संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वोटरों को लुभाना और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण दोनों काम साथ-साथ!
23-Oct-2022 4:59 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वोटरों को लुभाना और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण दोनों काम साथ-साथ!

Photo : Twitter

गुजरात के गृहमंत्री ने 21 से 27 अक्टूबर तक किसी का भी ट्रैफिक चालान काटने से मना कर दिया है। उन्होंने दीवाली के मौके पर इसे जनता को तोहफा कहा है, और चुनाव के करीब पहुंच रहे गुजरात में इसे वहां की बड़ी हिन्दू आबादी को लुभाने वाला एक फैसला कहा जा रहा है। उन्होंने मंच और माईक से सार्वजनिक घोषणा करते हुए कहा कि इस एक हफ्ते गुजरात टै्रफिक पुलिस कोई जुर्माना नहीं वसूलेगी। कल ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक बार फिर अपनी मुफ्त की रेवड़ी वाली बात को दुहराते हुए दिखे, और उन्होंने मध्यप्रदेश में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि टैक्स देने वाले जब यह देखते हैं कि उससे वसूले गए टैक्स से मुफ्त की रेवड़ी बांटी जा रही है, तो टैक्सपेयर सबसे ज्यादा दुखी होते हैं। उन्होंने कहा- मुझे गर्व है कि देश में एक बड़ा वर्ग है जो देश को रेवड़ी कल्चर से मुक्ति दिलाने के लिए कमर कस रहा है।

ये दोनों ही बातें कल की हैं, दोनों ही बातें गुजरात से निकले लोगों की कही हुई है। गुजरात के गृहमंत्री हर्ष संघवी चालान से छूट की देश की यह अपने किस्म की पहली रेवड़ी जब बांट रहे थे, तभी गुजरात से निकलकर देश के प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी एक दूसरे मंच से रेवड़ी कल्चर के खिलाफ बोल रहे थे। पिछले कुछ महीनों में रेवड़ी कल्चर का यह एक नया जुमला नरेन्द्र मोदी की तरफ से शायद इसलिए आया कि हिमाचल और गुजरात में चुनाव होने जा रहे हैं, इन दोनों ही राज्यों में आम आदमी पार्टी ताल ठोंकते हुए चुनाव में उतरी हुई है, और इस पार्टी का पुराना इतिहास रहा है कि यह तरह-तरह की लुभावनी रियायतों और तोहफों वाला चुनावी घोषणापत्र लाती है, और शायद उसे काफी हद तक पूरा भी करती है। ऐसी चुनावी घोषणाओं पर रोक लगाने के लिए भाजपा के एक बड़े नेता जो कि सुप्रीम कोर्ट के वकील भी हैं, वे एक जनहित याचिका लेकर अदालत में हैं, और अदालत ने केन्द्र सरकार, राजनीतिक दलों, और चुनाव आयोग से इस पर उनकी राय भी पूछी है। मोदी के उछाले गए रेवड़ी-कल्चर शब्दों का मौका इन विधानसभा चुनावों के ठीक पहले का भी था, और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चलने के बीच भी था। लेकिन अब यह भी समझने की जरूरत है कि हिन्दुओं के साल के एक सबसे बड़े त्यौहार पर अगर कानून तोडऩे की छूट का यह चुनावपूर्व तोहफा गुजरात में दिया जा रहा है, तो आने वाले बरसों और चुनावों में इसका क्या असर होगा?

अगर इस घोषणा को गैरकानूनी करार देते हुए इस पर रोक नहीं लगाई गई, इस पर अदालती फटकार नहीं लगी, तो फिर बाकी राजनीतिक दलों के लिए, और बाकी प्रदेशों के लिए मैदान खुला रहेगा। और फिर वह मैदान चुनाव के पहले के महीनों में ही नहीं खुलेगा, वह बारहमासी और पांचसाला हो जाएगा। बंगाल में दुर्गा पूजा के हफ्ते में चालान नहीं होंगे, गोवा में क्रिसमस से नए साल तक न सडक़ों पर चालान होंगे, और न ही पिये हुए लोगों पर कोई कार्रवाई होगी, और मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के पंजाब में तो ऐसी रियायत पूरे पांच बरस देनी होगी। और जैसा कि आज के हिन्दुस्तान का हाल सुप्रीम कोर्ट ने अभी दो दिन पहले के अपने ताजा फैसले में लिखा है, यह तो जाहिर है ही कि देश के तकरीबन तमाम प्रदेशों में ये रियायतें हिन्दू त्यौहारों पर ही मिलेंगी, और बाकी धर्मों के लोग अपने-अपने फिलीस्तीन जहां चाहें वहां ढूंढ लें।

कल जब गुजरात के मुख्यमंत्री दीवाली का यह तोहफा दे रहे थे, तो सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आए भी दो दिन हो चुके थे, पूरा फैसला लोगों के सामने था जो कि कह रहा था कि अगर नफरत फैलाने वाले बयानों पर किसी प्रदेश में खुद होकर कार्रवाई नहीं की गई, तो उसे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना माना जाएगा, और वहां के अफसरों को कटघरे में बुलाया जाएगा। वह बात नफरत की थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया था कि आज देश में, देश में जगह-जगह, या देशभर में देश का लोकतांत्रिक चरित्र खत्म किया जा रहा है, और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। निशाना बनाने का यह काम इस तरह भी हो सकता है कि केन्द्र और राज्य सरकारें गले-गले तक किसी एक धर्म को मनाने में लग जाएं, सरकारी खजाना उस धर्म की भक्ति में झोंक दिया जाए, और बिना कुछ कहे बाकी धर्म हाशिए पर धकेल दिए जाएं। गुजरात का यह ताजा फैसला उसी तरह का है। यह अल्पसंख्यकों के बारे में, या गैरहिन्दू धर्मों के बारे मेें कुछ नहीं कह रहा, लेकिन हिन्दू त्यौहार के मौके पर यह गैरकानूनी रियायत बिना कुछ कहे भी दूसरे धर्मों को उनकी औकात याद दिला देती है।

सुप्रीम कोर्ट ने नफरत के भाषणों के खिलाफ एक कड़ा रूख तो दिखाया है, लेकिन धर्मान्धता, और साम्प्रदायिकता के जो जलते-धधकते मामले हैं, उन्हें देश की यह सबसे बड़ी अदालत मोटेतौर पर अनदेखा करके ही चल रही है। आज जरूरत देश की साम्प्रदायिक स्थिति को एक समग्रता से देखने की है, यह भी सवाल करने की है कि किसी एक धर्म को देश या किसी प्रदेश का राजकीय धर्म कैसे बनाया जा रहा है? लेकिन सुप्रीम कोर्ट की कई बेंचें असुविधा से भरे इस काम से बचती दिख रही हैं, और यह समकालीन इतिहास इस बचने को भी दर्ज करते चल रहा है। फिलहाल किसी को गुजरात के इस फैसले के खिलाफ अदालत जाना चाहिए क्योंकि यह महज धार्मिक या साम्प्रदायिक मामला नहीं है, यह एक ऐसा गैरकानूनी मामला भी है जो सडक़ों पर लोगों की हिफाजत खत्म करता है। और ऐसा करना किसी सरकार का हक नहीं है। हो सकता है कि गुजरात के गृहमंत्री को यह अच्छी तरह मालूम हो कि यह आदेश अदालत में एक सुनवाई भी खड़ा नहीं रहेगा, और उसके बाद भी उन्होंने इसे चुनाव के पहले जनता के बीच खपाने के लिए ही कहा हो, लेकिन ऐसी मिसालों का विरोध होना चाहिए। इस हरकत से, और ऐसी चुनिंदा रियायत से गुजरात में जनता का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश भी यह दिखती है।
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