संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मुआवजे-राहत में नौकरी देना कहां तक जायज है?
09-Jun-2023 4:25 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मुआवजे-राहत में नौकरी देना कहां तक जायज है?

अभी ओडिशा में रेल दुर्घटना हुई जिसे लेकर मौजूदा रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव से पिछली एक रेलमंत्री ममता बैनर्जी उलझ गईं। खैर, हादसे का मौका सबसे पहले जिंदगियां बचाने का रहता है, न कि इस बहस को छेडऩे का कि ममता के कार्यकाल में रेलवे में कौन से काम हुए थे जो कि आज तक पूरे नहीं हो पाए, या लागू नहीं हो पाए। दरअसल ममता बैनर्जी की मजबूरी यह भी थी कि वे आज पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, और बंगाल के लोग बड़ी संख्या में इस ट्रेन हादसे में मारे गए थे, और जख्मी हुए थे। उन्हें देखने ही ममता ओडिशा के बालासोर में इस हादसे की जगह पहुंची हुई थीं। इसके बाद उन्होंने अपने प्रदेश के लोगों की तसल्ली के लिए यह भी कहा कि इस हादसे में जान गंवाने वाले लोगों के परिवार के सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाएगी, और जिन्होंने अपने कोई अंग खो दिए हैं, उन्हें भी सरकारी नौकरी दी जाएगी। सरकारें कई किस्म के हादसों में सरकारी नौकरियां देने की घोषणा करती हैं। दिक्कत यह रहती है कि ये नौकरियां बहुत गिनी-चुनी हैं, और एक-एक नौकरी के लिए लाख-पचास हजार बेरोजगार कतार में लगे हुए हैं, ऐसे में उन्हें समान अवसर मिले बिना जब मुकाबले से परे किसी को नौकरी दी जाती है, तो बेरोजगारों की बारी मार खाती है। फिर यह भी होता है कि किसी खुले मुकाबले में सरकार को सबसे अच्छे लोगों के मिलने की संभावना रहती है, वह भी मुआवजा-नियुक्ति में खत्म हो जाती है। 

सरकारें मुआवजों की मुनादी को एक लोक-लुभावनी रणनीति की तरह इस्तेमाल करती हैं। जब परिवारों के सिर पर लाशें पड़ी हैं, अंतिम संस्कार हुआ नहीं है, जख्मियों को सरकार ही अस्पतालों में भर्ती करा रही है, उस वक्त मुआवजे की घोषणा बाकी दुनिया को बताने के लिए रहती है। और खतरनाक बात यह है कि भारत जैसे देश में राष्ट्रीय स्तर की बड़ी दुर्घटना में केन्द्र सरकार अलग मुआवजे की घोषणा करती है, और राज्य सरकारें अपने खजाने से अपनी मर्जी से। नतीजा यह होता है कि अलग-अलग राज्य सरकारें अलग-अलग और समानांतर मुआवजों की घोषणा करती हैं। कई बार राज्यों के विपक्ष सत्ता को चुनौती देते हैं कि एक-एक करोड़ रूपये मुआवजा एक-एक मौत के लिए दिया जाए। इन दिनों करोड़ रूपये के ऐसे नोट की फरमाईश इतनी बढ़ चली है कि सत्ता के लिए कभी-कभी दिक्कत होने लगती है, और फिर जिस तरह चुनावी घोषणापत्रों में मुफ्त या तोहफे देने का मुकाबला होता है, उसी तरह लाशों और बदन के कटे हुए हिस्सों के दाम तय करने का मुकाबला भी होने लगता है। अधिक मुआवजा या राहत राशि देकर सरकार अपने को अधिक बड़ा हमदर्द साबित करती है। 

हमारा बड़ा साफ मानना है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक मुआवजा और राहत नीति तय होनी चाहिए, और सत्तारूढ़ नेताओं को अपनी मर्जी से इसे कम-ज्यादा करके बुरी मिसालें कायम करने का मौका नहीं देना चाहिए। जो भी खर्च होता है वह जनता के पैसों से ही जाता है, चाहे वह केन्द्र सरकार के खजाने से हो, चाहे वह राज्यों के खजाने से हो, जाता तो दोनों ही जनता की जेब से है। इसलिए मुआवजे और राहत के बारे में वजह और जरूरत इन दो पैमानों पर एक नीति बन जानी चाहिए। किस तरह के हादसों के शिकार किन लोगों को उनकी आय वर्ग के मुताबिक कितनी राहत दी जाए, इसके साफ-साफ पैमाने रहने चाहिए। आज ओलंपिक मैडल से लेकर दूसरी खेल-कामयाबी तक अलग-अलग राज्य अलग-अलग तरह से नगद पुरस्कार की घोषणा करते हैं, और उससे भी कई राज्यों के खिलाडिय़ों में बड़ी निराशा होती है। चूंकि पुरस्कार से लेकर मुआवजा देने तक, या मदद करने तक का हक राज्य और केन्द्र दोनों का है, इसलिए ऐसे बुरे मुकाबले खत्म करने चाहिए, और कम से कम लाशों और जख्मों पर तो एक आम नीति पर सहमति होनी चाहिए। 

इससे परे हमारा यह भी मानना है कि सिवाय शहादत के मामलों के, किसी भी और हादसे पर सरकारी नौकरी देने का सिलसिला खत्म होना चाहिए। देश के बेरोजगार वैसे भी निराशा और कुंठा से गुजर रहे हैं, और मुआवजे-राहत के लिए सरकारी नौकरियां देना एक नाजायज काम है। कहीं कोई फौज में, या नक्सल मोर्चे पर, या किसी और हिंसा में ड्यूटी के दौरान शहीद हों, तो एक अलग बात है, वरना सरकारी नौकरियों को अपने जेब के बटुए की नगदी की तरह नहीं बांटना चाहिए। 

केन्द्र और राज्य सरकारों को यह भी सोचना चाहिए कि क्या कोई राष्ट्रीय मुआवजा-राहत बीमा योजना लागू हो सकती है जिसके तहत प्राकृतिक विपदाओं से लेकर हादसों तक में किन-किन बातों पर कितनी रकम दी जाए, और उसके लिए क्या कोई बीमा योजना लागू की जा सकती है? आज हिन्दुस्तान में हालत यह है कि वोटरों के जो मजबूत तबके हैं, उनमें से किसी के हादसे के शिकार होने पर आनन-फानन नौकरी या रकम मंजूर हो जाती है, लेकिन जो लोग संगठित नहीं हैं, उन्हें देने की दरियादिली नहीं दिखती। दूसरी बात यह है कि हादसों के शिकार भी अगर संपन्न लोग हो रहे हैं, तो उन्हें सरकार से कोई मुआवजा क्यों मिलना चाहिए जो कि गरीबों के भी हक का रहता है? ऐसी नौबत हर सरकार के सामने हर महीने कई बार आती है, और चूंकि राज्यों की सत्तारूढ़ पार्टियां अलग-अलग हैं, केन्द्र और राज्य के मंत्रियों के विवेक से मंजूर होने वाली मदद अलग-अलग है, इसलिए व्यक्तिगत लगाव या पूर्वाग्रह से भी फैसले होते हैं। यह पूरा सिलसिला गैरबराबरी का है, और जरा भी न्यायसंगत नहीं है। चूंकि हर नेता या सरकार को अपनी मर्जी के फैसले लेना सुहाता है, इसलिए यह सिलसिला खत्म भी नहीं होता। लेकिन जनता के बीच से ऐसी आवाज उठनी चाहिए जो कि नेताओं की मनमानी के खिलाफ हों। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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