संपादकीय
हिन्दुस्तान में चारों तरफ से लगातार आ रही बुरी खबरों के बीच कोई एक अच्छी सरकारी खबर भी आ सकती है, इसकी उम्मीद कम ही रहती है। लेकिन आज महाराष्ट्र से ऐसी ही एक खबर आई है। वहां राज्य सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की तरफ से प्रदेश की एक ग्राम पंचायत, हेरवाड़, की मिसाल देते हुए सभी पंचायतों के लिए यह आदेश निकाला गया है कि किसी भी महिला के पति की मृत्यु होने पर उसकी चूडिय़ां तोडऩे, माथे से सिंदूर पोंछने, और मंगलसूत्र निकालने की प्रथा खत्म की जाए। एक ग्राम पंचायत ने ऐसी मिसाल कायम की है, और उसकी चारों तरफ तारीफ भी हो रही है। उसका जिक्र करते हुए सरकार ने पूरे प्रदेश से इस प्रथा को खत्म करना तय किया है। यह बात कुछ लोगों को सरकार के दायरे के बाहर की लग सकती है क्योंकि ऐसे लोगों को यह लगता है कि सामाजिक प्रथाएं सरकार के काबू के बाहर रहनी चाहिए, ठीक उसी तरह जिस तरह कि हिन्दुस्तान में आज बहुत से लोगों को लगता है कि बहुसंख्यक तबके की धार्मिक भावनाएं संविधान से ऊपर हैं। हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक मर्दों को यह लगता है कि औरतों को कुचलने के लिए जितने तरह के रीति-रिवाज बनाए गए हैं वे जायज हैं, और धार्मिक या जातिगत संस्कारों के अंगने में सरकार का क्या काम है?
इस देश में महिलाओं के बराबरी के कानूनी दर्जे, और उनके लिए बनाए गए तरह-तरह के कानूनों के बावजूद उनकी स्थिति बहुत कमजोर है। परिवार में न सिर्फ गृहिणी को आखिर में खाना नसीब होता है, बल्कि किसी लडक़ी को भी अपने भाई के मुकाबले कम पढ़ाई, कम इलाज, और यहां तक कि कम खाना भी नसीब होता है। मुम्बई के टाटा कैंसर अस्पताल का एक सर्वे है कि वहां पहुंचने वाले कैंसर पीडि़त बच्चों में से लडक़ों को तो अधिकतर मां-बाप इलाज के लिए लेकर आते हैं, लेकिन बहुत ही कम लड़कियों को जांच के नतीजे के बाद इलाज के लिए लाया जाता है। दोनों ही किस्म की संतानें उन्हीं मां-बाप की रहती हैं, लेकिन जन्म के पहले अगर कन्या भ्रूण हत्या करने की सहूलियत नहीं रहती, तो बाद में भेदभाव करके उस गंवाए हुए मौके को दुबारा हासिल कर लिया जाता है। भारतीय समाज में पत्नी खोने वाले किसी आदमी के कपड़े, हुलिए, या उसकी किसी और बात से उसके विधुर होने का पता नहीं लगता है, लेकिन पति खोने वाली महिला को सती बनाना अब मुमकिन नहीं रह गया है, इसलिए उसे विधवाश्रम के लायक बनाकर, खुशी के मौकों पर घर के पीछे के बंद कमरे में धकेलकर, उसके रंगीन कपड़े छीनकर, उसका सिर मुंडाकर, उसके गहने और सिंदूर हटाकर, उसका मांसाहार और प्याज-लहसुन तक छीनकर समाज एक औरत को उसकी औकात दिखा देता है। इसलिए ऐसे समाज में सुधार के लिए महिलाओं के मुद्दे चर्चा में भी बने रहना जरूरी है, और जैसा कि महाराष्ट्र सरकार ने इस ताजा फैसले में किया है, सरकार और समाज को इस सुधार के लिए लगातार कोशिश करना भी जरूरी है।
महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए इस देश में महिला आरक्षण जैसे मुद्दे को आगे बढ़ाना चाहिए था, लेकिन आज देश में कोई भी राजनीतिक दल इसकी चर्चा भी नहीं करते। और तो और जिस कांग्रेस पार्टी ने उत्तरप्रदेश में अभी प्रियंका गांधी की अगुवाई में 40 फीसदी उम्मीदवार महिलाओं को बनाया था, उसने भी अपने ताजा तीन दिनों के चिंतन शिविर में महिलाओं के बारे में कुछ भी नहीं कहा। इंदिरा गांधी के बाद सोनिया गांधी इस पार्टी की दूसरी महिला मुखिया हैं, और प्रियंका गांधी को अगली मुखिया बनाने की सलाह हवा में तैर ही रही है। लेकिन इस पार्टी के राज वाले गिने-चुने बचे प्रदेशों में भी विधानसभा में महिला आरक्षण लागू करने का कोई प्रस्ताव तक नहीं उठाया जा रहा जिससे कि केन्द्र के पाले में गेंद फेंककर महिला आरक्षण को एक बार फिर चर्चा में लाया जा सकता था। कांग्रेस पार्टी के सामने यह एक ऐतिहासिक मौका था कि उसके पास देश में खोने के लिए कोई सीटें भी नहीं हैं, कुल पचासेक सीटें उसके पास लोकसभा में रह गई हैं, और ऐसे में वह उत्तरप्रदेश वाले महिला उम्मीदवारी के फॉर्मूले को पूरे देश के लिए घोषित कर सकती थी, लेकिन यह जाहिर है कि इस पार्टी के भीतर भी महिलाओं का अनुपात कोई मुद्दा नहीं रह गया है, और उत्तरप्रदेश का चुनाव खोने के बाद पार्टी ने बड़ी सहूलियत से महिलाओं के मुद्दे को भुला दिया है। कम ही लोगों को यह याद होगा कि पिछले आम चुनाव में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, और राजस्थान, इन तीनों कांग्रेस-प्रदेशों में कुल तीन कांग्रेस सांसद चुने गए थे जिनमें छत्तीसगढ़ की श्रीमती ज्योत्सना महंत भी एक थीं। इसी तरह उत्तरप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में दो कांग्रेस विधायक चुने गए जिनमें से एक आराधना मिश्रा थीं। गांव-गांव में महिला पंच-सरपंच अलग-अलग जाति आरक्षण के साथ भी उम्मीदवारी के लिए भी मिल जाती हैं और जीतकर भी आती हैं। लेकिन कोई राजनीतिक दल उन्हें आबादी के अनुपात में टिकट देने को तैयार नहीं होते। भारतीय लोकसभा में आज कुल 14 फीसदी महिला सांसद हैं जबकि अफ्रीका में सबसे कम महिला सांसद केन्या में हैं, जो कि 22 फीसदी हैं। इसलिए आज जब महाराष्ट्र सरकार के इस महिला के हक के फैसले की हम तारीफ कर रहे हैं, तब देश की एक सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूख पर अफसोस भी जाहिर कर रहे हैं कि जब इस पार्टी के पास खोने को कुछ नहीं बचा है, तब भी उसने महिलाओं के हक की बात करने का यह मौका खो दिया है।
आज जब इस बारे में हम लिख रहे हैं तब भारत का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण सामने है। केन्द्र सरकार के आंकड़े कहते हैं कि सर्वेक्षण में शामिल हुए 80 फीसदी हिन्दुस्तानी कम से कम एक बेटा होने की चाह रखते हैं। और इस चाहत के चलते दो बेटों के बाद तीसरी बेटी हो या न हो, दो बेटियों के बाद तीसरा बेटा तो हो ही जाता है। बच्चों के जन्म के समय लडक़े और लडक़ी का फर्क समाज में जीवनसाथी खो चुके आदमी और औरत के बीच फर्क तक जारी रहता है, और इसे टुकड़े-टुकड़े में नहीं सुधारा जा सकता। महाराष्ट्र सरकार की यह ताजा पहल देश के बाकी प्रदेशों में भी आगे बढ़ाने की जरूरत है, क्योंकि वृन्दावन के विधवाश्रमों में बेसहारा विधवा महिलाएं तो पूरे देश से ही भेजी जाती हैं।
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