संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अमीरों की अर्थव्यवस्था से गरीबों का हाल आंकने का सिलसिला और पैमाना गलत
13-Mar-2022 4:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अमीरों की अर्थव्यवस्था से गरीबों का हाल आंकने का सिलसिला और पैमाना गलत

यूपीए सरकार के वक्त भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे और मशहूर अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने अभी एक इंटरव्यू में कहा है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण महंगाई बढ़ेगी, और यह लंबे समय तक रहेगी, इससे अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ेगी। उन्होंने कहा कि कई चीजों के दामों में इस युद्ध से बढ़ोत्तरी हो चुकी है, और कई देशों में पहले से ही महंगाई अधिक थी, अब इन दोनों के मिले-जुले असर को देखें तो यह महंगाई और मंदी लंबी चलेंगी। उन्होंने कहा कि रूस ऊर्जा सहित दूसरे कई सामानों का एक बड़ा एक्सपोटर है और रूस पर पश्चिमी देशों के लगाए हुए आर्थिक और कारोबारी प्रतिबंध से अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ेगा।

आज दुनिया में दिक्कत यह है कि अर्थव्यवस्था के पैमाने आम इंसानों की जिंदगी से काटकर अलग कर दिए गए हैं। जब किसी देश में बेरोजगार आसमान पर पहुंच रही है, महंगाई चरम पर है, लोग सरकारी रियायती अनाज के बिना भुखमरी की हालत में हैं, तब अगर उस देश का शेयर बाजार आसमान पर पहुंचता है, तो क्या उसे सचमुच ही देश की अच्छी और मजबूत अर्थव्यवस्था का संकेत मान लिया जाए? हिन्दुस्तान इसकी एक बड़ी मिसाल है कि यहां पर जनता जब से बदहाल है, तब शेयर बाजार सबसे खुशहाल है। इसलिए अर्थव्यवस्था के पैमानों को अलग-अलग देखने की जरूरत है कि शेयर बाजार का रूझान और जनता की हकीकत के बीच क्या फर्क है? ऐसा न होने पर अंबानी-अडानी की कमाई को आम जनता की कमाई से जोडक़र औसत निकालकर आम जनता को खुशहाल साबित किया जा सकता है। इसलिए आज अगर हिन्दुस्तान में 20 लाख की कार के लिए 50 हजार लोग कतार में लगे हैं, तो इसे आम जनता की खुशहाली मान लेने की गलती नहीं करनी चाहिए।

रघुराम राजन की बातों से परे भी यह समझने की जरूरत है कि दुनिया की एक बड़ी जंग हो, या कि मौसम की सबसे बुरी मार हो, सबसे अधिक जख्म सबसे कमजोर तबकों को आते हैं। बाढ़ हो या तूफान, उसमें सबसे अधिक तबाही सबसे गरीब आबादी की होती है क्योंकि वे ही लोग सबसे नाजुक और खतरनाक जगहों पर बसे होते हैं। जब सूखा पड़ता है और उसकी वजह से लोगों को अपना इलाका छोडक़र, घर-बार छोडक़र बाहर जाना पड़ता है, तो सूखे की सबसे बुरी मार सुखी तबके पर नहीं पड़ती, गरीबी से दुखी तबके पर पड़ती है जो कि एक मौसम का सूखा झेलने की हालत में भी नहीं रहता। आज अगर हिन्दुस्तान में आधी आबादी रियायती सरकारी अनाज की वजह से जिंदा है, तो यह जिंदा रहना भी क्या जिंदगी है? जिस संसद को इस गरीबी पर सोच-विचार करना था, लोगों को इससे उबारने की कोशिश करनी थी, वह संसद अपने आप पर 20 हजार करोड़ रूपए खर्च करने जा रही है, इसके मुखिया मुल्क के प्रधानमंत्री अपने लिए 8 हजार करोड़ रूपए का विमान खरीद रहे हैं। ऐसे में अदम गोंडवी की लिखी एक गजल याद पड़ती है-
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं,
दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है?

दुनिया या किसी देश की अर्थव्यवस्था को राष्ट्रीय आंकड़ों से आंकने का सिलसिला ही नाजायज है। गरीबों की आर्थिक स्थिति को अलग से आंकने के पैमाने बिल्कुल साफ रहने चाहिए, और दुनिया या किसी भी देश में गरीब आधी आबादी के हाल पर अलग से रिपोर्ट बननी चाहिए। हिन्दुस्तान में आज जीडीपी या सकल राष्ट्रीय उत्पादन की शक्ल में देश के हाल को आंका जाता है, लेकिन अडानी और अंबानी की दौलत दो या तीन गुना हो जाने से देश की नीचे की आधी आबादी की जिंदगी पर कोई फर्क पड़ सकता है क्या? क्या बाजार में एक करोड़ रूपए से अधिक दाम वाली कारों की बिक्री दोगुना हो जाने से मोपेड चलाने वाले गरीब की पेट्रोल खरीदने की ताकत को भी दोगुना आंकना ठीक होगा? यह पूरा सिलसिला आंकड़ों का फरेब है, और अर्थव्यवस्था के आंकड़ों को लेकर जनसंगठनों को यह मांग करनी चाहिए कि गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों की अर्थव्यवस्था, उनकी आर्थिक हालत पर अलग से रिपोर्ट जारी की जानी चाहिए जिस तरह कि एक वक्त अलग से रेल बजट आता था। आज केन्द्र और प्रदेश सरकार को आर्थिक विकास के तमाम आंकड़ों में से बीपीएल समुदाय के आंकड़े अलग से सामने रखने चाहिए, लोगों को बीपीएल से जुड़े आंकड़े अलग से पूछने चाहिए। जब तक गरीबों के हिमायती पैमाने अलग से लागू नहीं होंगे, तब तक हिन्दुस्तान जैसे देश में दो सबसे अमीर लोगों की तिजोरियों को गरीबी की रेखा के नीचे की हंडियों को भरा दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहेगा।
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