संपादकीय
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वैसे तो हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्से में लोगों की सेहत पर इस बात से अधिक फर्क नहीं पड़ता है कि उत्तर-पूर्व में क्या हो रहा है। वहां मणिपुर में कई हफ्तों से जो भयानक हिंसा चल रही है, उसके बारे में जानने में भी देश के बाकी हिस्से के लोगों में दिलचस्पी बहुत कम है। पहले कर्नाटक चुनाव चल रहा था, इसलिए जलते हुए मणिपुर में मौतों की परवाह और तो और, केन्द्र सरकार तक को नहीं थी, लेकिन अभी केन्द्रीय मंत्री अमित शाह मणिपुर जाकर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री के साथ बैठकर वहां तैनात फौज से लंबी बैठकें करके आए हैं, उन्होंने वहां दूसरे तबकों से भी बात की है, लेकिन हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। अब तक सौ से अधिक मौतें हो चुकी हैं।
अमित शाह खुद ही इस बात को मान चुके हैं कि मणिपुर हाईकोर्ट का यह फैसला इस तनाव के लिए जिम्मेदार है कि राज्य सरकार प्रदेश के सवर्ण मैतेई जाति के लोगों को आदिवासी आरक्षण में शामिल करने के लिए सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजे। ऐसा कोई फैसला होने से राज्य के आदिवासियों के हक एकदम से मारे जाएंगे क्योंकि अधिक संपन्न, अधिक शिक्षित, शहरी और राजनीतिक ताकतवर मैतेई लोग आरक्षण के सभी फायदों पर काबिज हो जाएंगे। इसके खिलाफ मणिपुर के आदिवासी विरोध पर उतरे हैं, दूसरी तरफ उनके मुकाबले मैदानी इलाकों में बसे मैतेई जुट गए हैं, दोनों तरफ से हिंसा हो रही है, तकरीबन सभी मैतेई हिन्दू हैं, अधिकतर आदिवासी ईसाई हैं, इसलिए इस संघर्ष ने हिन्दू-ईसाई टकराव की शक्ल भी अख्तियार कर ली है। यह मामला आदिवासी-गैरआदिवासी, पहाड़ी-शहरी, और ईसाई-हिन्दू सभी किस्म का हो गया है। बीस हजार सैनिक-सिपाही तैनात हैं, लेकिन जो ताजा हिंसा वहां पर हुई है, वह भयानक नौबत का एक सुबूत है। ताजा खबर बताती है कि वहां विमानों से बीएसएफ के एक हजार और जवान भेजे गए हैं।
आज जिस वजह से महीने भर में तीसरी बार हम मणिपुर पर लिख रहे हैं वह घटना दिल दहलाने वाली है। जिन कुकी आदिवासियों के चर्च-घर जला दिए गए हैं, और जो असम रायफल्स के राहत शिविर में शरण लिए हुए हैं, उन पर मैतेई समाज की भीड़ ने हिंसक हमला किया। इस हमले में एक बच्चा गोली से घायल हो गया था, उसे लेकर एम्बुलेंस पुलिस के घेरे में राजधानी इम्फाल के बड़े अस्पताल जा रही थी। इस दौरान रास्ते में मैतेई समुदाय के करीब दो हजार लोगों की भीड़ ने एम्बुलेंस को घेर लिया और उस पर हमला किया। भीड़ ने एम्बुलेंस को जलाकर राख कर दिया, और उसमें सात बरस का जख्मी बच्चा, उसकी मैतेई-ईसाई मां जिसकी शादी एक कुर्की आदिवासी से हुई थी, और उनके एक मैतेई ईसाई की जलकर मौत हो गई। एम्बुलेंस में कुछ हड्डियां बची मिली हैं। यह घटना ओडिशा में एक ईसाई धर्मप्रचारक ग्राहम स्टेंस को उनके बच्चों सहित कार में जिंदा जला देने की घटना याद दिलाती है। पहले तो असम रायफल्स के कैम्प पर बंदूकों से हमला किया गया जिसमें यह बच्चा गोलियों से घायल हुआ, और उसके बाद अस्पताल ले जाते हुए एम्बुलेंस को घेरा गया, और लोगों सहित जिंदा जला दिया गया। पुलिस ने यह सावधानी बरती थी कि घायल बच्चे के साथ सिर्फ मैतेई समुदाय की उसकी मां और एक रिश्तेदार को ले जाया जाए, क्योंकि उसके कुकी पिता-परिवार के किसी को ले जाना खतरनाक हो सकता था। लेकिन यह सावधानी भी काम नहीं आई, और इस बच्चे को जो कि आधा मैतेई, आधा कुकी था, उसे उसकी मैतेई मां सहित जलाकर मार डाला गया।
यह घटना लाशों की गिनती को तो कुल तीन बढ़ा रही है, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि वहां नफरत कितनी बढ़ चुकी है, लोग किस हद तक हिंसक हो चुके हैं, पुलिस की हिफाजत किस कदर बेअसर हो चुकी है। असम रायफल्स फौज का हिस्सा है, और उसके कैम्प पर हथियारबंद हमला बहुसंख्यक मैतेई समुदाय की ताकत भी बता रहा है, और उनका हमलावर रूख भी। जाने कितने दिन पहले, शायद हफ्तों पहले यह खबर आई थी कि मणिपुर में दंगाईयों को देखते ही गोली मारने का हुक्म दिया गया है, लेकिन उससे भी हिंसा थमते दिख नहीं रही है। यह मौका केन्द्र सरकार के लिए फिक्र का है, और उसे बहुत कुछ सोचने की जरूरत भी है क्योंकि अमित शाह की भाजपा के ही मुख्यमंत्री मणिपुर पर राज कर रहे हैं, और वहां के आदिवासी समुदाय का यह मानना है कि मुख्यमंत्री ही हिंसा भडक़ा रहे हैं, वे लगातार पिछले बरसों से आदिवासियों के खिलाफ एक अभियान चला रहे थे, और कुछ दिन पहले का एक इंटरव्यू देखें, तो वहां के कुकी आदिवासियों के एक सबसे बड़े नेता ने यह साफ-साफ कहा था कि अब मणिपुर में आदिवासी किसी भी तरह इस राज्य सरकार के मातहत नहीं रह सकते, उन्हें या तो एक अलग केन्द्र प्रशासित प्रदेश बनाया जाए, या किसी और तरह का स्वशासन का दर्जा दिया जाए। यह निराशा इस राज्य के लिए बहुत भारी हो सकती है कि वहां के लोग राज्य सरकार के मातहत रहना नहीं चाहते। यह बात भी समझने की जरूरत है कि मणिपुर की स्थिति देश के नक्शे पर बहुत नाजुक है क्योंकि इसकी लंबी सरहद म्यांमार से मिलती है, और वहां से हथियार और नशे की तस्करी आम बात बताई जाती है। खुद मणिपुर के भीतर आदिवासियों वाले तमाम पहाड़ी इलाकों का अधिकांश हिस्सा न रहने लायक है, न वहां आसानी से पहुंचने के लायक है। ऐसे में आदिवासियों के खिलाफ कोई कार्रवाई अगर केन्द्र और राज्य सरकारें तय करती हैं, तो वे हालात गुरिल्ला युद्ध के होंगे, और वे अंतहीन चल सकते हंै।
फिलहाल हम यहां इसलिए लिख रहे हैं कि बाकी देश भी उत्तर-पूर्व को अपने देश का हिस्सा माने, और उस बारे में फिक्र भी करे।