संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मौतें तो यूपी में हुईं, लेकिन बाकी देश क्या उससे बेहतर?
02-Oct-2022 2:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  मौतें तो यूपी में हुईं, लेकिन बाकी देश क्या उससे बेहतर?

उत्तरप्रदेश के कानुपुर में एक मंदिर से मुंडन कराकर लौट रहे लोगों की ट्रैक्टर-ट्रॉली एक तालाब में जा गिरी, और 27 लोग मारे गए। ट्रैक्टर चला रहे आदमी के बेटे का ही मुंडन था, और तमाम लोग रिश्तेदार और करीबी लोग थे। मुंडन से लौटते हुए रास्ते में सभी ने शराब पी थी, और ड्राइवर खुद नशे में अंधाधुंध रफ्तार से ट्रैक्टर-ट्रॉली दौड़ा रहा था। अब जब हादसा हो ही गया है तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि ट्रैक्टर-ट्रॉली का इस्तेमाल सिर्फ सामान ढोने के लिए होना चाहिए, और अगर इसमें लोगों को ढोया गया तो उस पर कड़ी कार्रवाई होगी।

यह हादसा उत्तरप्रदेश में जरूर हुआ है, लेकिन देश के अधिकतर हिस्सों में ट्रैफिक नियमों का यही हाल है। ट्रैक्टर-ट्रॉली के अलावा ट्रक और दूसरे मालवाहक इंसानों को ढोकर चलते हैं। इनमें किसी तरह की कोई हिफाजत तो हो नहीं सकती है, और ऐसा भी नहीं कि ये किसी धार्मिक या पारिवारिक कार्यक्रम में आने-जाने वाले लोग ही हों, कारोबारी गाडिय़ों में मुसाफिरों को ले जाने का काम ग्रामीण भारत में जगह-जगह देखने मिलता है। और अभी जब एक बड़े कारोबारी की कार हादसे में मौत हुई, और केन्द्र सरकार ने कारों में पीछे की सीट पर बैठे हुए लोगों के लिए भी सीट बेल्ट जरूरी करने की बात कही, तो लोगों ने देश भर से गाडिय़ों की छतों पर लबालब सवार लोगों की तस्वीरें पोस्ट कीं कि ये कौन सा सीट बेल्ट लगाएंगे? इंसान की जिंदगी इस कदर सस्ती मान ली गई है कि उसे बचाने की कोई भी कोशिश न की जाए, तो भी सरकार की साख पर अब सवाल नहीं उठते। एक वक्त था जब राजनीतिक सभाओं के लिए लोगों को इसी तरह ट्रैक्टर-ट्रॉली और ट्रकों में ढोया जाता था। अब लोग खुद अपने हक की मांग करने लगे हैं, और वे बसों या दूसरी मुसाफिर गाडिय़ों के बिना किसी सभा की भीड़ बढ़ाने नहीं जाते। नतीजा यह है कि रेत-गिट्टी की तरह इंसानों को ढोना कुछ घटा है। लेकिन यह सिर्फ राजनीतिक सभाओं में घटा है, देश के शहरों में खुद सरकारी गाडिय़ां और मशीनें मजदूरोंं को ढोकर चलती हैं, बुलडोजरों पर मजदूरों को ढोया जाता है, और मौत होने पर मुख्यमंत्रियों के पास राहत देने के लिए तो अपार ताकत है ही।

अब हिन्दुस्तान में किसी भी तरह का सरकारी सुधार अदालती दखल के बिना होना मुमकिन नहीं रह गया है। और तो और हिंसक कोलाहल करते हुए जुलूस और बारात भी अदालती दखल के बिना रोकने की कल्पना सरकार नहीं करती, बल्कि अदालती हुक्म के बाद भी नहीं रोकती। ऐसे में अगर मुसाफिर ढोने वाले ऑटोरिक्शा तीन सवारियों के बजाय एक मिनी बस की तरह डेढ़-दो दर्जन सवारियां लेकर चलते हैं, तो इन्हें न रोकने के सरकारी फैसले के खिलाफ अदालत जाने के अलावा लोगों के पास और रास्ता क्या है? ऐसी गाडिय़ां सडक़ों पर अपने मुसाफिरों के अलावा भी दूसरों के लिए भी खतरनाक होती हैं, और इन पर रोक लगाने का काम जनता की भीड़ अगर करेगी, तो उस पर वही अफसर तरह-तरह के जुर्म लगा देंगे जिन पर ऐसी गाडिय़ों को रोकने की कानूनी जिम्मेदारी बनती है। लोगों के बीच यह जागरूकता आना जरूरी है कि सडक़ों पर ट्रैफिक नियम तोडऩे देना सरकार का हक नहीं है, बल्कि इन नियमों को लागू करवाना जनता का हक है।

अब ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट और देश के अलग-अलग हाईकोर्ट को अपनी वेबसाईट बनानी चाहिए, और सोशल मीडिया पेज बनाने चाहिए जहां पर लोग कानून तोड़े जाने के खिलाफ सुबूत पोस्ट कर सकें। यह बात अदालतें बरसों से मान रही हैं कि उन तक दौड़ लगा पाना आम लोगों के बस के बाहर की बात है। अब जरिया यही हो सकता है कि लोग अदालतों के सोशल मीडिया पेज पर कानून तोडऩे के वीडियो पोस्ट करें, और अदालतें अपना सोशल मीडिया-मित्र तैनात करके ऐसे मामलों पर सरकार से जवाब-तलब करे। किसी हाईकोर्ट को तो ऐसी पहल करनी पड़ेगी, और आज जब मोबाइल फोन और इंटरनेट का वक्त आ चुका है, तब जनता से यह उम्मीद करना कि वह सरकार से शिकायतों को लेकर कोई वकील तय करके अदालत तक जाए। अब लोगों को अदालत तक एक आसान और मुफ्त की पहल मुहैया कराना जरूरी है। कायदे की बात तो यह होती कि जिलों में पुलिस और प्रशासन ने ही ऐसी पहल की होती क्योंकि कानून तोड़े जाने की शिकायत तो सरकार के काम में मदद के अलावा कुछ नहीं है, लेकिन सरकारों में संगठित भ्रष्टाचार इतना अधिक है कि कानून तोडऩे वालों से माहवारी वसूलना एक बेहतर काम है, आसान काम है, बजाय कानून लागू करने के। उत्तरप्रदेश का यह ताजा हादसा ऐसे ही संगठित भ्रष्टाचार का एक सुबूत है, और यह बात पूरे देश में इसी एक प्रदेश में कोई अनोखी बात नहीं है, अधिकतर राज्यों में हाल ऐसा ही है, और जहां हादसा हो गया है वहां की बात सिर चढक़र दिख रही है। बाकी राज्यों को भी अपना-अपना घर सुधारना चाहिए, और इंसानी जिंदगियों को भ्रष्टाचार के लिए खत्म करना बंद करना चाहिए। किसी भी सरकार को कानून तोडऩे वालों को ऐसी छूट देने का कोई हक नहीं है, और अगर सरकारें अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करती हैं, तो फिर जनता को सोशल मीडिया पर इसके सुबूत लगातार पेश करना चाहिए, हो सकता है कि किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज को इस पर कार्रवाई करना जरूरी लगे।
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