संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चैनलों के कुकुरहाव और मुर्गा लड़ाई पर जाना बंद करना चाहिए
11-Jun-2023 5:48 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  चैनलों के कुकुरहाव  और मुर्गा लड़ाई पर जाना बंद करना चाहिए

photo : twitter

अभी एक किसी टीवी चैनल के स्टूडियो में मुस्लिमों के बीच प्रचलित 72 हूरों की धारणा को लेकर एक बहस हुई जिसमें कुछ मुस्लिम मुल्ला अपनी धार्मिक शिनाख्त के साथ वहां मौजूद थे, और कुछ मुस्लिम महिलाएं भी थीं। जैसा कि ऐसे किसी भी धार्मिक बहस के दौरान होता है, धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे मान लिए गए लोग अधिक से अधिक कट्टरता की बातें करने में लगे थे, और उनके बीच आपस में भी कट्टरता की बारीकियों को लेकर बहस चल रही थी। दूसरी तरफ महिलाएं जब इन बातों से असहमत होने लगीं, तो एक महिला और एक आदमी के बीच बहस इतनी बढ़ गई कि दोनों के बीच हाथापाई होने लगी, गालियां दी जाने लगीं, और धक्का-मुक्की से एक-दूसरे को बाहर निकालने का काम होने लगा। स्टूडियो की यह रिकॉर्डिंग बताती है कि वहां मौजूद तमाम चैनल कर्मचारी इनको गुत्थम-गुत्था होने से रोकने में लगे रहे, और मारपीट अधिक ऊंचे दर्जे की हिंसक नहीं हो पाई। गनीमत यही है कि यह बहस मुस्लिमों के बीच ही थी, वरना अलग-अलग धर्मों के लोग रहते, तो वह साम्प्रदायिक हो जाती। 

अब सवाल यह उठता है कि टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में जहां बड़े जटिल मामलों पर कुछ बोलने के लिए मिनट-दो-मिनट से अधिक एक बार में वक्त नहीं मिलता, वहां पर पुराने धार्मिक ग्रंथों का जिक्र करके ऐसी बहस करवाने के पीछे क्या नीयत रहती है? खासकर यह बात इसलिए भी बड़ी तल्खी के साथ लगती है कि धर्म के ठेकेदार के किरदार में जैसे कट्टरपंथी कठमुल्लाओं को वहां बुलाया जाता है, उनसे दकियानूसी बातों के अलावा और कुछ निकलना नहीं रहता है। फिर दूसरी बात यह भी रहती है कि अगर खुले विचारों की उन्हीं धर्मों की कुछ महिलाओं को वहां रखा जाएगा, तो बहस में कड़वाहट होना तय है, और यह पहला मौका नहीं है कि किसी चैनल के कार्यक्रम में ऐसा हिंसक माहौल बना हो। इसके पहले भी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में कई ऐसे कार्यक्रम हुए हैं जिनमें जूते तक चले हैं, और जूते मारने के साथ-साथ एक-दूसरे की मां-बहन से रिश्ते भी कायम किए गए हैं। और यह बात सिर्फ इस्लाम और मुसलमानों तक सीमित नहीं है, हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म से जुड़े हुए लोगों के बीच भी इस किस्म का कुकुरहाव करवाया जाता है, और कई भगवे वहां बैठकर एक-दूसरे से तकरीबन हिंसक असहमति जाहिर करते हैं। 

धर्म जिसके मुद्दों पर लंबा शास्त्रार्थ ही किसी बात को साफ कर सकता है, उस पर एक-एक मिनट के टुकड़ों में इस किस्म की मुर्गा लड़ाई सिवाय बदनीयत के और किसी वजह से नहीं करवाई जा सकती। इससे कुछ भी हासिल नहीं होता। जिस तरह किसी नेता के भाषण में से कोई तीन शब्द निकालकर कुछ भी साबित नहीं किया जा सकता, उसी तरह टीवी की ऐसी मुर्गा लड़ाई में धार्मिक मामलों पर बहस में जाने वाले धर्म-प्रतिनिधियों के बारे में ऐसी धारणा रहती है कि कुछ चैनल उनमें से कई लोगों को भाड़े पर बुलाते हैं ताकि एक गैरजरूरी तनातनी खड़ी की जा सके, और चैनल के दर्शक संख्या बढ़ाई जा सके। इसके कोई सुबूत तो होते नहीं हैं, लेकिन चैनलों का ऐसा ही रूख आम होते चल रहा है। अब सवाल यह उठता है कि सडक़ों पर कुत्तों की टोली में जिस तरह की छीनाझपटी होती है, वे लोग एक-दूसरे को काटने के लिए दौड़ते और उलझते हैं, उसी तरह की हरकतें भाड़ा लेकर अगर इंसान कर रहे हैं, तो क्या इससे उनका और उनके धर्म का सम्मान बढ़ रहा है? इससे भी बड़ी बात यह है कि जो दर्शक ऐसे टीवी चैनल देखते हैं, वे इन्हीं हरकतों को बढ़ावा भी देते हैं। यह भी समझने की जरूरत है कि यह टीआरपी नहीं रहेगी, तो चैनल अगले दिन से कुछ और दिखाने लगेंगे। लेकिन जब तक लोग मनोहर कहानियां जैसी अपराधकथाओं वाली पत्रिकाएं खरीदेंगे, तब तक वह पत्रिका छपती रहेगी। 

जब एक से अधिक धर्मों के लोग टीवी पर आपस में उलझते हैं, और बदनाम एंकर उनके बीच नफरत का सैलाब फैलाने की कोशिश करते हैं, तो उस बारे में सुप्रीम कोर्ट भी कई बार कह चुका है कि केन्द्र सरकार ऐसे चैनलों पर क्या कार्रवाई कर रही है, या कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है। कुछ चैनलों के कुछ अधिक जहरीले एंकर-एंकरानियां ऐसे भी रहते हैं जिन्हें हवा में जहर घोलने के लिए भाड़े पर किसी धर्म के हुलिए के लोगों को नहीं बुलाना पड़ता, और जो खुद अकेले भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस फैला सकते हैं, फैलाते रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हेट-स्पीच रोकने और उस पर कार्रवाई करने के लिए एक से अधिक बार जो कड़े हुक्म दिए हैं, उनको टीवी चैनलों, सोशल मीडिया, और मीडिया की बाकी तमाम शक्लों पर भी लागू करना चाहिए। जो लोग किसी धर्म को मानते हैं, उन्हें भी अपने धर्म का चोगा पहनकर चैनलों पर जाने वाले, और मुर्गा लड़ाई करने वाले किरदारों को कोसना चाहिए, और इस बारे में सोशल मीडिया पर खुलकर लिखना चाहिए। एक वक्त अखबारों में पाठकों के पत्र नाम का कॉलम रहता था, और उस वक्त कोई सोशल मीडिया नहीं रहता था, इसलिए उस कॉलम में लोग गंभीरता और ईमानदारी से लिखा करते थे। आज हर किसी के मोबाइल फोन पर कई किस्म सोशल मीडिया अकाऊंट खुले रहते हैं, और बहुत ही कम लोग किसी गंभीरता और ईमानदारी से उस पर लिखते हैं। अगर किसी धर्म के लाखों लोग ऐसे किसी धार्मिक बहुरूपिये के खिलाफ लिखने लगेंगे, तो उन्हें भी समझ आएगा कि भाड़े के बकवासी बनकर चैनलों पर जाना, और एक-दूसरे पर झपटना ठीक नहीं है। इसके अलावा हम यह भी सुझाना चाहते हैं कि जो सामाजिक आंदोलनकारी ऐसे चैनलों पर चाहे कट्टरता पर हमले की नीयत से जाते हों, उन्हें ऐसे चैनलों को साख देना बंद करना चाहिए। जब तक हवा से जहर घटाने के काम में जिम्मेदार लोग नहीं जुटेंगे, तब तक गैरजिम्मेदार लोग सनसनी, उत्तेजना, धर्मान्धता, और कट्टरता फैलाने के लिए यह सिलसिला जारी रखेंगे। (आज यहां पर कुत्तों और मुर्गों की जो मिसाल दी गई है, उसके लिए इन दोनों प्राणियों से क्षमायाचना)

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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