संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नैतिकता के बोझ से मुक्त हिन्दुस्तानी लोकतंत्र अब..
01-Sep-2022 3:59 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  नैतिकता के बोझ से मुक्त हिन्दुस्तानी लोकतंत्र अब..

पुर्तगाल में एक भारतवंशी गर्भवती पर्यटक महिला को वहां के सबसे बड़े अस्पताल में ले जाया गया, लेकिन वहां उसे भर्ती नहीं किया गया, और दूसरे अस्पताल भेजा गया। लेकिन दूसरे अस्पताल पहुंचने के पहले हार्टअटैक से उसकी मौत हो गई। इस बात को अपनी निजी कामयाबी मानते हुए वहां की स्वास्थ्य मंत्री डॉ. मार्ता टेमिडो ने इस्तीफा दे दिया है। खबरें बताती हैं कि वे 2018 से स्वास्थ्य मंत्री थीं, और कोरोना के दौर में उन्होंने हालात बहुत अच्छी तरह सम्हाले थे। अपने विभाग या अपनी सरकार की किसी बहुत बड़ी चूक की वजह से अपनी कुर्सी छोड़ देना हिन्दुस्तान में कुछ दशक पहले तक एक लोकतांत्रिक परंपरा मानी जाती थी, और किसी बड़ी रेल दुर्घटना के बाद रेलमंत्री इस्तीफा देते थे, हालांकि कोई मंत्री खुद तो रेलगाड़ी चलाते नहीं हैं, न ही वे सिग्नल देते पटरियों के किनारे रहते हैं, लेकिन कानूनी जवाबदेही से परे नैतिक जवाबदेही का दायरा बड़ा होता है, और उसे मानने वाले लोग सचमुच के बड़े लोग होते हैं। आज जब किसी कुर्सी पर तब तक चिपके रहना, जब तक कि कानून के लंबे हाथ आकर टेंटुआ दबाकर घसीटकर न ले जाएं, का चलन है, तब हिन्दुस्तान में नैतिकता के अधिकार पर इस्तीफे की बात भी सुने लंबा अरसा गुजर गया है। पिछले दिनों किसान आंदोलन के दौरान जब एक केन्द्रीय मंत्री के बददिमाग और खूनी बेटे ने अपनी गाड़ी से किसानों को कुचलकर मार डाला था, तब उसकी गिरफ्तारी और चार्जशीट के बाद भी, देश भर से मांग उठने के बाद भी इस बेशर्म मंत्री ने कुर्सी नहीं छोड़ी थी। बिहार और गुजरात जैसे शराबबंदी वाले राज्यों में लोग थोक में जहरीली शराब पीकर मरे हैं, लेकिन इसके लिए किसी जिम्मेदार ने कोई इस्तीफा नहीं दिया। आज सत्ता पर पहुंच गए लोग जिस तरह कुर्सी से चिपककर बैठते हैं, उसे देखकर देह में चिपक जाने वाली जोंक भी शरमा जाती है कि वह मुकाबले में कहीं नहीं टिकती।

हिन्दुस्तानी लोकतंत्र अब पूरी तरह से अदालत से सजा मिल जाने के ठीक पहले तक सत्ता का मजा पाते रहने वाली हो गई है। अब या तो सरकार और पार्टी के मुखिया ही किसी की कुर्सी छीन लें, तो अलग बात है, अपने खुद के जुर्म किसी को यह अहसास नहीं कराते कि उन्हें अपनी पार्टी और सरकार को और अधिक बदनाम न करना चाहिए, न होने देना चाहिए। इस बुनियादी इंसानियत की जगह भी आज लोगों के नैतिक मूल्यों में नहीं रह गई है। जो लोग, बड़े-बड़े ताकतवर मंत्री भी, जिन बड़े जुर्मों में पकड़ा रहे हैं, वे भी आखिरी सांस तक सत्ता पर बने रहना चाहते हैं, और शर्मिंदगी के साथ चुप घर बैठने का सिलसिला खत्म ही हो गया है। और बेशर्मी का यह सिलसिला बहुत नया भी नहीं है। मायावती और लालू यादव सरीखे लोग सैकड़ों करोड़ की अनुपातहीन सम्पत्ति के मामले में अपने कुनबे सहित पकड़ाए जा चुके हैं, एक पांव अदालत में है, और एक पांव पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी पर है, और भविष्य जेल में है, लेकिन पार्टी के सुप्रीमो बने हुए हैं। उधर दक्षिण में जयललिता की अथाह काली कमाई का यही हाल था, देश भर में जगह-जगह नेताओं की दौलत भ्रष्टाचार की आदी जनता को भी हक्का-बक्का करने की ताकत रखती है। रबर स्लीपर पहनने वाली, बिना कलफ की सादी साड़ी वाली ममता बैनर्जी की सादगी किस काम की जब भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे उनके मंत्री की महिलामित्र के घर से पचास करोड़ के नोट निकलते हैं?

हिन्दुस्तान की राजनीति में जिम्मेदारी, वफादारी, ईमानदारी, इन सबका विसर्जन कर दिया गया है। अब लोग कालेधन की गुंडागर्दी से पार्टी में आगे बढ़ते हैं, साम्प्रदायिकता और जातिवाद की हिंसा से बड़े नेता बनते हैं, और चापलूसी या कुनबापरस्ती से बड़े ओहदे पाते हैं। फिर बड़े ओहदों की ताकत से वे और बड़ी गुंडागर्दी करते हैं, अपने पसंदीदा मुजरिमों को कारोबारी बनवाते हैं, और अपना भविष्य तिजौरियों में महफूज रखते हैं। यह सिलसिला इतना आम हो गया है, और जनता का एक बड़ा हिस्सा इनको लोकतंत्र मानने का इतना आदी हो गया है कि इनमें से कोई खामी लोगों को चुनाव नहीं हरवाती। इसलिए अब लोग इस परले दर्जे के बेशर्म हो गए हैं कि उनके मंत्रालय के मातहत, या उनके देश-प्रदेश में कितने भी बुरे काम होते रहें, वे खुद कितनी भी बड़ी गलतियां करते रहें, उनके मन में कभी भी कुर्सी से हटने का कमजोर खयाल नहीं आता। हिन्दुस्तान के नेता अब अपनी मुसीबत को देखते हुए कभी यह कहते हैं कि उनका फैसला जनता की अदालत में होगा, और कभी यह कहते हैं कि उनका फैसला कानून की अदालत में होगा। जिस अदालत में वे हार जाते हैं, वहां से निकलकर वे दूसरी अदालत का रूख करने लगते हैं।

जेलों से निकले संगठित हत्यारों और बलात्कारियों का माला और मिठाई से, तिलक और आरती से स्वागत करने वाला समाज अब किसी भी तरह की नैतिकता के बोझ से मुक्त हो गया है। लोकतंत्र अब पूरी तरह अदालतों के फैसलों से तय होने लगा है, यह एक अलग बात है कि अदालतों में फैसला देने वाले लोग किस तरह तय होने लगे हैं, यह भी लगातार खबरों में है, और वे किन वजहों से कैसे फैसले देते हैं, यह भी खबरों में है। जिस देश में लोकतंत्र की सभी संस्थाएं एक संगठित माफिया की तरह मिलकर काम करने लगें, उस देश में सुरंग के आखिरी सिरे पर दिखती रौशनी की एक किरण सरीखी भी रौशनी नहीं दिखती। हिन्दुस्तान का लोकतंत्र आज एक ऐसे ही पूर्ण सूर्यग्रहण से ढंक गया दिखता है, और यह ग्रहण घटता नहीं दिख रहा है। इसलिए एक मौत को लेकर देश की स्वास्थ्य मंत्री के इस्तीफे जैसी खबरें हमें दुनिया के दूसरे देशों से ही मिलती रहेंगी, जहां सूर्यग्रहण इतना पूर्ण नहीं होगा।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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