध्यक्ष बनाने, या बनाए रखने का मतलब यह साबित करना है कि राहुल गांधी का तमाम त्याग महज ढकोसला था। यह बात और यह नौबत खुद सोनिया-परिवार के लिए ठीक नहीं है।

यह दौर भारतीय चुनावी राजनीति में बड़ा असामान्य और अस्वाभाविक दौर है जिसमें राहुल और सोनिया सरीखे पार्टटाईम नेताओं का कोई गुजारा नहीं है क्योंकि पूरी तरह नए तौर-तरीकों के साथ मोदी जैसे परिवारविहीन ओवरटाईम करने वाले नेता तस्वीर बदल चुके हैं। इसका मुकाबला संगठन के भीतर परिवार के प्रति निष्ठा के आधार पर नहीं किया जा सकता। आज नए तेवरों, नई सोच, और नई चुनौतियों के साथ पार्टियों को बदले हालात समझने की जरूरत है, उसके बिना किसी की कोई संभावना नहीं बची है। मोदी की अगुवाई में भाजपा ने खेल के नियम पूरी तरह बदल दिए हैं, गोलपोस्ट की जगह बदल दी है, गेंद का आकार बदल दिया है, मैदान की लंबाई-चौड़ाई भी बदल दी है। इन फेरबदल से नावाकिफ लोग किसी मासूमियत का दावा करते हुए बदले तौर-तरीकों की शिकायत नहीं कर सकते। कांग्रेस पार्टी से अलग-अलग मौकों पर बहुत से नेताओं ने अलग होकर अपनी अलग कांग्रेस भी बनाई है, और वे दूसरी पार्टियों में भी गए हैं। ऐसी दोनों चीजों का खतरा आज भी कांग्रेस के सामने है, और अगर गांधी परिवार अपने आपको लीडरशिप से अलग नहीं करता है, तो इस नौबत को लाने के लिए भी उसे ही जवाबदेह ठहराया जाएगा।
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