संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भुतहा-उड़ानों से पुरानी साड़ी से बने झोलों तक
28-Mar-2022 3:45 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  भुतहा-उड़ानों से पुरानी साड़ी से बने झोलों तक

धरती की बात करें तो कारोबार से अधिक हिंसक कोई और तबका नहीं हो सकता। महज आज के मुनाफे के लिए कारोबार सारे सरोकार अनदेखे करके धरती का कितना भी नुकसान कर सकता है। इसके बाद कारोबार से होने वाली टैक्स और रिश्वत, दोनों किस्म की कमाई के चलते सरकार का हाल भी कारोबार जैसा ही हो जाता है, और वह भी पूरी तरह बेफिक्र हो जाती है, सामाजिक सरोकारों के प्रति। इसकी एक बड़ी मिसाल अभी सामने आई जब ब्रिटिश अखबार गार्डियन ने यह रिपोर्ट छापी कि किस तरह कोरोना और लॉकडाऊन के इस पूरे दौर में ब्रिटेन के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों से भुतहा-उड़ानें आती-जाती रहीं। भुतहा उड़ानों का मतलब जिनमें कोई असल मुसाफिर नहीं चलते, विमान या तो सिर्फ पायलट और सेवक-दल के गिने-चुने लोगों को लेकर आते-जाते हैं, या मजबूरी में दस फीसदी से कम मुसाफिर होने पर भी उड़ान भरते हैं। सरकार ने अखबार की मांगी जानकारी देने से आखिर तक मना किया, इसके बाद चतुर संवाददाता ने एक ब्रिटिश सांसद को पकडक़र उससे संसद में सरकार से जानकारी मंगवाई, संसद के नियमों के मुताबिक सरकार मना नहीं कर सकती थी, और वहां उसे बताना पड़ा कि किस तरह लॉकडाऊन के दौर में ब्रिटिश हवाई अड्डों से 15 हजार से अधिक अंतरराष्ट्रीय भुतहा-उड़ानें आई-गईं। अब हवाई कंपनियों को ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि हवाई अड्डों पर विमानों के उडऩे और उतरने के लिए जो समय तय रहता है, उस वक्त का अगर 80 फीसदी से ज्यादा इस्तेमाल नहीं होता है तो उनके लिए तय किया गया वह समय खारिज हो जाता है। अपने टाईम स्लॉट को बचाने के लिए विमान कंपनियों को वहां से विमान उड़ाने पड़ते हैं और वहां उतारने पड़ते हैं, फिर चाहे वे पूरी तरह से खाली ही क्यों न हों। लोगों को याद होगा कि ऐसी ही कुछ उड़ानों की तस्वीरें लोग सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं कि वे दो देशों के बीच की उड़ान में अकेले मुसाफिर थे।

 
अब दिक्कत यह है कि ऐसी भुतहा-उड़ानों से एयरलाईंस को जो नुकसान होना है उसे एयरलाईंस जानें, उनसे अधिक नुकसान धरती का होता है जो कि हवाई जहाजों से होने वाले प्रदूषण से आज वैसे ही लदी हुई है। दुनिया में आज सफर का सबसे नुकसानदेह तरीका हवाई जहाज हैं जिनसे धरती पर कार्बन का बोझ बहुत बढ़ रहा है। पर्यावरण की फिक्र करने वाले वैज्ञानिक और आंदोलनकारी वैसे भी हवाई सफर के दूसरे विकल्प तलाशने और सुझाने में लगे हुए हैं ताकि कम प्रदूषण के साथ सफर हो सके। योरप जैसे अधिक हवाई यातायात वाले इलाके में खूब रेलगाडिय़ां भी हैं, लेकिन वे हवाई सफर से महंगी हैं, और सस्ते सफर की वजह से लोग प्लेन में ही अधिक चलते हैं। ऐसे में व्यस्त हवाई अड्डों पर टाईम स्लॉट की खूब मारमारी रहती है, और एयरलाईंस के बीच अधिक लोकप्रिय समय पर उडऩे और उतरने का टाईम पाने के लिए गलाकाट मुकाबला चलता है। यह बात सरकारी या निजी सभी किस्म के एयरपोर्ट के लिए भी एक कारोबारी मजबूरी की हो सकती है कि विमान उडऩे और उतरने से उन्हें एयरलाईंस से जो फीस मिलती है, उसे पाने के लिए विमानों की आवाजाही जरूरी है। लेकिन ब्रिटेन जैसा एक विकसित और पुराना लोकतंत्र भी, जहां पर कि मजबूत सरकारी व्यवस्था है, वह भी सरकारी और कारोबारी नियमों की ऐसी कोई काट क्यों नहीं ढूंढ पाया कि बिना भुतहा उड़ानों के कारोबार चल सकता। यह बात तो जाहिर है कि एयरलाईंस जितना पैसा एयरपोर्ट को देती होगी, उससे सैकड़ों गुना अधिक खर्च उसका उड़ान पर होता होगा, और इन तीनों पहलुओं ने मिलकर पता नहीं क्यों इस बर्बादी को रोकने का रास्ता क्यों नहीं ढूंढा।

दुनिया में आज गैरजरूरी हवाई सफर को घटाने के लिए कई किस्म की सोच चल रही है। लेकिन यह आसान बात नहीं है क्योंकि दुनिया के बहुत से देशों की अर्थव्यवस्था पर्यटकों पर टिकी रहती है, बहुत से देश एयरलाईंस की कमाई के मोहताज रहते हैं, और विमान बनाने वाली कंपनियां हर बरस आसमान में उसी तरह विमान जोड़ती जा रही हैं जिस तरह कार बनाने वाली कंपनियां हिन्दुस्तान जैसे देश की सडक़ों पर हर बरस लाखों कारें जोड़ देती हैं। इसलिए हवाई सफर को घटाना तो आसान नहीं दिख रहा है, लेकिन जहां-जहां ईंधन की बर्बादी हो रही है, उसे एक जुर्म करार देना जरूरी है। और इस जुर्म के लिए बड़ा जुर्माना लगाना भी जरूरी है। इसे महज किसी देश की सरकार, एयरपोर्ट चलाने वाली कंपनी, और एयरलाईंस का आपसी मामला नहीं माना जा सकता। धरती का वातावरण, आसमान और हवा, ये सार्वजनिक संपत्ति हैं, और उसे बर्बाद करने का हक इन तीन लोगों के ऐसे गिरोह को नहीं दिया जा सकता जो कि गैरजिम्मेदार है। हम यहां मिसाल के तौर पर ही इस मामले की बात कर रहे हैं, इस तरह की दूसरी मिसालें दुनिया के अधिकतर देशों में मिलेंगी जहां सरकार और कारोबार लापरवाही से या सोच-समझकर धरती को बर्बाद कर रहे हैं, और इन देशों का कोई कानून ऐसी बर्बादी को रोकने के लिए बना नहीं है।

पहले भी कुछ बार हमने इसी जगह पर यह मुद्दा उठाया था कि देश-प्रदेश की सरकारों को फैशनेबुल सामानों की अंधाधुंध पैकिंग पर एक टैक्स लगाना चाहिए ताकि मार्केटिंग के लिए धरती पर कचरे का बोझ बढ़ाना रोका जा सके। आज 50 मिलीलीटर इत्र की शीशी और उसके ऊपर की पैकिंग कई बार तीन-चार सौ ग्राम तक की हो सकती है। धरती के सामानों की ऐसी फिजूलखर्ची और बर्बादी पर एक टैक्स लगाने की जरूरत है, और इसे राज्य भी अपने स्तर पर लागू कर सकते हैं कि खपत होने वाले सामान को छोडक़र बाकी तमाम पैकिंग पर एक टैक्स लगाया जाए। हो सकता है कि इससे कमाई कम हो, लेकिन इससे जागरूकता अधिक आए। राज्यों को अपने स्तर पर कुछ और कोशिशें भी करनी चाहिए जिनमें पॉलीथीन बैग के विकल्प खड़े करना एक बड़ा काम होना चाहिए। राजस्थान के बहुत से शहरों में पुरानी साडिय़ों के कपड़े से सिले हुए बैग दुकानों में सामान भरकर दे दिए जाते हैं। इस मामूली सिलाई के काम में ऐसी कोई चीज नहीं है जो कि हिन्दुस्तान के किसी प्रदेश में न हो, महज सोच और पहल की कमी है जो कि इन प्रदेशों के पर्यावरण को तबाह कर रही हैं। बात शुरू तो हुई थी ब्रिटेन और योरप की भुतहा उड़ानों से, लेकिन वह राजस्थान के पुराने कपड़ों के झोलों तक पहुंच गई। यह हर किसी की जिम्मेदारी है कि वे अपने आसपास पर्यावरण को बचाने के रास्ते ढूंढें, और पर्यावरण को तबाह करने वाले तरीकों की शिनाख्त करके उसे रोकने की बात भी करें। चुनावों के धंधे में लगे राजनीतिक दलों से अधिक उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि पेड़ों का वोट नहीं होता, मछली, कछुओं, और पंछियों का वोट नहीं होता। ऐसे में लोगों को ही आवाज उठाना चाहिए, सोशल मीडिया पर जमकर बहस छेडऩी चाहिए, और जरूरत हो तो अदालतों तक जाकर जनहित याचिका भी लगानी चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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