संपादकीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ हुई एक बैठक में देश के बड़े अफसरों ने यह सुझाया है कि अलग-अलग राज्य सरकारें जिस तरह लोगों को मुफ्त में चीजें देने में लगी हुई हैं, उससे इन प्रदेशों की माली हालत बहुत खराब हो सकती है। प्रधानमंत्री की देश के करीब दो दर्जन से अधिक बड़े अफसरों के साथ यह बैठक शायद की मुफ्त की योजनाओं को लेकर ही की गई थी क्योंकि इस बैठक की इन्हीं मुद्दों पर चर्चा सामने आई है। खबरों में जो आया है उसके मुताबिक बैठक में उन राज्यों की चर्चा हुई जो कि कर्ज में डूबे हुए हैं लेकिन जो वोट के बदले नोट सरीखी मुफ्त के तोहफों वाली योजनाएं घोषित किए जा रहे हैं, और लागू किए जा रहे हैं। यह जानकारी सामने रखी गई कि बिहार पर ढाई लाख करोड़, पंजाब पर पौन तीन करोड़ से अधिक, आन्ध्र पर करीब चार लाख करोड़, गुजरात पर पांच लाख करोड़, बंगाल पर साढ़े पांच लाख करोड़ से अधिक, और उत्तरप्रदेश पर साढ़े छह लाख करोड़ से अधिक का कर्ज है। लेकिन तमाम राज्य चुनावों के वक्त तरह-तरह की मुफ्त चीजों की घोषणा करते हैं, और फिर कम या अधिक हद तक इसे पूरा करते हैं। नतीजा यह होता है कि विकास के कामों के लिए सरकारों के पास पैसा नहीं बचता, बल्कि चुनावी वायदों के लिए भी राज्यों को लंबा-चौड़ा कर्ज लेना पड़ता है। इस बैठक में शामिल अफसरों ने श्रीलंका की मिसाल सामने रखी कि जिस तरह वहां पर अर्थव्यवस्था चौपट हुई है, उसी तरह की नौबत भारत के कई राज्यों में या पूरे देश में आ सकती है। हालांकि श्रीलंका को लेकर कई और वजहें भी गिनाई गईं, जो कि कम या अधिक हद तक भारत पर भी लागू होती हैं, लेकिन हम आज यहां पर जनता को मुफ्त में चीजें देकर वोटों के लिए रिझाने वाले पहलू पर ही बात करना चाहते हैं।
लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में तमिलनाडु जैसा राज्य जनता को सरकारी खर्च पर तोहफे देने में सबसे अधिक चर्चित रहा है, और वहां एक वक्त मुख्यमंत्री रहीं जयललिता का नाम जोड़-जोडक़र लोगों को तरह-तरह के मुफ्त सामान दिए जाते थे। यह एक अलग बात है कि बाकी तमाम राज्यों की तरह तमिलनाडु में भी मुफ्त के ऐसे सामानों की खरीदी और सप्लाई का बड़ा ठेका चलता था, और जिसमें बड़ा भ्रष्टाचार भी होता था। सरकारें जब भी किसी सामान को मुफ्त बांटती हैं तो उनमें सप्लायर के मार्फत बड़ी रिश्वतखोरी की गुंजाइश पहले तय होती है क्योंकि जो जनता किसी सामान को मुफ्त में पाती है, वह उसकी क्वालिटी को लेकर कोई सवाल नहीं करती, हिन्दुस्तान में लंबे समय से कहावत चली आ रही है कि दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते। एक-एक करके बहुत से राज्यों में अलग-अलग पार्टियों ने एक-दूसरे आगे बढऩे के लिए मुफ्त के सामानों का मुकाबला खड़ा किया, और अब वह बढ़ते-बढ़ते नगदी पर आ गया है, और हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कुछ पार्टियों ने हर महिला को हर महीने कुछ हजार रूपये देने की घोषणा भी की है।
लेकिन लोगों को मुफ्त मिलने वाले सामानों को एक ही दर्जे में रखना ठीक नहीं है। छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के पहले कार्यकाल से ही गरीबों को सस्ता चावल देने की जो योजना शुरू हुई, वह कभी बंद नहीं हो पाई क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी चाहे बदल जाए, गरीब समाज की यह जरूरत नहीं बदली है, और कोई पार्टी इसे बंद करने की हिम्मत नहीं कर सकती। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय गरीबों को सबसे बड़ा तोहफा देने का काम तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने किया था, उन्होंने तेंदूपत्ता का राष्ट्रीयकरण करके उन्हीं मजदूरों के बीच सारी कमाई बांटना शुरू किया था, पूरे प्रदेश में रिक्शा चलाने वालों को मालिकाना हक दिया था, सरकारी जमीन पर जो जहां बसे हुए थे, उन्हें वहां उसी जगह का मालिकाना हक दिया था, और हर गरीब के घर पर एकबत्ती कनेक्शन दिया था। इनमें से कोई भी योजना बंद नहीं हो सकी क्योंकि ये बड़े-बड़े तबकों के फायदे की तो थी हीं, ये समाज के आर्थिक विकास और गरीब परिवारों के मानवीय-सामाजिक विकास के लिए भी जरूरी थीं। इसी तरह स्कूलों में दोपहर के भोजन की योजना, पोषण आहार केन्द्रों में गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों को पोषण आहार की योजना से सबसे गरीब तबके को कुपोषण की जिंदगी से कुछ हद तक राहत मिली, और सबसे गरीब जनता के जीवन स्तर को एक न्यूनतम स्तर तक लाने की कोशिशों को सरकारी तोहफों से जोडक़र नहीं देखना चाहिए, हालांकि शहरी-संपन्न तबका ऐसा करता है क्योंकि सस्ता अनाज मिलने और मनरेगा में काम मिलने की वजह से शहरों को अब सस्ते और बेबस मजदूर नहीं मिलते।
कमजोर तबकों के न्यूनतम खानपान और न्यूनतम रहन-सहन, इलाज और पढ़ाई से जुड़ी हुई योजनाओं को तोहफे में गिनना गलत होगा। लेकिन हाल के बरसों में अलग-अलग चुनावों के वक्त सरकारें बिना आर्थिक बेबसी वाले तबकों को भी तरह-तरह से नगद या सामानों के जो तोहफे दे रही हैं, उससे उन राज्यों में विकास ठप्प होना तय है। जब सरकार अपनी कमाई से भी बाहर जाकर कर्ज लेकर लोगों में बांटती है, तो यह तय है कि जरूरी योजनाओं पर खर्च के लिए उसके पास पैसा ही नहीं बचेगा। फिर हाल ही में जिस तरह कर्नाटक के सरकारी ठेकेदारों ने प्रधानमंत्री को लिखकर भेजा है कि भाजपा की राज्य सरकार ठेकेदारों से चालीस फीसदी कमीशन मांग रही है, तो उससे भी यह तय है कि राज्यों के बजट का जो हिस्सा विकास कार्यों के लिए रहता है, उसका एक बड़ा हिस्सा इस तरह के भ्रष्टाचार में भी चले जाता है। इसलिए देश को इस बारे में सोचना चाहिए कि जनता के किस तबके को कौन सी बुनियादी जरूरतों के लिए मदद करना मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना नहीं है, और इन चीजों को बढ़ावा देना वोटरों को रिश्वत देने सरीखा काम है।
ऐसे ही वक्त याद पड़ता है कि देश में योजना आयोग नाम की एक संस्था थी जिसके सामने हर राज्य को अपने बजट और आर्थिक कार्यक्रम रखने पड़ते थे, और वहां से उसे कई किस्म की नसीहतें भी मिलती थीं, जानकारों के सुझाव मिलते थे। लेकिन चूंकि वह नेहरू के वक्त की बनी हुई संस्था थी, इसलिए यह जाहिर है कि अब उसकी जरूरत नहीं रह गई थी, और आज प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक में कुछ अफसर उस तरह की चर्चा कर रहे हैं जिस तरह कि बात योजना आयोग में औपचारिक रूप से होती थी, और राज्यों की काफी हद तक जवाबदेही भी तय रहती थी। आज जब जनता की सामूहिक चेतना इस हद तक गैरजिम्मेदार हो गई है कि उसे राज्य के दीवालिया हो जाने की कीमत पर भी मुफ्त के तोहफे सुहा रहे हैं, तो उसका वोट पाने के लिए राजनीतिक दल तो इस तरह की तोहफेबाजी करते ही रहेंगे। यह सिलसिला पता नहीं कहां जाकर थमेगा, शायद वहां तक जाए कि इसकी हालत श्रीलंका जैसी दीवालिया हो जाए।
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