संपादकीय
तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’
छत्तीसगढ़ के बस्तर में बेकसूर और निहत्थे आदिवासियों की सुरक्षा बलों के हाथों मौत एक आम बात है। हर बरस कई ऐसे कत्ल होते हैं लेकिन चूंकि कातिल सरकारी वर्दीधारी रहते हैं, और वे लोकतंत्र को बचाने के नाम पर लोगों का कत्ल करते हैं इसलिए उस कत्ल को हत्या न कहकर नक्सल-संदेह में हुई मौत कह दिया जाता है, या कभी यह कह दिया जाता है कि सुरक्षा बलों ने आत्मरक्षा में गोलियां चलाईं जिनमें ये मौतें हो गईं, या नक्सलियों के साथ क्रॉस फायरिंग में ये ग्रामीण मारे गए। सबसे अधिक तो यही होता है कि पुलिस और सुरक्षा बल इस बात पर अड़े रहते हैं कि मारे गए लोग नक्सली थे, उनके पास कुछ हथियार भी रखकर जब्ती दिखा दी जाती है। लेकिन बहुत से मामले ऐसे रहते हैं जिनमें शक की गुंजाइश नहीं रहती है, जिनमें सरकार भी भारी जन-दबाव में किसी जांच के लिए मजबूर होती है। जब-जब ऐसी जांच होती है तब-तब यह सामने आता है कि सुरक्षा बलों ने बिना किसी खतरे के, बिना किसी उकसावे और भडक़ावे के निहत्थे और बेकसूर ग्रामीण आदिवासियों को मार डाला था।
ऐसी ही एक वारदात 2013 में बीजापुर जिले के जगरगुंडा थाना-इलाके के एडसमेटा गांव में हुई थी जिसमें 8 बेकसूर आदिवासियों को सुरक्षा बलों ने मार डाला था, जिनमें तीन बच्चे भी थे। इस मामले की न्यायिक जांच एमपी हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज, जस्टिस वी.के. अग्रवाल ने की थी, और कल यह रिपोर्ट छत्तीसगढ़ विधानसभा में पेश की गई है। इस रिपोर्ट का नतीजा यह है कि समारोह मनाते आदिवासियों की जिस भीड़ पर सीआरपीएफ ने गोलियां चलाई थीं, उन सुरक्षा-जवानों को इन आदिवासियों से कोई खतरा नहीं था। न इन्होंने सुरक्षा बलों पर गोलियां चलाई थीं, न हमला किया था। इसलिए सीआरपीएफ ने ये गोलियां आत्मरक्षा में नहीं चलाईं बल्कि आदिवासियों को पहचानने में हुई गलती और घबराहट के कारण चलाईं।
जैसा कि आमतौर पर इस किस्म के जांच आयोग आदिवासी जिंदगी से नावाकिफ शहरी जजों वाले होते हैं, इसलिए इनमें आदिवासी जिंदगियों के लिए वह दर्द नहीं होता जो कि आदिवासियों के जानकार किसी हमदर्द का हो सकता है। थोक में किए गए ऐसे कत्ल भी सजा नहीं पाते हैं क्योंकि सरकारें इस बात से डरती हैं कि बेकसूरों के कत्ल के जुर्म में अगर सुरक्षा बलों को सजा होने लगे, तो ऐसे हथियारबंद मोर्चों पर उनका मनोबल टूटेगा। यह सोच निहायत ही अलोकतांत्रिक और शहरी सोच है जिसमें निहत्थे और बेकसूर आदिवासियों के कत्ल की कीमत पर भी वर्दी का मनोबल बनाए रखने को जरूरी समझा जाता है। और बस्तर के मामले में हमने बार-बार ऐसी सोच देखी है, कोई भी पार्टी सरकार चलाए, सत्ता की सोच तकरीबन एक सरीखी दिखती है। सत्तारूढ़ पार्टी और सुरक्षा बलों के हित मानो एक हो जाते हैं, और नक्सल-संदेह में कितने ही बेकसूर आदिवासियों का कत्ल माफ कर दिया जाता है। जांच के नाम पर, जांच आयोग के नाम पर ऐसी लीपापोती की जाती है कि किसी कातिल को कोई सजा मिल ही नहीं पाती। अब 2013 के इस हत्याकांड की जांच रिपोर्ट का कवर पेज ही कहता है- एडसमेटा में मुठभेड़ की घटना के मामले में न्यायिक जांच आयोग का प्रतिवेदन। जबकि यह रिपोर्ट खुद ही लिख रही है कि यह साबित नहीं हुआ है कि उक्त मुठभेड़ नक्सलियों के साथ हुई, और आगे यह साफ होता है कि घटना सुरक्षा बलों द्वारा आग के आसपास इक_े लोगों को देखकर उन्हें संभवत: गलती से नक्सल समझकर घबराहट की प्रतिक्रिया के कारण गोलियां चलाने के कारण हुई।
अब सवाल यह उठता है कि वर्दीधारी सुरक्षा बलों का पूरा जत्था पूरी तैयारी से जंगल गया हुआ है, और वहां पर निहत्थे आदिवासियों को देखकर वह इतना हड़बड़ा रहा है कि वह उन पर गोलियां चलाकर 8 लोगों को मार डाल रहा है जिनमें नाबालिग भी थे। तो यह सुरक्षा बलों की कैसी तैयारी है, और यह कैसी घबराहट है जिसके चलते बेकसूरों को भून दिया गया? यह पूरा सिलसिला बताता है कि आदिवासी जिंदगी इतनी सस्ती है कि नक्सलियों को मारने के नाम पर जंगल में बसे हुए मासूम और सीधे-साधे, निहत्थे आदिवासियों को भी महज अपने संदेह के आधार पर मार डाला जा सकता है। अगर सुरक्षा बल किसी के नक्सली होने की आशंका में इतने घबरा सकते हैं कि वे उन्हें गोलियों से भून सकते हैं, तो फिर ऐसी हालत में सरकार को यह नीतिगत फैसला लेना चाहिए कि ऐसे डरे-सहमे सुरक्षा बल को ग्रामीण इलाकों में भेजा ही क्यों जाए? खुद जांच रिपोर्ट की भाषा और उसके निष्कर्ष न छुपने लायक तथ्यों को तो मानो मजबूरी में सामने रख रहे हैं, लेकिन किंतु-परंतु जैसे शब्दों के साथ संदेह का इतना लाभ सुरक्षा बलों को दे रहे हैं कि मानो वह किसी चुनाव के पहले किसी सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा दिया गया चुनावी तोहफा हो। सुरक्षा बलों द्वारा घबराहट में गोली चलाना इस रिपोर्ट में इतनी बार इतने तरह से लिखा गया है कि ऐसा लगता है कि बेकसूर आदिवासियों की लाशों से भी अधिक ठोस सुबूत इस घबराहट का है। बार-बार इस घबराहट का हवाला देना एक किस्म से कातिल सिपाहियों को बचने के लिए एक रास्ता देना है।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका के आधार पर इसकी जांच 2019 में सीबीआई को दे दी गई थी, और वह जांच चल रही है। उस जांच, और उसके नतीजे के बारे में अभी कुछ कहना ठीक नहीं है, लेकिन यह अकेला मामला नहीं है जिसने बस्तर में बेकसूर आदिवासियों को थोक में मारा है। इससे पहले भी राज्य की पुलिस द्वारा आदिवासी गांवों को जलाने और लोगों को मारने के मामले सामने आ चुके हैं, महिलाओं से बलात्कार के मामले भी सामने आ चुके हैं, और विपक्ष में रहते हुए जो कांग्रेस आदिवासियों की हमदर्द थी, वह सत्ता में आने के बाद अपने कार्यकाल के ऐसे जुर्म जायज ठहराने में लगी दिखती है। यह मौका जनसंगठनों द्वारा नक्सल कहलाने का खतरा उठाते हुए भी ऐसी सरकारी हिंसा को उजागर करने का है जिसके बिना आदिवासियों के बचने की और कोई गुंजाइश नहीं है। बस्तर को लेकर यह सरकारी फैशन है कि आदिवासियों की हमदर्द कोई भी बात, उनका कोई भी आंदोलन, नक्सलियों का करवाया हुआ मान लिया जाता है। सत्ता का चरित्र एक ही होता है, प्रदेश में भाजपा की सरकार गई, और कांग्रेस की सरकार आई, ये दोनों ही सरकारी सुरक्षा बलों की हिमायती रहीं, और बेकसूर आदिवासियों के कत्ल पर इनकी हमदर्दी की कमी एक बराबर रही। इसलिए जांच आयोग के इस प्रतिवेदन से सरकारी सुरक्षा बलों के चाल-चलन पर कोई फर्क पड़ेगा, ऐसी उम्मीद गलत होगी। सीबीआई जांच के बाद कुछ लोगों को सजा मिल सके, तो उसमें अभी से कई बरस लगना बाकी है। आदिवासियों की मौत इसी तरह जारी रहेगी, और शहरी लोकतंत्र के पास उनके लिए गोलियां ही हैं।
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