संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लोकतांत्रिक लगता औजार, तानाशाही का बना हथियार
21-May-2022 4:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   लोकतांत्रिक लगता औजार, तानाशाही का बना हथियार

सोशल मीडिया कुछ ईश्वर की तरह हो गया दिखता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। खुद हमें कई बार सोशल मीडिया एक सबसे बड़ा लोकतांत्रिक औजार लगता है, लेकिन अधिक दिन नहीं गुजरते कि यह साबित होने लगता है कि यह आज का सबसे बड़ा पूंजीवादी और तानाशाह हथियार है। जब अलग-अलग लोगों को बिना खर्च किए हुए सोशल मीडिया पर अपनी बात कहने का मौका मिलता है, तो यह एक अभूतपूर्व लोकतांत्रिक ताकत लगती है। लेकिन जब हवा के इन झोंकों को एक ताकत और योजना के साथ एक ऐसी तरफ मोड़ दिया जाता है कि लोकतंत्र को पीछे छोडक़र तरह-तरह के बाहुबल दुनिया का जनमत अपने हिसाब से हांकने लगें, तब इस लोकतांत्रिक दिखते औजार का खतरा समझ आता है। आज जब दुनिया में रूस और यूक्रेन को लेकर जनमत बनने की बात आती है, या दूसरे एक अलग मोर्चे पर फिलीस्तीनियों पर इजराइली जुल्म जारी हैं, और इस पर अमरीकी जुबानी जमाखर्च दिख रहा है, तो ऐसे में जनमत को प्रभावित करने वाले औजारों की लोकतांत्रिकता के बारे में सोचने की जरूरत लगती है। फिर बाहर ही क्यों देखें, हिन्दुस्तान के भीतर हिन्दू-मुस्लिम से लेकर पप्पू और फेंकू नाम के खेमों में बंटे हुए लोगों के बीच सोशल मीडिया पर जिस तरह की जंग छिड़ी है, क्या वह सचमुच ही एक लोकतांत्रिक औजार को लेकर जनमत बनाने की कोशिश है, या कि इस औजार को लूटकर उसे हथियार बनाकर एक संगठित गिरोह की तरह किया जा रहा हमला है? इस हथियार के साथ एक दूसरी दिक्कत यह है कि हमलावर जब चाहे अपनी फौज को और इस हथियार को लोकतांत्रिक औजार बता सकते हैं, और ऐसे औजार से मानवीय मूल्यों का सामूहिक मानव संहार भी कर सकते हैं। दिखने में जो सडक़ किनारे प्याऊ के पानी की गिलास है, वह एक साजिश के तहत नफरत के जहर का सैलाब फैलाने के काम में लाई जा रही है, और सोशल मीडिया नाम का यह प्याऊ जनसेवा की वाहवाही भी पा रहा है।

इसने लोकतंत्रों में एक इतनी भयानक नौबत ला दी है जितनी भयानक नौबत अमरीका में सबसे विनाशकारी बवंडरों से आते दिखती है, जिससे शहर के शहर उजड़ जाते हैं। लोकतंत्र और सभी किस्म के बेहतर मूल्यों और सिद्धांतों को खत्म करने के लिए सोशल मीडिया आज सबसे बड़ा हथियार बनकर सामने आ गया है, और ट्विटर पर जब चाहे तब नफरतजीवी लोग अपनी मर्जी के एजेंडा को ट्रेंड करवा सकते हैं, यानी उस एक पल उनके पसंदीदा शब्दों के साथ नफरत की सुनामी बाकी तमाम मुद्दों के पैर उखाड़ सकती है, उन्हें बहाकर किनारे कर सकती है। दिखने में जो लोकतांत्रिक दिखता है उस पर पूंजीवादी, तानाशाह, और नफरतजीवी ताकतों ने इतने संगठित तरीके से कब्जा कर लिया है और उसके बेजा इस्तेमाल की तकनीक विकसित कर ली है कि अहिंसा की बातें हाशिए पर ही बनी रहती हैं, वे कभी ट्रेंड नहीं हो पातीं।

कहने के लिए यह एक लोकतांत्रिक आजादी है जो कि हर किस्म के लोगों को मिली हुई है, और नफरत के विरोधी भी चाहें तो अपने पसंदीदा मुद्दों को ट्रेंड करवा सकते हैं। लेकिन सच तो यह है कि अमन-चैन की बातों को आगे बढ़ाने के लिए साथ देने वाले आएंगे कहां से? हिन्दुस्तान में हम देखते हैं कि साम्प्रदायिक सद्भाव और मोहब्बत की बातें करने वाले लोगों पर नफरतजीवियों का झुंड इस तरह टूट पड़ता है कि जैसे जंगल में कोई अकेला कमजोर प्राणी मांसाहारियों से घिर गया हो। और यह हमलावर झुंड जब अपने धर्म से अधिक, दूसरों से नफरत से भरा हुआ रहता है, तो उसके नाखून और दांत अधिक तेज रहते हैं, उसके पंजों की ताकत अधिक रहती है, और जब ऐसे झुंड को एक संगठित समर्थन भी हासिल रहता है, सत्ता से लेकर न्याय प्रक्रिया तक उसे हिफाजत हासिल रहती है, तो फिर उसके हमले बुलडोजर पर सवार रहते हैं, और वह इतिहास के भी नीचे पुरातत्व तक को खोद डालने पर आमादा रहता है।

अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव से लेकर हिन्दुस्तान के राजनीतिक और साम्प्रदायिक एजेंडा को तय करने में सोशल मीडिया जिस भयानक तरीके से एक हथियार की तरह कुछ लोगों को हासिल है, उससे लगता है कि मार्क जुकरबर्ग से लेकर ट्विटर के पंछी तक ने अपने आपको सुपारी लेकर भाड़े के हत्यारे की तरह काम करने के लिए पेश किया हुआ है। चूंकि हिन्दुस्तान में इन चीजों को लेकर कुछ तो लोगों की समझ कम है, और कुछ आज की सत्ता को इनसे सहूलियत हासिल है, इसलिए यहां इनके खतरों पर अधिक चर्चा नहीं हो रही है। दूसरी तरफ अमरीका और पश्चिम के कई देशों में सोशल मीडिया की बेकाबू दिखती, लेकिन पूरी तरह से काबू में काम करती विनाशकारी ताकत पर संसदों में सवाल किए जा रहे हैं। हिन्दुस्तान आज अपने इतिहास की सबसे अधिक हिंसक धमकियां सोशल मीडिया पर ही देख रहा है, लेकिन इस देश का बहुत कड़ा बनाया गया सूचना तकनीक कानून भी सोशल मीडिया पर चुन-चुनकर लोगों का शिकार कर रहा है, और हिंसक खूनी जत्थों को अनदेखा भी कर रहा है।

लोकतंत्र में चुनाव प्रचार के लिए या बाकी वक्त भी जनमत को प्रभावित करने के लिए जो परंपरागत तरीके चले आ रहे थे, वे एकाएक पेनिसिलीन की तरह बेअसर हो गए दिखते हैं। अब लोगों को भडक़ाने के लिए जिस तरह सोशल मीडिया की ताकत का इस्तेमाल हो रहा है, वह लोकतंत्र के नाम पर बाहुबल और नफरत की एक नई इबारत लिख रहा है। और आज जब हिन्दुस्तान जैसे देश में लोगों की निजी और सामूहिक जनचेतना का अधिकतर हिस्सा मिट्टी में मिल चुका है, तब संगठित हिंसा को सोशल मीडिया की लहरों पर सवार करके उसे आसमान तक पहुंचाना आसान हो गया है। लोकतंत्र के लिए यह बहुत फिक्र की बात है कि करीब एक सदी में इस देश में जो लोकतांत्रिक चेतना विकसित हुई थी, वह पिछले एक दशक की सोशल मीडिया की सुनामी में पूरी तरह शिकस्त पा चुकी है। यह सोच कुछ लोगों के लिए थोड़ी सी जटिल लग सकती है, लेकिन इस पर सोचा जाना जरूरी है।
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