संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग में ऐसा आयुक्त चाहता है जो नाश्ते में नेताओं को खाए
24-Nov-2022 3:39 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग में ऐसा आयुक्त चाहता है जो नाश्ते में नेताओं को खाए

देश का चुनाव आयुक्त नियुक्त करने की प्रक्रिया पर जनहित के कई मुद्दे उठाने वाले देश के एक प्रमुख वकील प्रशांत भूषण, और कई दूसरे लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की है, और इस सुनवाई के चलते केन्द्र सरकार ने एक अफसर की रिटायर होने की अर्जी मंजूर की, और खड़े-खड़े उसे चुनाव आयुक्त बना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर चल रही सुनवाई के बीच ऐसी नियुक्ति से असहमति जताते हुए इसकी फाईल मंगवाई है कि यह देखा जा सके कि इस नियुक्ति में कुछ गलत तो नहीं हुआ है। केन्द्र सरकार के वकील ने अदालत की इस दिलचस्पी से असहमति जताई लेकिन अदालत ने उसे दरकिनार कर दिया। 

सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधानपीठ इस व्यापक महत्व के मुद्दे पर दायर की गईं कई याचिकाओं को जोडक़र सुनवाई कर रही है। इसमें इस बुनियादी बात को भी तय किया जाना है कि आज केन्द्र सरकार जिस तरह अपने पसंदीदा किसी रिटायर्ड अफसर को चुनाव आयुक्त बना देती है वह मनमानी किस तरह खत्म की जा सकती है। आज देश के इस एक सबसे नाजुक संवैधानिक दफ्तर में पसंदीदा लोगों को बिठाकर केन्द्र सरकार अपनी पसंद के चुनावी और राजनीतिक फैसलों की उम्मीद कर सकती है, और यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। लंबे समय से यह मांग की जा रही है, और विधि आयोग ने बहुत पहले से यह सिफारिश भी की है कि चुनाव आयुक्त छांटने के लिए कमेटी में नेता प्रतिपक्ष भी रहना चाहिए, ताकि सरकार अपनी मनमानी न कर सके। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बार-बार इन बातों को लिखते हैं कि रिटायरमेंट के बाद के ऐसे वृद्धावस्था पुनर्वास के लिए बहुत से अफसर आखिरी के कुछ बरसों में सत्ता की चापलूसी में लग जाते हैं, इसके साथ-साथ वे पुनर्वास के कार्यकाल में इस चापलूसी को जारी रखने का भरोसा भी दिलाते हैं। इसलिए हम बार-बार यह सुझाते आए हैं कि जिन राज्यों में कोई अफसर या जज काम कर चुके हैं, उन राज्यों में उन्हें कोई पुनर्वास नियुक्ति नहीं मिलनी चाहिए। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर काबिल अफसरों और जजों की एक लिस्ट बननी चाहिए, और अलग-अलग प्रदेशों में उसमें से अपने प्रदेश के बाहर के लोगों को छांटा जाना चाहिए। ऐसा ही केन्द्र सरकार की सभी संवैधानिक नियुक्तियों पर होना चाहिए, बिना नेता प्रतिपक्ष या मुख्य न्यायाधीश के ऐसी नियुक्तियां नहीं होनी चाहिए। 

कल सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर दिलचस्प बहस चली और जजों ने कहा कि चुनाव आयोग में टी.एन.शेषन जैसे व्यक्ति रहने चाहिए ताकि जरूरत पडऩे पर प्रधानमंत्री के खिलाफ भी कोई कार्रवाई करनी हो तो आयोग में उसका हौसला हो। लोगों को याद होगा कि टी.एन.शेषन एक रिटायर्ड कैबिनेट सेक्रेटरी थे, और उन्हें प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया था। वे छह बरस इस कुर्सी पर रहे, और उन्होंने यह साबित कर दिया कि हिन्दुस्तान जैसे अराजक चुनावों वाले देश में चुनाव किस तरह ईमानदारी से करवाए जा सकते हैं, और इस संवैधानिक ओहदे की ताकत कितनी होती है। लोगों को शेषन की कही वह बात याद होगी कि वे नाश्ते में नेताओं को खाते हैं। शेषन का मामला कुछ अधिक नाटकीय था, उनके तौर-तरीके अधिक तानाशाह से थे, फिर भी उन्होंने चुनाव आयोग की सत्ता की इस लोकतंत्र में पहली बार स्थापित किया। लोग अब रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग जैसी बहुत सी जगहों पर बिना रीढ़ के लोगों की आवाजाही देख रहे हैं, और ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह शुरुआती रूख हौसला बढ़ाता है कि चुनाव आयोग में देश के सबसे अच्छे लोगों को ही लाया जाना चाहिए, और इसके लिए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए। मोटेतौर पर अदालत का रूख सिर्फ सरकार की मर्जी के चुनाव आयुक्त बनने के खिलाफ है, और भारत जैसे लोकतंत्र का यह लंबा तजुर्बा है कि किसी भी संवैधानिक पद को सिर्फ सरकार की मर्जी पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। 

भारत में केन्द्र हो या राज्य, सरकार निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के बहुमत से बनती हैं, और उस पर पांच बरस बाद चुनाव में जाने का एक दबाव भी रहता है। ऐसे में उसके फैसले हर वक्त ही चुनावी दबाव के रहते हैं, और सच तो यह है कि किसी भी सरकार को बिना चुनावी दबाव के पांच बरस भी नहीं मिलते हैं क्योंकि हर एक-दो बरस में इस देश में कहीं न कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। ऐसे में केन्द्र और राज्यों में सभी संवैधानिक या इस किस्म के दूसरे पदों पर नियुक्तियों में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, और सबसे बड़ी अदालत के मुख्य न्यायाधीश की एक कमेटी होनी चाहिए, और इसमें खुलकर चर्चा के बाद नाम तय होना चाहिए। भारत में किसी भी सरकार और किसी भी निर्वाचित नेता को इतने अधिकारों के लायक नहीं माना जाना चाहिए कि वे अपने विवेक से ऐसे संवैधनिक पदों को तय कर लें। ऐसे फैसले एक व्यवस्था के तहत होने चाहिए, पारदर्शी तरीके से होने चाहिए, और अधिक बेहतर तो यह होगा कि इसके लिए लोगों की अर्जियां भी बुलाई जानी चाहिए। अभी सुप्रीम कोर्ट में यह मामला बहुत शुरुआती बहस देख रहा है, और कई बार जुबानी जमाखर्च फैसलों से बिल्कुल अलग भी रह जाती है, फिर भी जजों का यह रूख उम्मीद बंधाता है कि खुद प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी का चुनावी भविष्य जिस कुर्सी से प्रभवित हो सकता है, उस कुर्सी का फैसला अकेले प्रधानमंत्री या उनकी सरकार न लें। इस पर बहस दिलचस्प होगी, और हमारी उम्मीद है कि सरकार की लुकाछिपी अदालत में उजागर हो जाएगी, और देश को निष्पक्ष और ईमानदार चुनाव आयुक्त मिल सकेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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