संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...उमर खालिद की कैद के हजार दिन, इस लोकतंत्र की शर्मिंदगी के हजार दिन भी हैं
13-Jun-2023 4:48 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  ...उमर खालिद की कैद के  हजार दिन, इस लोकतंत्र की  शर्मिंदगी के हजार दिन भी हैं

photo : twitter

देश में सामाजिक आंदोलनों के एक बड़े प्रतीक बने हुए नौजवान आंदोलनकारी उमर खालिद को बिना सजा जेल में एक हजार दिन हो गए हैं। दिल्ली पुलिस ने जेएनयू के इस छात्रनेता को 2020 के दिल्ली दंगों के सिलसिले में यूएपीए जैसे कड़े कानून के तहत गिरफ्तार किया था, और उसे दिल्ली दंगों का मास्टर माइंड बताया था। दिल्ली के इन प्रदर्शनों में उमर के पिता मौजूद थे, और उनका बयान था कि जब दंगे हुए उनका बेटा दिल्ली में ही नहीं था। अब उनका कहना है कि हजार दिनों की कैद भी उमर के आत्मविश्वास को नहीं तोड़ पाई है, और जब वे देखते हैं कि उसकी अदालती पेशी के दौरान जितने और जैसे-जैसे लोग वहां मौजूद रहते हैं, जो कि जेल में बंद रखे गए हैं, तो उनके चेहरों पर लिखा आत्मविश्वास बताता है कि वे जानते हैं कि वे एक मकसद के लिए जेल में हैं। अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में कल हुई एक सभा में बहुत से सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं, पत्रकारों ने इस मामले पर अपनी बात रखी। जेएनयू के एक प्रोफेसर प्रभात पटनायक ने कहा कि यह सिर्फ खालिद की निजी त्रासदी नहीं है, यह एक प्रतिभा की सामाजिक बर्बादी भी है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों के वक्त भी गांधी को कभी दो बरस से अधिक कैद में नहीं रखा गया, नेहरू जरूर एक बार में ही 1041 दिन जेल में थे, और खालिद उनसे 41 दिन पीछे है। पत्रकार रवीश कुमार ने कहा कि खालिद जैसे लोगों के लिए इंसाफ की राह बहुत अधिक लंबी कर दी गई है। उन्होंने कहा कि हजार दिन गुजर गए हैं, और ये हजार दिन सिर्फ खालिद की तकलीफ के नहीं हैं, बल्कि ये भारतीय न्याय व्यवस्था की शर्मिंदगी के हजार दिन भी है। 

लोकतंत्र मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों को तकनीकी बातों में उलझाकर अपने ही नागरिकों की प्रताडऩा का नाम नहीं है। हिन्दुस्तान में पिछले कुछ बरसों में यह लगातार चल रहा है। और यह बहुत नया भी नहीं है, जब केन्द्र में यूपीए की सरकार थी, और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार थी, उस वक्त भी नक्सलियों की मदद के आरोप में विनायक सेन को बरसों तक बिना जमानत रखा गया था। शायद आजाद हिन्दुस्तान में कई कानून इतने कड़े हैं कि भीमा कोरेगांव केस में जमानत पाए बिना फादर स्टेन स्वामी जैसे सामाजिक कार्यकर्ता विचाराधीन कैदी के रूप में बरसों गुजारकर मर गए, और भी लोगों को बिना जमानत कई बरस जेल में गुजारने पड़े। ऐसा बहुत से मामलों में हो रहा है। आज के हिन्दुस्तान में अगर कोई पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता मुस्लिम है, तो कई प्रदेशों में बिना सुनवाई उसकी बरसों की कैद एक किस्म से तय हो जाती है। देश में कुछ ऐसे कानून है जो सरकारों को अंधा कानून बनकर मदद करते हैं, और इनको खत्म करने की लोकतांत्रिक मांग लंबे समय से चली आ रही है। जिन अंग्रेजों के वक्त ऐसे कानून हिन्दुस्तान में बने थे, खुद उनके देश में आज ऐसे कानून खत्म कर दिए गए हैं क्योंकि वहां लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान करना लोकतांत्रिक परंपरा के तहत मजबूरी हो गई है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में सरकारें ऐसे कड़े और अंधे कानूनों को खत्म करना नहीं चाहतीं जो कि अदालती फैसले के पहले ही कई बरस तक लोगों को कैद रखने का हथियार रहते हैं। आज बहुत से मामलों में ऐसा ही हो रहा है। 

दिक्कत यह है कि कांग्रेस हो या भाजपा, जो बड़ी पार्टी सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया रहती है, उसे कड़े कानून सुहाने लगते हैं क्योंकि उनमें बिना किसी इंसाफ के लोगों को असीमित सजा दी जा सकती है। लेकिन इमरजेंसी में ऐसे कानून समझ में आते थे क्योंकि सरकार लोकतंत्र को छोड़ चुकी थी, आज तो देश में लोकतंत्र होने का दावा किया जाता है, और ऐसे में अगर ये कानून इस तरह लादे जा रहे हैं, उनका भरपूर बेजा इस्तेमाल हो रहा है, तो उसमें सुप्रीम कोर्ट को दखल देनी चाहिए। हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ऐसे बहुत से मामलों को देख चुके हैं जिनमें किसी बेकसूर को बरसों तक कैद में रखा गया है। अदालतें कड़ी टिप्पणी करके कुछ लोगों को छोड़ भी चुकी हैं। लेकिन ऐसा सिलसिला जगह-जगह जारी है। सुप्रीम कोर्ट को ऐसे किसी मामले की सुनवाई में सरकारी पुलिसिया कार्रवाई को पारदर्शी बनाने के लिए, उसकी न्यायिक समीक्षा करने के लिए एक इंतजाम करना चाहिए। आज तो नेता-अफसर मिलकर किसी राजनीतिक विचारधारा के विरोधियों को कुचलकर खत्म कर देने के लिए ऐसे काम में लगे हुए हैं। यह सिलसिला इंसाफ की सोच के ठीक खिलाफ है। जिन सरकारों को पारदर्शी रहना चाहिए, वे सरकारें अदालतों में ऐसे मामलों में घिर जाने पर किसी पेशेवर मुजरिम की तरह बर्ताव करने लगती हैं, और अपनी नाजायज कार्रवाई को जायज ठहराने के लिए तरह-तरह के झूठे बहाने बनाने लगती हैं। कई मामलों में बड़ी अदालतों में सरकारी बदनीयत को पकड़ा है, सरकारों को लताड़ लगाई है, लेकिन जिस तरह पेशेवर बेशर्म लोग रोजाना लताड़ खाकर भी उसी किस्म के काम हर अगले दिन करते रहते हैं, उसी तरह सरकार यहां करते रहती है। सरकारों की ऐसी मनमानी और गुंडागर्दी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर भी दखल देनी चाहिए, और यह तय करना चाहिए कि किसी भी कानून के तहत एक सीमा से अधिक दिन गुजरने पर कौन सी बड़ी अदालत उसके पीछे का तर्क तौलेगी, और जमानत पर फैसला करेगी। आज की अदालती व्यवस्था, जैसा कि रवीश कुमार ने कहा है, यह हजार दिन की शर्मिंदगी की न्याय व्यवस्था है। 

जब न्याय की प्रक्रिया ही सजा हो जाए, तो वह न्याय किसी तरह का न्याय नहीं रह जाता। अदालतों को न सिर्फ इंसाफ करना चाहिए, बल्कि इंसाफ का दिन आने तक सरकारें गुंडागर्दी से नाइंसाफी न लादती रहें, इसका भी ध्यान रखना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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