संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : छत्तीसगढ़ अब नहीं रह गया साम्प्रदायिक सद्भाव का टापू
11-Apr-2023 2:08 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय  : छत्तीसगढ़ अब नहीं रह गया साम्प्रदायिक सद्भाव का टापू

साम्प्रदायिक तनाव से कुछ दूर रहने वाले छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ महीनों में लगातार धर्मों से जुड़ी हुई ऐसी हिंसक घटनाएं हुई हैं कि अब यह प्रदेश साम्प्रदायिक हिंसा से अछूता नहीं लग रहा है। ताजा मामला बेमेतरा जिले के बिरनपुर गांव का है, जो कि गृहमंत्री का अपना जिला है, और उसके साजा विधानसभा क्षेत्र में अभी एक साम्प्रदायिक हिंसा से मौत हुई है, यह चुनाव क्षेत्र प्रदेश के एक ताकतवर और वरिष्ठ मंत्री रविन्द्र चौबे का है। यहां हिन्दू और मुस्लिम बच्चों के बीच कुछ आपसी झगड़ा हुआ, और उसमें बाद में बड़े भी शामिल हो गए, और मारपीट में एक हिन्दू नौजवान की मौत हो गई, और घटना में शामिल आधा-एक दर्जन मुस्लिम गिरफ्तार हो गए हैं। इस मामले को लेकर विश्व हिन्दू परिषद ने प्रदेश बंद किया, जिसमें भाजपा पूरी ताकत से शामिल हुई, और यह जाहिर और स्वाभाविक ही था कि बाकी हिन्दू संगठन भी इसमें उतरे। बंद कामयाब रहा, लेकिन बंद के दौरान भी इस तनावग्रस्त इलाके में छोटी-मोटी आगजनी हुई, और पुलिस के लिए हालात काबू करना मुश्किल रहा। आज सुबह की खबर है कि इसी इलाके में दो नौजवानों की लाशें मिली हैं जो कि जंगल में बकरियां चराने गए थे। 

इस मामले के कुछ पीछे जाकर देखें तो इस गांव में हिन्दू-ओबीसी समुदाय की दो बहनों ने वहीं के दो मुस्लिम लडक़ों से शादी कर ली थी, और तभी से यह तनाव सुलग रहा था। कुछ महीने हो चुके थे लेकिन बात को कोई भूले नहीं थे, और बच्चों के एक झगड़े से दबी हुई हिंसक-नफरत सामने आ गई। मारपीट की हिंसा कत्ल के मकसद वाली नहीं दिख रही, लेकिन उसमें मौत हो गई। आज पूरे देश में जो साम्प्रदायिक तनाव फैला हुआ है, उसे देखते हुए छत्तीसगढ़ की यह ताजा हिंसा अनदेखी तो रहने वाली नहीं थी, और एक हिन्दू नौजवान की मौत के खिलाफ कल प्रदेश बंद एक बड़ी स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। छत्तीसगढ़ में चुनाव कुछ ही महीने बाद है, और ऐसे में यह घटना हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के लिए एक बड़ी वजह बन सकती है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि ठीक बगल के जिले कबीरधाम में पिछले साल-दो साल में लगातार कई बार हिन्दू-मुस्लिम टकराव हुआ है, और सार्वजनिक जगहों पर हिंसा भी हुई, जो कि गनीमत है कि किसी मौत तक नहीं पहुंची थी। कबीरधाम के पास के इस गांव में इस साम्प्रदायिक टकराव पर पड़ोस के साम्प्रदायिक तनाव का असर पडऩा ही था, और ऐसा लगता है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के लोगों को इस तनाव को घटाने के लिए जितनी मेहनत करनी चाहिए थी, वह नहीं की। और यह काम किसी घटना के होने के साथ ही होने का नहीं है, इसके लिए महीनों और बरसों की लगातार मेहनत लगती है, और उस किस्म की मेहनत करने वाले वामपंथी पार्टियों के लोग राजनीति के हाशिए पर जा चुके हैं, सत्तारूढ़ कांग्रेस के लोग सत्ता के फल चखने में लगे हुए हैं, और भाजपा के लोगों के पास एक राष्ट्रीय एजेंडा है ही। 

लेकिन बात सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम तनाव की नहीं है। छत्तीसगढ़ में दो और तरह के तनाव राज्य के दक्षिण और उत्तर के आदिवासी इलाकों में चल रहे हैं। बस्तर में आदिवासियों के भीतर ही इस बात को लेकर बड़ा तनाव चल रहा है कि उनमें से कुछ लोग ईसाई बन रहे हैं। कई गांवों में ऐसे ईसाई-आदिवासियों की लाशों को गांव के कब्रिस्तान में दफनाने का भी विरोध हो रहा है। पहली नजर में यह आदिवासी समुदाय के भीतर से खड़ा हो रहा एक तनाव है, लेकिन इसके पीछे भी कोई ईसाई-विरोधी ताकतें शामिल होंगी तो भी उसमें हैरानी की कोई बात नहीं होगी क्योंकि आदिवासियों को हिन्दू समाज गिनती के नाम पर अपने में जरूर गिनता है। इस तनाव में होने वाली हिंसा या हिंसक घटनाओं की खबर आने पर ही लोगों को इसका अहसास हो रहा है, लेकिन यह उससे आगे बढक़र जमीन पर फैला हुआ तनाव है, जिसका पूरा अहसास बाहर अभी नहीं हो रहा है। यह फिर अगले चुनाव को खासा प्रभावित करने वाला मुद्दा हो सकता है। दूसरी तरफ राज्य के उत्तरी इलाके, सरगुजा में बताया जाता है कि एक अलग किस्म का तनाव चल रहा है, वहां बाहर से आकर बहुत से मुस्लिम बस रहे हैं, और उनके बांग्लादेशी होने, या रोहिंग्या शरणार्थी होने के आरोप लगते हैं। झारखंड से लगी हुई सरहद के किनारे के गांवों में ऐसी नई बसाहट की खबरें आती हैं, इन्हें भाजपा रोहिंग्या शरणार्थियों से जोड़ती है, और सरकार या सत्तारूढ़ कांग्रेस इन खबरों को पूरी तरह खारिज करती है। कुछ जानकार लोगों का यह मानना है कि ऐसी मुस्लिम बसाहट चल रही है, लेकिन वह कितनी बड़ी है, मुस्लिम कहां के हैं, यह अभी साफ नहीं है। 

हम ऐसे किसी मामले में धर्म, जाति या सम्प्रदाय के जिक्र को छुपाने की कोशिश करने के खिलाफ हैं। इसीलिए हम साम्प्रदायिक हिंसा की खबरों में नामों का साफ-साफ जिक्र करते हैं, जब सच सामने नहीं रहता, तो सौ किस्म की अफवाहें पैदा होती हैं। हम छत्तीसगढ़ में इन तीन अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग वजहों से खड़े हो चुके तनावों को महज चुनाव से जोडक़र देखना नहीं चाहते। यह राज्य हमेशा से साम्प्रदायिक शांति का टापू बने रहा है। जब आसपास के बहुत से राज्य जलते-सुलगते रहते हैं, तब भी छत्तीसगढ़ ने बड़ा बर्दाश्त दिखाया है। ऐसे में मरने-मारने तक पहुंचा हुआ यह साम्प्रदायिक तनाव इस राज्य के लिए शर्मनाक है, और सरकार के लिए एक बड़ी दिक्कत भी है, खतरा भी है। यह मौका उन सामाजिक-राजनीतिक नेताओं के दखल का है जिनकी जनता के बीच साख है, अब भी बाकी है। दिक्कत यही है कि ऐसी साख वाले लोग कम हैं, और जो हैं वे हाशिए पर हैं। बेसाख नेताओं के किए कुछ होना नहीं है, और साम्प्रदायिक हिंसा की आग में जनता ही झुलसेगी, कोई नेता तो झुलसेंगे नहीं। यह बात साफ समझ लेनी चाहिए कि पुलिस की सीधी भागीदारी के बिना अगर ऐसा तनाव हुआ है, तो उसे लेकर पुलिस पर तोहमत नहीं लगाई जा सकती, और नेताओं को अपनी नाकामयाबी का जिम्मा खुद लेना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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