संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एकता कपूर का घोला जहर और अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडराता एक बड़ा खतरा
15-Oct-2022 4:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एकता कपूर का घोला जहर  और अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडराता एक बड़ा खतरा

हिन्दी टीवी पर पारिवारिक मनोरंजन के नाम पर तरह-तरह की कुंठा और भड़ास को बढ़ाने की बेताज महारानी एकता कपूर अब सुप्रीम कोर्ट पहुंचकर एक मामले में घिरी हैं, और जजों की आलोचना का शिकार हो रही हैं। पारिवारिक साजिशों, कटुता और कुटिलता के अंतहीन धारावाहिक बना-बनाकर एकता कपूर ने हिन्दुस्तान की आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए पारिवारिक जहर घोल रखा है, लेकिन आज का अदालती मामला एक दूसरे धारावाहिक को लेकर है। एकता कपूर ने अपने ओटीटी प्लेटफॉर्म की एक वेबसिरीज में एक सैनिक की पत्नी को लेकर एक किरदार गढ़ा है, और इसे लेकर बिहार की एक जिला अदालत ने एक पूर्व सैनिक की शिकायत पर एकता कपूर के खिलाफ वारंट जारी किया है, उसके खिलाफ एकता कपूर सुप्रीम कोर्ट पहुंची हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने सुनवाई के दौरान कहा कि एकता कपूर इस देश की युवा पीढ़ी का दिमाग प्रदूषित कर रही हैं। वे लोगों को किस तरह का विकल्प दे रही हैं? जजों ने यह भी साफ किया कि सिर्फ इसलिए कि वे बड़े वकील की सेवाएं ले सकती हैं, सुप्रीम कोर्ट उनकी बात सुनने को मजबूर नहीं है। जजों ने कहा कि यह अदालत उनके लिए काम करती है जिनके पास आवाज नहीं है। 

इस मामले से दो-तीन बुनियादी सवाल उठते हैं। एकता कपूर द्वारा बड़े पैमाने पर हिन्दी दर्शकों के लिए फैलाई जा रही मानसिक गंदगी के बारे में हम पहले भी कई बार लिख चुके हैं। और चूंकि गंदगी के दर्शक हमेशा ही रहते हैं, अपराध कथाओं की पत्रिकाएं टीवी पर अपराध के कार्यक्रम आने के पहले तक किसी भी दूसरी पत्रिका से अधिक बिकती थीं। जब तक कम अक्ल लोग अपने लिए बेहतर सामग्री छांटने के लायक नहीं रहेंगे, न सिर्फ घटिया सीरियल चलेंगे, बल्कि घटिया अखबार, घटिया टीवी समाचार चैनल अधिक कामयाब रहेंगे, और हैं भी। लेकिन एकता कपूर की इस गंदगी से परे इस मामले से जुड़ा हुआ एक अलग बुनियादी सवाल और है जिसे अनदेखा करना हम नहीं चाहते। जब सुप्रीम कोर्ट के दो जज एकता कपूर को फटकार लगा रहे हैं, तो हमारे लिए भी यह आसान हो जाता है कि हम भी गड्ढे में गिरे हुए हाथी को दो लात मार दें। लेकिन अदालत की इस फटकार से परे भी इस मुद्दे को लेकर यह समझने की जरूरत है कि एक भूतपूर्व सैनिक ने अगर किसी सीरियल की कहानी में एक सैनिक की पत्नी के किरदार को सैनिकों का अपमान माना है, तो क्या इस आधार पर किसी फिल्मकार के खिलाफ अदालत में मामला दर्ज होना चाहिए, और उसकी गिरफ्तारी होनी चाहिए? ऐसा होने पर कल के दिन मुम्बई के किसी मोहल्ले के लोग अदालत जा सकते हैं कि उनके इलाके को मुजरिमों का अड्डा बताया गया है, और इससे उनका इलाका बदनाम हो रहा है, वहां की प्रापर्टी के रेट गिर रहे हैं। अनगिनत हिन्दी फिल्मों में गांव के सबसे बड़े गुंडे और बलात्कारी को ठाकुर बताया गया है, तो क्या ठाकुर लोग इसका विरोध करें कि उनकी जाति बदनाम हो रही है? तमाम सूदखोर, काईयां कारोबारी बनिया बताए जाते हैं, तो क्या बनिया जातियां ऐसे किरदारों का विरोध करें? एक जिला अदालत के सोचने की सीमाएं रहती हैं। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की असीमित संभावनाओं की व्याख्या करने की सही जगह नहीं रहतीं, लेकिन जब इस मामले से जुड़ी एक अपील सुप्रीम कोर्ट में चल रही है, और सुप्रीम कोर्ट के जज एक सीरियल की सामग्री पर टिप्पणी कर रहे हैं, तो यह सामग्री और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक बुनियादी बहस है, और इस पर जमानत अर्जी से अलग भी बात होनी चाहिए।

आज अगर एक लेखक या फिल्म-सीरियल निर्देशक एक काल्पनिक कथानक में भी किसी किरदार को इसलिए नकारात्मक दिखाने से रोक दिए जाएं कि उससे सैनिकों के परिवारों की भावनाओं को ठेस पहुंच रही है, तो फिर ऐसे कौन से नकारात्मक किरदार हो सकते हैं जिनसे किसी तबके की भावना का ठेस न पहुंचे? कहीं किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचेगी, कहीं जाति की भावना को, और कहीं किसी पेशे से जुड़े हुए लोगों की भावनाओं को। और भला ऐसा कौन सा तबका हो सकता है जिसके भीतर कोई गलत लोग न हों, या जिसके लोग कोई गलती न करते हों? और सेना को या अदालत को किसी अतिरिक्त सम्मान और पवित्र भावना से देखने की जरूरत इसलिए नहीं है कि देश और समाज के बाकी तबकों की तरह इन तबकों में भी सभी किस्म के गलत लोगों को यह देश देख चुका है। सेना के लोगों को बेईमानी और भ्रष्टाचार करते हुए, देशद्रोह करते हुए दुश्मन देश के लिए जासूसी करते भी हर कुछ महीनों में पकड़ा जाता है। इसलिए जहां किसी रचनात्मक कलाकृति, या लेखक-फिल्मकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है, तो किसी एक नकारात्मक किरदार से किसी तबके की भावनाओं को आहत होने की बात मानने लायक नहीं है। अगर ऐसी तंग सीमाएं लागू की जाएंगी, तो अच्छी रचनात्मकता भी खत्म हो जाएगी, एकता कपूर की रचनात्मकता हो सकता है कि घटिया दर्जे की भी हो। लेकिन जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बुनियादी बात की जाएगी, तो उसमें संदेह का लाभ न सिर्फ अच्छे रचनाकारों को मिलता है, बल्कि बुरे रचनाकारों को भी मिलता है। स्वतंत्रता को अनिवार्य रूप से उत्कृष्टता के साथ जोडक़र नहीं देखा जा सकता। इस देश में आजाद रहने का जितना हक एक पुलिस को है, उतना ही हक एक चोर को भी है। जुर्म पर सजा के पहले और बाद बुरे लोग भी आजाद ही रहते हैं, और यही लोकतंत्र है। सुप्रीम कोर्ट के जजों ने जिला अदालत के जारी किए हुए वारंट के खिलाफ सुनवाई करते हुए इस सीरियल पर भी टिप्पणी की है, जबकि यह सीरियल इस अदालत में बहस का मुद्दा नहीं था, और जिस निचली अदालत में यह बहस चलनी है, उसके छोटे से जज पर सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की भारी-भरकम टिप्पणियों का एक नाजायज असर भी हो सकता है। इसलिए अब अभिव्यक्ति की इस किस्म की आजादी पर बहस बिहार के एक जिले की अदालत में आसान भी नहीं रह गई है। कल सुप्रीम कोर्ट में जो हुआ, उसके इस पहलू को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए कि जजों ने निचली अदालत के न्याय क्षेत्र के पहलुओं पर अपनी राय दी है, जो कि निष्पक्ष न्याय की संभावनाओं को घटा सकती है। 

एकता कपूर के आलोचकों को यह सिलसिला आज अच्छा लग सकता है, लेकिन कल अगर ऐसी ही अदालती नजीरों की बुनियाद पर श्याम बेनेगल जैसे किसी अच्छे निर्देशक की फिल्म या सीरियल पर भी रोक लगा दी जाएगी कि उसके किसी किरदार के काम किसी तबके को नाराज कर रहे हैं, तब क्या होगा? जब देश की सबसे बड़ी अदालत कुछ कहती है तो उसके दूरगामी प्रभावों को भी सोच लेना चाहिए। आज घेरे में एकता कपूर है, कल यही मिसाल बेहतर लोगों पर भी लागू होगी, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा बनेगी। यह मामला सोच-समझकर आगे बढऩे का है, सुप्रीम कोर्ट जजों की तीखी बातों पर तालियां बजाने का नहीं है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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