संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अंग्रेजों के पखाने का टोकरा हिन्दुस्तानी कब तक ढोएंगे?
17-Mar-2022 4:38 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  अंग्रेजों के पखाने का टोकरा हिन्दुस्तानी कब तक ढोएंगे?

इलाहाबाद हाईकोर्ट में अभी दो जजों, प्रीतिंकर दिवाकर और आशुतोष श्रीवास्तव, की अदालत में एक वकील बिना गाऊन (लबादा) पहने पेश हुआ तो जजों ने उसकी आलोचना की, और इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया। उन्होंने कहा कि वे ऐसी हरकत पर बार काउंसिल को लिख सकते हैं लेकिन वकील के नौजवान होने की वजह से वे ऐसा नहीं कर रहे हैं। जजों ने इस वकील को भविष्य में इसका ख्याल रखने की चेतावनी भी दी है। भारत के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में वकीलों को काले कोट के ऊपर एक काला लबादा भी पहनना पड़ता है जो कि एक कॉमिक्स, मैनड्रेक के मुख्य किरदार एक जादूगर के लबादे की तरह रहता है। हिन्दुस्तानी अदालतों में यह सिलसिला उन अंग्रेजों के वक्त से शुरू हुआ था जिन्होंने इस हिन्दुस्तान को गुलाम बनाकर कुचला था, और जो अपने ठंडे देश की जरूरत की मुताबिक कपड़े पहनने के आदी थे, और उन्होंने हिन्दुस्तान में भी जहां-जहां अदालती और सरकारी रीति-रिवाज बनाने थे, उसी किस्म के बनाए थे। वही ड्रेस लागू किया था जो कि उनके सर्द माहौल में जरूरी था। लोगों ने अंग्रेजी अदालतों के जजों की तस्वीरें फिल्मों और टीवी सीरियलों में देखी होंगी कि वे किस तरह कोट के ऊपर लबादा पहनकर और सिर पर ऊन की एक विग लगाकर बैठते हैं ताकि उनका सिर ठंड से बचा रहे। जिस हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्से में गर्मी और बहुत गर्मी नाम के दो मौसम रहते हैं, वहां पर वकीलों पर काले कोट के ऊपर काला लबादा पहनकर ही हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में पेश होने की बंदिश शर्मनाक है।

हिन्दुस्तान की छोटी अदालतों में भी देखें तो जहां पर भरी गर्मी में भी वकीलों के लिए ठंडक का कोई इंतजाम नहीं रहता, और जहां पर वे एक अदालत से दूसरी अदालत दौड़ते हुए लू के थपेड़ों का सामना करते हैं, वहां भी उनसे काला कोट पहनने को कहा जाता है, और बहुत से गरीब वकील तो ऐसे रहते हैं जिनके काले कोट पर पसीने के सफेद दाग से मानो मुल्क का नक्शा ही बन जाता है। कुछ ऐसा ही हाल भारत की रेलगाडिय़ों में अंग्रेजों के समय से टिकट जांचने वाले अधिकारियों का है जिन्हें काला कोट पहनने की बंदिश रहती है, और बिना एसी वाले डिब्बों से लेकर रेलवे प्लेटफॉर्म तक भट्टी की तरह तपते रहते हैं। कुछ ऐसा ही हाल हिन्दुस्तान में पुलिस का है जिसे अंग्रेजों के समय से चमड़े के जूते पहनाना शुरू हुआ, तो वह आज भी जारी है, जबकि आज कई किस्म के आरामदेह जूते चलन में आ गए हैं, लेकिन जिस पुलिस से दौड़-भाग और कामकाज की उम्मीद की जाती है, उसे चमड़े के कड़े जूते पहनने को कहा जाता है जिस पर पॉलिश करने का बोझ भी रहता है।

आजादी की पौन सदी पूरी हो रही है, लेकिन हिन्दुस्तान अब तक सिर उठाकर जीना नहीं सीख पाया है। वह अंग्रेजों के छोड़े गए पखाने को अपने सिर पर एक टोकरे की तरह सजाकर खुश है। देश की नौकरशाही को देखें तो वह बंद गले का कोट या सूट और टाई लगाकर लाट साहब बनकर जनता के पैसों की एयरकंडीशनिंग बर्बाद करती है। किसी शासकीय या राजकीय समारोह में अफसरों को बंद गले का कोट पहने देखकर ही तन-बदन में आग लगने लगती है। प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति, या देश के मुख्य न्यायाधीश के आने पर, या किसी और देश के किसी प्रमुख का स्वागत करने के लिए तैनात अफसरों को मई-जून की 45 डिग्री की तपती हुई भट्टी में भी कोट या सूट पहनने की बंदिश बुनियादी मानवाधिकारों के भी खिलाफ है, लेकिन देश की किसी अदालत को यह बात नहीं खटकती, और वे राजसी-सामंती महत्व पाना चाहती हैं। ऐसे जितने लोग दिखावे के इस आडंबर के लबादे ढोते हैं, उनकी वजह से उनके घर, दफ्तर, समारोह की जगहों पर अंधाधुंध एसी चलाकर उन्हें ठंडा रखा जाता है ताकि वे कोट-जॉकिट, और लबादों के भीतर भी गर्मी महसूस न करें। कुल मिलाकर अंग्रेजों की इस उतरन को आज भी हिन्दुस्तानी राजकीय, शासकीय, और अदालती परंपरा बनाने की कीमत आम जनता चुकाती है, जो कि इन जगहों के बिजली के बिल देती है। अदालतों के जानकार कुछ लोगों का कहना है कि दिल्ली हाईकोर्ट वहां के साल के कुछ सबसे गर्म महीनों में वकीलों को लबादे से छूट देती है। लेकिन कई हाईकोर्ट अंग्रेजों की छोड़ी परंपराओं के इतने बड़े भक्त हैं कि वहां किसी नए मुख्य न्यायाधीश को शपथ लेते समय ऊनी विग भी पहननी पड़ती है जो कि अंग्रेजों के अपने देश में तो बर्फीले मौसम में जजों के सिर के लिए हिफाजत की चीज थी, लेकिन हिन्दुस्तान जैसे गर्म देश में जो एक गंदे बोझ के अलावा कुछ नहीं है।

एक आजाद देश में यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। आम जनता जो कि पिछले कई जन्मों के बुरे कामों की वजह से आज अदालत में फंसती है, वह वैसे भी अदालती माहौल देखकर दहशत में रहती है। उसके बाद जब लबादा पहने हुए वकील उससे बात करते हैं, तो वह अपने या सामने वाले वकील को जादूगर की तरह मानने को मजबूर हो जाती है। ये सारे सामंती प्रतीक हिन्दुस्तान की अदालतों से, राष्ट्रपति भवन और राजभवनों से खत्म किए जाने चाहिए। यह देश गरीबों का देश है, और यहां पर साधनों की ऐसी बर्बादी भी ठीक नहीं है, और न ही वकीलों, खुद जजों, और दूसरे सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों पर पोशाक की ऐसी बंदिश लागू करनी चाहिए जो कि यहां के मौसम के खिलाफ है। देश के कई विश्वविद्यालयों में दीक्षांत समारोहों में ऐसे ही लबादों का चलन खत्म कर दिया गया है, और उनकी जगह हिन्दुस्तानी संस्कृति की पोशाक लागू की गई है, जो कि एक बेहतर समझदारी का फैसला है। देश के बाकी तबकों को भी इससे सबक लेना चाहिए, और अंग्रेजों की गंदगी को ढोना अगर बंद किया जाए तो देश की बहुत सी बिजली भी बच सकती है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news