संपादकीय
भारतीय रेल के मुसाफिरों को कोरोना लॉकडाऊन के पहले तक मिलने वाली टिकट पर रियायत अब शुरू नहीं की जा रही है। इसे लॉकडाऊन के बाद चलने वाली गिनी-चुनी रेलगाडिय़ों में बंद रखा गया था, लेकिन अब लोकसभा में रेलमंत्री ने यह जानकारी दी है कि रियायत पर यह पाबंदी जारी रहेगी। अब न तो लॉकडाऊन रहा, और न कोरोना की कोई लहर बची है, फिर भी बुजुर्ग मुसाफिरों को मिलने वाली यह बड़ी रियायत छीन ली गई है। ये लोग संख्या में कम हो सकते हैं, इनका सफर भी कम हो सकता है, लेकिन बुढ़ापे की सीमित कमाई या दूसरों का मोहताज रहते हुए सस्ती टिकट पर तो ये तीर्थयात्रा से लेकर रिश्तेदारी तक में आना-जाना कर लेते थे, अब टिकट रियायत में छूट खत्म होने से गरीब तबके के बुजुर्गों का तो मानो सफर बंद सा हो जाएगा, क्योंकि आज तो गरीबों के पास जवान लोगों के काम के लिए भी टिकट खरीदने की गुंजाइश नहीं बची है।
केन्द्र की मोदी सरकार ने हाल के बरसों में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाते हुए उन्हें 30-40 फीसदी से अधिक महंगा कर दिया है। रेलवे प्लेटफॉर्म टिकटों को पांच रूपए से बढ़ाकर पचास रूपए कर दिया गया है। जहां-जहां रेलवे स्टेशनों का निजीकरण हुआ है वहां पर पार्किंग फीस भी कई गुना बढ़ चुकी है। महामारी से बचने के लिए और अपना खर्च बचाने के लिए रेलवे ने लॉकडाऊन के पूरे दौर में बिना रिजर्वेशन वाली टिकटें भी बंद कर दी थीं, और तरह-तरह की तरकीबें निकाली थीं कि सीमित मुसाफिरों की जेब से अधिक से अधिक पैसा कैसा निकाला जा सके। अब बुजुर्गों की टिकट पर जब रियायत खत्म की जा रही है तो कम से कम यह सोचा जाना चाहिए था कि महंगे दर्जे के डिब्बों में चाहे रियायत खत्म की गई होती, साधारण दर्जे पर तो इसे जारी रखना था। वैसे भी किसी भी सभ्य देश में बुजुर्ग नागरिकों का अलग से अधिक ध्यान रखा जाता है, और भारत में तो माता-पिता और बुजुर्गों की अतिरिक्त सम्मान की एक तथाकथित संस्कृति का दावा किया जाता है, जिसके चलते हुए भी इस तबके की जिंदगी से खुशी के ये पल छीन लिए गए हैं।
ऐसा लगता है कि चुनावों में लगातार जीत की वजह से केन्द्र सरकार की मुखिया भाजपा को अब देश के वोटरों के किसी छोटे तबके की फिक्र नहीं रह गई है। जब देश के लोग भावनात्मक मुद्दों पर रीझ कर वोट देने को आमादा हों, तो उन्हें किसी भी तरह की रियायत देने की जरूरत कहां रह जाती है? जब सौ रूपए लीटर पेट्रोल खरीदने वाले लोग मोदी को प्रधानमंत्री बनाए रखने के लिए दो सौ रूपए लीटर का भी पेट्रोल खरीदने के फतवे देते रहते हैं, तो फिर उन्हें रियायत की भी क्या जरूरत है, और उनके टैक्स को भी असीमित बढ़ाने चलने में क्या दिक्कत है? अलग-अलग किस्म के सामानों को लेकर भारत की आम जनता पर बोझ हाल के बरसों में कितना बढ़ा है, इसकी एक लंबी फेहरिस्त बन सकती है। लेकिन जनता उससे भी बेफिकर है, और यही बात सरकार को असाधारण आत्मविश्वास देती है, उसे बददिमाग और बेरहम भी बना देती है।
दरअसल हिन्दुस्तान की तथाकथित जनचेतना का 21वीं सदी के किसी भी असल मुद्दे से सौतेला रिश्ता भी नहीं रह गया है। वह अधिकतर हिन्दुस्तान के इतिहास के एक हिस्से से लगातार जंग जारी रखे हुए है, और इसके लिए हिन्दुस्तान के इतिहास के एक दूसरे काल्पनिक हिस्से से हथियार भी निकालकर ले आती है, और आज की सत्ता को नापसंद इतिहास पर हमले करने लगती है। जब सारा का सारा आत्मगौरव ऐसे काल्पनिक इतिहास पर खड़ा होता है, तो उसे आज की पथरीली जमीन भला कहां सुहा सकती है। इस सिलसिले ने देश की जनता के रोजाना के दुख-दर्द को महत्वहीन बना दिया है। जब राष्ट्रवाद को भूख-प्यास से बढक़र महत्वपूर्ण बना दिया गया है, तो नोटबंदी की कतारों की तकलीफ, और लॉकडाऊन की घरवापिसी की तकलीफ की चर्चा होने पर लोग तुरंत कारगिल में छह महीने बर्फ में खड़े सैनिकों की तकलीफ गिनाने लगते हैं, और सवाल करने लगते हैं कि आम हिन्दुस्तानी की रोजाना की तकलीफें क्या उससे भी बढक़र हैं?
एक बड़ी दिक्कत यह भी हो गई है कि हिन्दुस्तानी जिंदगी में जिस तरह धर्म का महत्व बढ़ गया है, धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता का महत्व बढ़ गया है, उसी तरह मीडिया और सोशल मीडिया का भी महत्व बढ़ गया है जो कि इस देश में सबसे अधिक हमलावर और दकियानूसी सोच से लदे हुए हैं। आज यह तुलना कर पाना मुश्किल है कि मीडिया अधिक पाखंडी है, या सोशल मीडिया। ऐसे में जिंदगी की सोच को चारों तरफ से घेरकर रखने वाले तमाम माध्यम इसी तरह के हो गए हैं। आज जब देश की सामूहिक जनचेतना कश्मीरी पंडितों की दिक्कतों को देखने, उन पर सोचने, और उन्हें सुलझाने के बजाय इस पर केन्द्रित है कि उन्हें कश्मीर से भगाने वाले लोगों का मजहब क्या था, और उस मजहब के लोगों को आज देश भर में किस तरह धिक्कारा जा सकता है, तो फिर बुजुर्गों की रेलटिकट-रियायत खत्म होने की क्या चर्चा करना?
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