संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : साइरस मिस्त्री की मौत से शुरू हुई चर्चा का इस्तेमाल बाकी जिंदगियां बचाने में हो
06-Sep-2022 2:42 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  साइरस मिस्त्री की मौत से शुरू हुई चर्चा का इस्तेमाल बाकी जिंदगियां बचाने में हो

दो दिनों से हिन्दुस्तान का मीडिया टाटा के एक भूतपूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री की सडक़ हादसे में मौत को लेकर अटकलें लगा रहा है कि एक नामी-गिरामी कंपनी की सुरक्षित कार के हादसे में किस तरह सामने बैठे दो लोग तो बच गए, पीछे बैठे दोनों लोग मर गए, और कार का बोनट तक नहीं टूटा है। कुछ लोग पेशेवर अपराधकथा-लेखक की तरह जुट गए हैं कि इस हादसे के पीछे कोई साजिश तो नहीं है। कार सवार चारों लोग पारिवारिक दोस्त थे, और कोई पेशेवर ड्राइवर इसके लिए नहीं रखा गया था। इस बात को भी लोग संदिग्ध और रहस्यमय मान रहे हैं कि इतने लंबे सफर में कोई ड्राइवर क्यों नहीं रखा गया था। खैर, साइरस मिस्त्री टाटा की कंपनियों में सबसे अधिक शेयरों के मालिक हैं, और कंपनी के साथ लंबी कानूनी लड़ाई के चलते वे कुछ बरस खबरों में भी थे, और दो बड़े कारोबारियों के बीच कत्ल करवाना फिल्मों में दिखते भी रहता है, इसलिए इस मामले में भी ऐसे शक पर टिकी चर्चाएं जारी हैं।

लेकिन हम इस हादसे के एक तकनीकी पहलू पर बात करना चाहते हैं जिससे बाकी हिन्दुस्तान भी सबक ले सकता है। शुरुआती पुलिस जानकारी से पता लगता है कि सामने की दोनों सीटों वाले लोगों ने सीट बेल्ट लगाए हुए थे, और पीछे के दोनों लोगों ने नहीं लगाए थे। ऐसा अंदाज है कि पीछे के लोग दोनों सीटों के बीच दबकर ही मर गए। अब तमाम महंगी कारों में पीछे भी सीट बेल्ट रहते हैं, और किसी टक्कर की नौबत में हर सीट बेल्ट उस मुसाफिर को सीट से बांधकर रखता है, इसलिए जान बचाने में सीट बेल्ट का सबसे बड़ा योगदान रहता है। फिर जो जानकार लोग लिख रहे हैं, उसके मुताबिक कारों में लगे हुए एयरबैग किसी टक्कर की हालत में तभी काम करते हैं जब सीट बेल्ट लगा होता है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि अगर कार सडक़ किनारे बंद खड़ी है, उसमें कोई मुसाफिर नहीं है, सीट बेल्ट नहीं लगा है, तो टक्कर की हालत में उसके सीट बेल्ट खुलने की जरूरत नहीं रहती जिसे वापिस लगवाने में खासा खर्च भी होता है। इसलिए अगर चलती हुई कार में भी सीट बेल्ट नहीं लगे हैं तो उसके एयरबैग नहीं खुलते, और कार की यह पूरी सुरक्षा-प्रणाली बेकार हो जाती है। आज हिन्दुस्तान में हालत यह है कि कुछ महानगरों को छोड़ दें, तो बाकी पूरे देश में लोग सीट बेल्ट लगाने जितना आसान काम भी नहीं करते हैं जिससे कि उनकी जिंदगी जुड़ी हुई है।

अब यहां पर सरकार की जिम्मेदारी आती है कि वह अपनी पुलिस से ऐसे तमाम लोगों का चालान करवाए जो कि बिना सीट बेल्ट चलते हैं, दुपहिया पर बिना हेलमेट चलते हैं, या मोबाइल फोन पर बात करते हुए चलते हैं, नशे में या अधिक रफ्तार से चलते हैं। इनमें से हर बात को अब कैमरों में भी दर्ज किया जा सकता है, और हर चौराहे पर पुलिस की तैनाती भी जरूरी नहीं है। लेकिन आमतौर पर यह देखने में आता है कि सत्तारूढ़ पार्टी अराजक जनता पर भी कोई कार्रवाई करवाना नहीं चाहती कि नाराज वोटर अगली बार खिलाफ वोट न दे दें। दुनिया के दूसरे विकसित देशों में 25 बरस पहले से सुरक्षा कैमरे चौराहों पर नियम तोडऩे वाली गाडिय़ों की तस्वीर सहित कम्प्यूटर से बने चालान लोगों के फोन पर एक मिनट के भीतर ही पहुंचा देते हैं, और ईमेल आने की बीप सुनते ही लोग समझ जाते हैं कि लालबत्ती तोडऩे का सैकड़ों डॉलर का चालान आ गया है। हिन्दुस्तान कहने के लिए विकसित देश होने का दावा करता है, लेकिन यहां सार्वजनिक जगहों पर नियमों को लागू करवाने का काम सबसे ढीला है। जब सरकारें यह मान लेती हैं कि अराजक को भी नाराज नहीं करना है, तो हालत लगातार बिगड़ते चले जाना तय रहता है।

छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में पुलिस ने यह करके देखा है कि चौराहों पर लगे कैमरों से मिली तस्वीरों से लोगों के घर चालान भेजा जा सकता है। लेकिन मानो यह कोई वैज्ञानिक परीक्षण रहा हो, इसके कुछ नमूने जनता के सामने पेश करने के अलावा इसका बड़े पैमाने पर कोई इस्तेमाल नहीं किया गया। इससे सरकार को कमाई ही होती है, और लोगों की जिंदगी बचती है, लेकिन अलग-अलग जगहों पर पुलिस या तो भ्रष्ट रहती है, या लापरवाह और निकम्मी, और कई जगहों पर ये दोनों ही बातें लागू होती हैं। यह तो राज्य के राजनीतिक नेतृत्व के भी समझने की बात रहती है कि किसी भी सभ्य प्रदेश में सार्वजनिक जीवन में लोगों को जिम्मेदार बनाने का काम उस प्रदेश की तस्वीर बेहतर बनाने के काम भी आता है। दूसरे प्रदेशों से जो लोग किसी भी सिलसिले में आते हैं, वे शहरी विकास देखने के साथ-साथ ट्रैफिक देखकर भी समझ जाते हैं कि राज्य में नियमों का कितना पालन हो रहा है।

लेकिन इससे भी अधिक जरूरी एक बात यह है कि लोग जिंदगी में पहली बार अगर कोई कानून तोड़ते हैं, तो सबसे अधिक संभावना इसी बात की रहती है कि वह ट्रैफिक कानून हो। यहां से नियम-कानून की हिकारत का जो सिलसिला शुरू होता है, वह फिर आगे बढ़ते चलता है। अभी जिन शहरों में नौजवान रोजाना चाकूबाजी कर रहे हैं, हमारा अंदाज है कि इन्होंने ट्रैफिक नियम तोडऩे से गुंडागर्दी शुरू की होगी, और जब उस काम से उन्हें किसी ने नहीं रोका होगा, उस पर कोई जुर्माना या सजा नहीं भुगतना पड़ा होगा, तो फिर धीरे-धीरे वह अराजकता बढक़र उन्हें कातिल तक बना देती है। आम लोगों की जिंदगी का पहला जुर्माना हर मामले में ट्रैफिक चालान ही होता होगा, और अगर वहीं से उन्हें एक सबक मिलते चलता है, तो वे आगे अधिक बड़े मुजरिम बनने का खतरा कुछ कम रखते हैं। इसलिए ट्रैफिक नियम तोडऩे वालों पर तुरंत ही कड़ी कार्रवाई इसलिए होनी चाहिए कि आगे जाकर ये लोग कोई कत्ल या बलात्कार करने का हौसला न जुटाएं। शुरुआत में ही पुलिस से वास्ता पड़ जाए, जो जुर्माना देना पड़े, वह नुकसान उन्हें याद रहता है।

कहने के लिए सरकार और उसके अफसर यह कह सकते हैं कि जिन लोगों को अपनी जान की फिक्र नहीं उन्हें सरकार भी क्या बचा लेगी। लेकिन हकीकत यह है कि लोगों को जिम्मेदार बनाना सरकार की एक जिम्मेदारी रहती है। पहले लोग सिनेमाघरों में सिगरेट पीते थे, सरकार ने उस पर जुर्माना लगाया, और दूसरी कई सार्वजनिक जगहों पर भी रोक लगाई, और नतीजा यह है कि आने वाले बरसों में उस पर बहुत हद तक अमल भी होने लगा। आज सच तो यह है कि सरकार के ट्रैफिक से जुड़े विभागों को अराजक लोगों के साथ किसी रियायत करने का हक भी नहीं है, क्योंकि ऐसे लोग अपनी और दूसरों की जिंदगी के लिए खतरा रहते हैं। एक बड़े कारोबारी की ऐसी मौत के बाद लगातार खबरों में सीट बेल्ट की चर्चा को देखते हुए ट्रैफिक पुलिस को हर जगह कड़ाई बरतनी चाहिए, और एक-एक बार जुर्माना देने के बाद कम ही लोग होंगे जो कि दुबारा जुर्माना देने का नुकसान उठाएंगे। दुनिया के जिम्मेदार देशों में बार-बार नियम तोडऩे वाले लोगों के ड्राइविंग लाइसेंस रद्द करने का भी नियम रहता है, और हिन्दुस्तान में भी जिम्मेदार आम लोगों की जान बचाने के लिए ऐसी सजा देनी चाहिए।
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