संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : क्या तीन दिन पहले के मुकाबले राजस्थान से कांग्रेस बेहतर निकली है?
16-May-2022 5:02 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : क्या तीन दिन पहले के मुकाबले राजस्थान से कांग्रेस बेहतर निकली है?

कांग्रेस पार्टी का तीन दिनों का विचार-विमर्श राजस्थान में पूरा हुआ, और पार्टी कई नए इरादों के साथ लौटी है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की दुहराई गई शिकस्त के बाद अभी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसके जमींदोज हो जाने पर पार्टी के भीतर बड़ी फिक्र चल रही थी, और तीन दिनों का यह चिंतन शिविर अपने आपको नवसंकल्प शिविर कहते हुए पूरा हुआ है। कल जब शिविर का तीसरा और आखिरी दिन चल रहा था, तो बहुत से लोगों के मन यह सवाल खड़ा हो रहा था कि कांग्रेस उसके सामने आज खड़े हुए सबसे बड़े सवाल का सामना करने से क्यों कतरा रही है? कांग्रेस में राहुल गांधी के भविष्य का क्या होगा, या राहुल के रहते हुए कांग्रेस का भविष्य क्या होगा, इस सबसे बड़े सवाल पर कोई चर्चा नहीं हुई। शायद पार्टी अपने ढांचे को लेकर इतने बड़े सवाल पर किसी चर्चा के लिए तैयार नहीं थी, और इसीलिए अगले छह महीनों में देश भर में पार्टी के खाली ओहदों पर तैनाती करने की बात कही गई। लेकिन एक और मुद्दा कांग्रेस के खिलाफ हमेशा से चले आ रहा है, और पार्टी पर कुनबापरस्ती की तोहमतें लगती ही रहती हैं, और इस बार फिर उस मुद्दे पर ऐसा ढुलमुल फैसला किया गया है जिसका कि कोई मतलब नहीं है। पार्टी ने यह तय किया कि संगठन में एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत लागू होगा, और इसी तरह एक परिवार, एक टिकट का नियम भी लागू होगा। किसी परिवार में दूसरे कोई सदस्य राजनीतिक तौर से सक्रिय हैं, तो पांच साल के संगठनात्मक अनुभव के बाद ही वे कांग्रेस टिकट के लिए पात्र माने जाएंगे। इसका मतलब यह हुआ कि एक परिवार के एक से अधिक लोग आज सांसद, विधायक, या संगठन में पदाधिकारी हैं, तो पांच साल इन ओहदों पर रहने पर एक परिवार से एक से अधिक लोग भी टिकट पा सकते हैं। इस रियायत के बाद इस रोक का कोई भी असर हॅंसी के लायक ही रह जाता है। कांग्रेस के प्रस्ताव की भाषा तो संगठन के ओहदे की बात भी नहीं कहती, संगठनात्मक अनुभव की बात कहती है जिसे किसी के भी नाम के साथ जोड़ा जा सकता है। खैर, कांग्रेस से ऐसे किसी भी फैसले की उम्मीद नहीं की जा सकती थी जो कि सोनिया परिवार की पकड़ को जरा भी कमजोर करने वाला हो। तीन दिनों की सारी कार्रवाई को देखें तो उसका लब्बो-लुआब यही है कि सोनिया, राहुल, और प्रियंका जैसा चाहें, वैसा रह सकते हैं।

लेकिन कल राहुल गांधी के एक लंबे भाषण में उन्होंने एक बात कही जो कि 2024 के आम चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ जाती हुई बात दिखती है। राहुल ने कहा कि देश में चल रही यह राजनीतिक लड़ाई लंबी है, यह लड़ाई क्षेत्रीय पार्टियां नहीं लड़ सकतीं, क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी को नहीं हरा सकतीं क्योंकि उनके पास विचारधारा नहीं है। राहुल ने कहा कि यह लड़ाई केवल कांग्रेस ही लड़ सकती है। इस सदी में कांग्रेस ने दस बरस लगातार देश पर राज किया है, और वह मोटे तौर पर क्षेत्रीय पार्टियों की मदद से ही यूपीए नाम का गठबंधन बनाकर किया है। पिछले दो आम चुनावों में तो कांग्रेस इस तरह मटियामेट हुई है कि उसकी अपनी गिनती उसे अगले कुछ चुनावों तक देश पर राज करने के करीब ले जाने की कोई संभावना नहीं दिखाती। मनमोहन सिंह सरकार पूरी तरह से क्षेत्रीय पार्टियों की मदद से बनी और चली थी, और उन दस बरसों के गठबंधन को अपनी पार्टी के एक मंच से इस तरह औपचारिक रूप से खारिज कर देना समझदारी की बात नहीं है। फिर यह कांग्रेस पार्टी का अहंकार ही दिखता है कि वह क्षेत्रीय पार्टियों को बिना विचारधारा का कह रही है, और यह कह रही है कि क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी को नहीं हरा सकतीं, और यह लड़ाई केवल कांग्रेस ही लड़ सकती है।

राहुल सहित तमाम कांग्रेस नेताओं के सामने यह बात साफ है कि कांग्रेस की मौजूदगी देश भर में बिखरी हुई जरूर है, लेकिन उसकी कोई ताकत बहुत से राज्यों में बची नहीं है। अभी उत्तरप्रदेश में चार सौ से अधिक सीटों पर पंजा छाप के उम्मीदवार थे, और इक्का-दुक्का सीटें पाकर कांग्रेस तकरीबन तमाम सीटों पर जमानत खो चुकी है। ऐसे में उत्तरप्रदेश में एक क्षेत्रीय पार्टी, समाजवादी पार्टी, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां कांग्रेस के मुकाबले अधिक मजबूत दिखती हैं, और क्षेत्रीय पार्टियों के महत्व को कम आंकना, खारिज कर देना, कांग्रेस की अदूरदर्शिता के अलावा कुछ नहीं है। ऐसी राष्ट्रीय पार्टी के साथ कौन सी क्षेत्रीय पार्टियां जाना चाहेंगी जिसका भूतपूर्व और भावी अध्यक्ष क्षेत्रीय पार्टियों को विचारधाराविहीन कहता है।

कांग्रेस के इस आयोजन में पार्टी को लेकर कई किस्म के छोटे-छोटे फैसले लिए गए, जो कि चेहरे को सजाने की कोशिश अधिक दिख रहे हैं। पिछले एक बरस से अधिक से पार्टी के दो दर्जन बड़े नेताओं ने लीडरशिप के सामने कई सवाल खड़े किए हैं, और तीन दिन लंबी इस चर्चा में भी पार्टी उन सवालों से बचकर निकल गई है, न तो पार्टी लीडरशिप पर उसने कुछ कहा, और न ही सोनिया परिवार पर। इन दोनों मुद्दों पर तमाम संभावनाओं को खुला रखकर, और अपने हाथ में रखकर आज की कांग्रेस लीडरशिप ने यथास्थिति कायम रखी है। कांग्रेस का ऐसा शिविर 2013 के बाद, यानी करीब दस बरस बाद हो रहा है, और यह कांग्रेस के मौजूदा खतरों को कहीं से भी कम करते नहीं दिखता है, न ही पार्टी की ऐसी नीयत दिखती है कि वह अपनी बुनियाद में आ चुकी कमजोरी को मंजूर करने को तैयार है। किसी भी समस्या का समाधान तभी निकल सकता है जब उस समस्या के अस्तित्व को माना जाए। आज कांग्रेस अपनी किसी भी बड़ी समस्या के अस्तित्व को ही मानने के लिए तैयार नहीं है, ऐसे में वे ही कांग्रेस नेता खुश होते हुए लौटे होंगे जिन्हें किसी पैमाने के तहत इस चिंतन शिविर में जाने का मौका मिला होगा। लेकिन ऐसी ही खुशी है जो कि पार्टी को अंधेरे में रखती है, खतरों की तरफ से उसकी आंखों को बंद रखती है। इस शिविर के बारे में तीन दिन पढऩे के बाद आज भी हमारे पास यह मानने की कोई वजह नहीं है कि यह पार्टी तीन दिन पहले के मुकाबले आज अधिक जागरूक और अधिक तैयार पार्टी है।
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