संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वर्दियों के भीतर खुदकुशी की सोच अधिक क्यों?
24-Apr-2022 4:41 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  वर्दियों के भीतर खुदकुशी की सोच अधिक क्यों?

देश के एक बड़े अंग्रेजी अखबार द हिन्दू के एक पॉडकास्ट ने अभी सेना और सुरक्षाबलों के लोगों की आत्मघाती हिंसा के आंकड़ों को लेकर चर्चा की जा रही थी। फौज से अधिक आत्महत्याएं सीआरपीएफ जैसे पैरामिलिट्री सुरक्षाबलों के लोग करते हैं, लेकिन मीडिया और जनता इन्हें एक साथ गिन लेती हैं। इन दोनों में एक बुनियादी फर्क यह है कि फौज को अपने देश के दुश्मन देशों के साथ मोर्चों पर कभी-कभार जूझना पड़ता है, और उनका अधिकतर समय ऐसे कभी-कभार की तैयारी में ही गुजरता है, असल कभी-कभार के मौके हिन्दुस्तान जैसे देश में तो बहुत कम फौजियों की जिंदगी में एक-दो बार ही आते हैं। दूसरी तरफ पैरामिलिट्री सुरक्षाबल देश के भीतर अपने ही नागरिकों के मुकाबले तैनात किए जाते हैं जो कि नक्सल मोर्चों से लेकर कई और किस्म की जगहों पर अपने ही लोगों से जूझते हैं, और इसका एक अलग तनाव उन पर रहता है। फिर एक दूसरा बड़ा तथ्य यह भी है कि पैरामिलिट्री के मुकाबले मिलिट्री में सहूलियतें और रियायतें इतनी अधिक रहती हैं, उनके अपने अस्पताल और परामर्शदाता रहते हैं कि फौजियों को हर किस्म की मेडिकल और मानसिक मदद आसानी से मिलती है। दूसरी तरफ पैरामिलिट्री के लोग अधिक तनावपूर्ण मोर्चों पर तैनात रहते हैं लेकिन इन संगठनों के अपने खुद के अस्पताल या खुद के मनोचिकित्सा क्लिनिक नहीं रहते, और इनके लोग तैनाती के राज्यों में वहां के सरकारी इंतजाम के मोहताज रहते हैं।

लेकिन इन सबसे परे एक दूसरी चीज जो इन दोनों ही किस्म के सुरक्षा कर्मचारियों को खाती है, वह समाज में फैली हुई अराजकता, और सरकारों के भ्रष्टाचार का सामना। जब कोई फौजी या पैरामिलिट्री जवान छुट्टियों पर घर लौटते हैं तो उन्हें दिखता है कि देश के जिस लोकतंत्र के लिए वे बंदूक थामे हुए मुश्किल मोर्चों पर खड़े रहते हैं, वह लोकतंत्र हर गली-मोहल्ले में बिक रहा है। सरकारी दफ्तरों में बिना रिश्वत कोई काम नहीं होता, जमीन-जायदाद पर उनका कब्जा रहता है जिनके साथ अधिक लठैत रहते हैं, और तरह-तरह की सामाजिक बेइंसाफी उस लोकतंत्र के हाथ-पांव में हथकड़ी-बेड़ी बनकर पड़ी हुई है जिस लोकतंत्र को बचाने के लिए वे वर्दी पहनकर देश की सरहद पर तैनात हंै, या देश के भीतर गोलियां और गालियां झेल रहे हैं। ऐसे तनाव वर्दी के लोगों को हिंसक और आत्मघाती दोनों ही बना सकते हैं। बहुत से मामलों में सुरक्षाबलों की आत्महत्या इसलिए होती है कि परिवार की मुसीबत के वक्त उन्हें छुट्टी नहीं मिलती, और उन्हें यह मालूम रहता है कि बिना उनके गए उनके परिवार को कोई इंसाफ नहीं मिल सकता।

अब अभी आज ही उत्तरप्रदेश के बुलंद शहर की एक खबर है कि सीआरपीएफ में तैनात एक दलित जवान पुलिस के पास हिफाजत मांगने पहुंचा है कि वह जम्मू-कश्मीर में तैनात है, और अपनी शादी के लिए गांव आया है, लेकिन कुछ महीने पहले एक दलित की शादी में संगीत बजाने को लेकर एक ठाकुर ने एक दलित को मार डाला था, और उसे देखते हुए यह जवान अपनी शादी में घोड़ी पर चढक़र जाने के लिए पुलिस की हिफाजत चाहता है। अब जिस देश में एक दलित को अपनी शादी में घोड़ी पर चढऩे के लिए पुलिस हिफाजत जरूरी लगती हो, उस दलित को देश या लोकतंत्र को बचाने के लिए गोलियों या पत्थरों के मुकाबले तैनात किया जाता है, तो ऐसे लोकतंत्र पर उसकी कितनी आस्था हो सकती है? जिस जम्मू-कश्मीर में हर दो-चार दिनों में सुरक्षाबलों के जवान मारे जा रहे हैं, वहां तैनात एक जवान को अपने गांव अपने घर में ऐसी सामाजिक बेइंसाफी का भी सामना करना पड़ रहा है, तो ऐसे लोकतंत्र की हिफाजत के लिए उसके मन में कितना उत्साह रहेगा?

चूंकि फौज और सुरक्षाबल के लोग देश के बाकी सरकारी कर्मचारियों के मुकाबले जान का खतरा अधिक झेलते हैं, इसलिए उन्हें लोकतंत्र को खोखला कर रही कई किस्म की ताकतों से तकलीफ अधिक होती होगी। उनमें से कुछ को अपने धर्म और अपनी जाति पर हो रहे हमले खटकते होंगे, कुछ को ये खबरें मिलती होंगी कि उनके समाज में प्रचलित खानपान पर कुछ दूसरे लोग किस तरह के हमले कर रहे हैं। ऐसी तमाम बातें भी उनके तनाव को बढ़ाती होंगी, और वर्दी का अनुशासन उन्हें कुछ भी कहने से पूरी तरह रोकने वाला भी रहता है। जिन लोगों के पास बोलने या सोशल मीडिया पर लिखने की आजादी रहती है, उनकी भड़ास तो फिर भी निकल जाती है, लेकिन जिन लोगों के दिल का गुबार निकल नहीं पाता, वह गुबार बढ़ते-बढ़ते खुद पर या दूसरों पर बंदूक की नाल से निकली गोली की शक्ल में भी निकलता है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर के नक्सल मोर्चे पर भी सीआरपीएफ के जवानों में बड़ी संख्या में आत्महत्याएं होती हैं, और कभी-कभी अपने साथियों को मारकर भी जवान खुदकुशी कर लेते हैं। आमतौर पर ऐसी आत्महत्याओं के पीछे तात्कालिक कारण ढूंढे जाते हैं। यह नहीं देखा जाता कि लोग वर्दी के नियम-कायदों से बंधी हुई जुबान, बंधी हुई उंगलियों के चलते किस तरह के तनाव के और किस तरह की भड़ास के शिकार रहते हैं, और कोई तात्कालिक कारण ऊंट की कमर तोडऩे वाला आखिरी तिनका साबित होता है, अकेले जिम्मेदार नहीं रहता। सुरक्षाबलों में आत्महत्या का विश्लेषण उन्हीं के भरोसे छोडऩा ठीक नहीं होगा क्योंकि वे पारिवारिक और सामाजिक हकीकत पर जाने की क्षमता नहीं रखते। ऐसे में किसी बाहरी संस्था को ऐसे मामलों का विश्लेषण करना चाहिए ताकि खुदकुशी की वजहें घटाई जा सकें।
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